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 रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव ।जाने कब सुन मेरी पुकारे, करें देव भवसागर पार ।पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे ।जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे ।।भावार्थ : कवयित्री कहती हैं कि मैं शरीररूपी नाव को साँसों की कच्चे धागे से बनी रस्सी के सहारे खींच रही हूँ । न मालूम कब ईश्वर मेरी पुकार सुनेंगे और मुझे संसाररूपी सागर के पार उतारेंगे । यह शरीर कच्ची मिट्टी से बने पान जैसा है, जिसमें से पानी टपक-टपककर कम होता जा रहा है अर्थात् समय व्यतीत हो रहा है, प्रभु को पाने के मेरे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं । मेरी आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए व्याकुल हो रही है । बार-बार की असफलता के कारण मेरा मन तड़प रहा है ।1. कवयित्री ने कच्चे धागे की रस्सी और नाव का प्रयोग किसके लिए किया है ?2. कवयित्री को अपने प्रयास क्यों व्यर्थ प्रतीत हो रहे हैं ?3. कवयित्री भवसागर पार करने के लिए क्या आवश्यक मानती है ? और क्यों ?4. कवयित्री ने कच्चा सकोरा किसे कहा है ?5. ‘करें देव भवसागर पार’ में कौन-सा अलंकार है ?6. कवयित्री के मन में एक क्यों उठती है ?

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1. कवयित्री ने कच्चे धागे की रस्सी का प्रयोग साँसों के लिए और नाव शब्द का प्रयोग शरीर के लिए किया है ।

2. कवयित्री को अपने प्रयास व्यर्थ प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि जिस तरह कच्ची मिट्टी से बने पात्र में से एक-एक बूंद पानी खत्म होता रहता है उसी तरह छोटे-से जीवन में से एक-एक दिन बीतता जा रहा है और यह प्रभु से नहीं मिल पा रही है ।।

3. कवयित्री भवसागर पार करने के लिए सच्ची भक्ति को आवश्यक मानती है, क्योंकि सच्ची भक्ति से प्रभु हमारी पुकार सुनेंगे और भवसागर पार कराएँगे ।

4. कवयित्री ने कच्या सकोरा नश्वर शरीर को कहा है ।

5. ‘करें देव भवसागर पार’ में रूपक अलंकार है ।

6. कवयित्री परमात्मा के पास जाना चाहती है, परन्तु असफलता के कारण उसके मन में हक उठती है ।



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