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हे चिर महान् !यह स्वर्णरश्मि छु श्वेत भाल,बरसा जाती रंगीन हास; ।सेली बनता है इन्द्रधनुष,परिमल-मल-मल जाता बतास !परे रागहीन तू हिमनिधान !

Answer»

[स्वर्ण-रश्मि = सुनहली किरण। सेली = पगड़ी। परिमल = सुगन्ध। बतास = वायु। रागहीन = आसक्तिरहित]

संन्दर्भ-प्रस्तुत काव्य-पंक्तियाँ हिन्दी की महान् कंवयित्री  श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘सान्ध्यगीत’ नामक ग्रन्थ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड में संकलित ‘हिमालय से शीर्षक कविता से अवतरित हैं।

प्रसंग-इन पंक्तियों में कवयित्री ने हिमालय की चिर महानता और निर्लिप्तता का वर्णन किया है।
व्याख्या–हिमालय की महानता का वर्णन करती हुई कवयित्री ने कहा है कि हे हिमालय! तुम चिरकाल से अपने गौरव एवं महानता को बनाये हुए हो। तुम्हारे श्वेत बर्फ से ढके हुए शिखरों पर जब सूर्य की सुनहली किरणें पड़ती हैं, तब लगता है कि जैसे चारों ओर तुम्हारी रंगीन हँसी बिखर गयी हो। बर्फ पर सुनहली किरणों के पड़ने से ऐसा मालूम पड़ता है, जैसे हिमालय ने अपने सिर पर इन्द्रधनुषी रंगों की पगड़ी बाँध रखी हो। फूलों के सम्पर्क से सुगन्धित वायु उसके शरीर पर मानो चन्दन का लेप कर जाती है, परन्तु हिमालय इन सभी चीजों से निर्लिप्त है। इन सभी वस्तुओं से उसे किसी प्रकार का अनुराग नहीं है;  इसलिए वह महान् है।

काव्यगत सौन्दर्य-

⦁    कवयित्री ने इन पंक्तियों में हिमालय की महानता तथा वैराग्य का वर्णन किया है।
⦁    भाषा-सरल, सुबोध खड़ी बोली।
⦁     शैली—चित्रात्मक और भावात्मक।
⦁    रसशान्त।
⦁    छन्द-अतुकान्त-मुक्त।
⦁    गुण-माधुर्य।
⦁    शब्दशक्ति-‘यह स्वर्णरश्मि छू-श्वेत भाल, बरसा जाती रंगीन हास’ में लक्षणो।
⦁    अलंकार-यह स्वर्णरश्मि छु श्वेत भाल’ में रूपक, परिमल-मल-मल जाता बतास’ में पुनरुक्तिप्रकाश तथा हिमालय के मानव सदृश चित्रण में मानवीकरण का माधुर्य मन को आकर्षित करता है।



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