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मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ है, बनिस्बत इसके कि हमें अपने गुणों को कुंठित बनाकर जीना पड़े। चिन्तादग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है, किन्तु ईष्र्या से जला-भुना आदमी जहर की चलती-फिरती गठरी के समान है, जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है।(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए। |(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।(स) ईष्र्यालु और चिन्ताग्रस्त व्यक्ति में क्या अन्तर है ?[ बनिस्बत = अपेक्षाकृत। चिन्तादग्ध = चिन्ता में जला हुआ।]

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(अ) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड में संकलित एवं श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा लिखित ‘ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से’ नामक मनोवैज्ञानिक निबन्ध से उद्धृत है। अथवा अग्रवत् लिखिए पाठ का नाम-ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से। लेखक का नाम-श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’।

(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–लेखक का कथन है कि मनुष्य की मानवता उसके नैतिक गुणों से प्रकट होती है। जिस व्यक्ति में प्रेम, दया, सहानुभूति, परोपकार, त्याग जैसे मानवीय गुण न हों, वह मनुष्य नहीं होता। ईर्ष्या ही वह विष है, जो मनुष्य के इन मानवीय गुणों को नष्ट कर उसका जीवन व्यर्थ कर देती है। ऐसे जीवन से तो मृत्यु कहीं अधिक अच्छी है। चिन्तित व्यक्ति किसी दूसरे का कुछ नुकसान नहीं करता। इसलिए समाज के लोग उस पर दया भी दिखा सकते हैं, पर ईर्ष्या करने वाले पर कोई दया नहीं दिखाता; क्योंकि उसका विचार ही परपीड़क होता है। वह स्वयं जहर की पोटली  की तरह सारे .. समाज को दूषित करता है तथा दूसरों की निन्दा करके समाज का वातावरण गन्दा करता रहता है।

(स) चिन्ताग्रस्त व्यक्ति स्वपीड़क होता है। वह किसी दूसरे का कोई नुकसान नहीं करता। लेकिन ईर्ष्यालु व्यक्ति परपीड़क होता है। वह विष की चलती-फिरती ऐसी गठरी के समान होता है, जो जहाँ भी रहती है, वहाँ के वातावरण को दूषित करती रहती है।



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