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उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है।बक-पाँतों का अरविन्द हार;तेरी निश्वासे छू भू कोबन-बन जातीं मलयज बयार;केकी-रव की नृपुर-ध्वनि सुनजगती जगती की मूक प्यास !रूपसि तेरा घन-केश-पाश !

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[उच्छ्वसित = श्वास-प्रश्वास (साँस) के कारण ऊपर-नीचे उठता हुआ। वक्ष पर = छाती पर। चंचल = चलायमान है, हिल-डुल रहा है। बक-पाँत = बगुलों की पंक्ति। अरविन्द = कमल। निश्वास = बाहर निकलने वाली श्वास। मलयज = मलय (चन्दन) के पर्वत से आने वाली। बयार = वायु। केकी-रव = मयूर की ध्वनि। नूपुर = पायल। जगती = जाग्रत होती है, संसार।].

प्रसंग-इन पंक्तियों में वर्षारूपी सुन्दर रमणी के सौन्दर्य का आलंकारिक वर्णन हुआ है।

व्याख्या-हे वर्षारूपी सुन्दरी! साँस लेने के कारण ऊपर उठे तथा कम्पित तेरे वक्ष-स्थल पर आकाश में उड़ते हुए बगुलों की पंक्तियोंरूपी श्वेत कमलों का हार हिलता हुआ-सा मालूम पड़ रहा है। जब तुम्हारे मुख से निकली बूंदरूपी साँसें पृथ्वी पर गिरती हैं तो उसके पृथ्वी के स्पर्श से उठने वाली एक प्रकार की महक, मलयगिरि की सुगन्धित वायु के समान प्रतीत होती है। तुम्हारे आगमन पर चारों ओर नृत्य करते हुए मोरों की मधुर  ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, जो कि तुम्हारे पैरों में बँधे हुए धुंघरुओं के समान मालूम पड़ती है, जिसको सुनकर लोगों के मन में मधुर प्रेम की प्यास जाग्रत होने लगती है। तात्पर्य यह है कि मोरों की मधुर आवाज से वातावरण में जो मधुरता छा जाती है, वह लोगों को आनन्द और उल्लास से जीने की प्रेरणा प्रदान करती है। उनके हृदय में मौन रूप में छिपा हुआ प्यार मुखर रूप धारण कर लेता है जो उनकी जीने की इच्छा को बलवती बनाता है। हे वर्षारूपी सुन्दरी! तुम्हारी बादलरूपी बालों की राशि अत्यधिक सुन्दर है।

काव्यगत सौन्दर्य-

⦁    कवयित्री ने वर्षा का मानवीकरण करके उसके मोहक रूप का चित्रण किया है।
⦁    भाषा-साहित्यिक खड़ी बोली।
⦁    शैली-चित्रात्मक।
⦁    रस-शृंगार।
⦁    गुणमाधुर्य।
⦁    छन्द-अतुकान्त-मुक्त।
⦁    अलंकार-उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है’ में रूपक, ‘बन-बन में पुनरुक्तिप्रकाश जगती, जगती’ में यमक और अनुप्रास।



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