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This section includes InterviewSolutions, each offering curated multiple-choice questions to sharpen your knowledge and support exam preparation. Choose a topic below to get started.

1.

भारतीय संविधान में किन बाल अधिकारों का समावेश किया गया है ?

Answer»

सन् 1992 में UNO ने चार्टर ऑफ राईट्स’ की घोषणा की थी । उसके बाद भारतीय संविधान में उनका समावेश किया गया जो निम्नानुसार है:

  • जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म या राष्ट्रीयता के किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना बच्चों को जीने का जन्मसिद्ध अधिकार
  • माता-पिता के द्वारा बच्चों का योग्य रीत से पालन-पोषण हो, यह भी उसका एक अधिकार है । किसी भी बालक को कोई खास कारण के बिना उसके माँ-बाप से अलग कर सकते नहीं है ।
  • हर एक बालक को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है, जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके ।
  • हर एक बालक को तंदुरस्त और स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है । खेल-कूद और मनोरंजन की प्रवृत्तिओं में भाग (हिस्सा) लेकर आनंदपूर्ण जीवन जीने का पूर्ण अधिकार है ।
  • हर एक बालक को अपने धर्म समुदाय में रहने का और संस्कृति संवारने का अधिकार है ।
  • बालक को अभिव्यक्ति के लिए और मंडल की रचना करने के लिए तथा सभ्य बनने का अधिकार है, जैसे कि बालसांसद ।
  • हर एक बालक को कोई भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक हिंसा, शोषण, यातना के सामने रक्षा का अधिकार है ।
  • अपने शारीरिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक विकास के लिए सामाजिक सुरक्षा एवं जीवनस्तर प्राप्त करने का अधिकार है ।
2.

मात्र शिक्षा प्राप्त करने के कानून में किस बात पर मनाई की जाती है ?(A) जन्म के प्रमाणपत्र के बिना प्रवेश(B) विशेष प्रशिक्षण की सुविधा(C) प्रवेश परीक्षा के बिना प्रवेश(D) प्रवेश के समय केपिटेशन फीस

Answer»

(D) प्रवेश के समय केपिटेशन फीस

3.

मात्र शिक्षा प्राप्त करने के कानून में किस बात पर मनाई की जाती है ?(A) जन्म के प्रमाणपत्र के बिना प्रवेश(B) विशेष प्रशिक्षण की सुविधा(C) प्रवेश परीक्षा के बिना प्रवेश(D) प्रवेश के समय केपिटेशन फीस

Answer»

(D) प्रवेश के समय केपिटेशन फीस

4.

सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया ? या सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा किसने दी है?(क) जिन्सबर्ग ने(ख) ऑगबर्न ने(ग) कार्ल मार्क्स ने(घ) इमाइल दुर्चीम ने

Answer»

सही विकल्प है (ख) ऑगबर्न ने

5.

निम्नलिखित समाजशास्त्रियों में से किस विद्वान् ने सामाजिक परिवर्तन को चक्रवत माना है?(क) ओस्वाल्ड स्पैंग्लर ने(ख) हॉबहाउस ने ।(ग) शुम्पीटर ने(घ) इमाइल दुर्चीम ने

Answer»

(क) ओस्वाल्ड स्पैंग्लर ने

6.

निम्नलिखित में से किस विद्वान् ने सामाजिक परिवर्तन को बौद्धिक विकास का परिणाम माना है ?(क) जॉर्ज सी० होमन्स ने(ख) बीसेज एवं बीसेंज ने(ग) आगस्त कॉम्टे ने(घ) रॉबर्ट बीरस्टीड ने।

Answer»

(ग) आगस्त कॉम्टे ने

7.

किसने सामाजिक परिवर्तन की विवेचना संस्कृति में परिवर्तन के रूप में की है?

Answer»

ऑगबर्न ने सामाजिक परिवर्तन की विवेचना संस्कृति में परिवर्तन के रूप में की है।

8.

सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा नाम क्या है ?

Answer»

सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा नाम ‘सांस्कृतिक गतिशीलता है।

9.

प्रौद्योगिकी द्वारा सामाजिक परिवर्तन की धारणा किस विद्वान् की है ?

Answer»

प्रौद्योगिकी द्वारा सामाजिक परिवर्तन की धारणा थर्स्टन वेबलन की है।

10.

“सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिकी में परिवर्तन होने के कारण होता है।” यह कथन किसका(क) वेबलन का(ग) टॉयनबी का(ख) ऑगबर्न का(घ) सोरोकिन का

Answer»

(क) वेबलन का   

11.

सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भ में प्राणिशास्त्रीय या जैविकीय कारकों की विवेचना कीजिए।

Answer»

प्राणिशास्त्रीय या जैविकीय कारकों से तात्पर्य उन कारकों से है जो हमें अपने माता-पिता द्वारा वंशानुक्रमण में प्राप्त होते हैं। प्राणिशास्त्रीय कारक जनसंख्या के प्रकार को निर्धारित करते हैं। हमारा स्वास्थ्य, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता एवं योग्यता, विवाह की आयु, प्रजनन दर, हमारा कद एवं शारीरिक गठन आदि सभी वंशानुक्रमण एवं जैविकीय कारकों से प्रभावित होते हैं। किसी समाज के लोगों की जन्म-दर एवं मृत्यु-दर, औसत आयु आदि पर भी प्राणिशास्त्रीय कारकों को प्रभाव पड़ता है। जन्म-दर, मृत्यु-दर एवं औसत आयु में परिवर्तन होने से समाज पर भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, किसी समाज में पुरुषों की मृत्यु-दर अधिक है तो वहाँ विधवाओं की संख्या में वृद्धि होगी एवं विधवा-विवाह की समस्या पैदा होगी तथा स्त्री की सामाजिक प्रस्थिति एवं बच्चों की शिक्षा-दीक्षा एवं समाजीकरण भी प्रभावित होगा।

दुर्बल एवं कमजोर शारीरिक एवं मानसिक क्षमता वाले लोग आविष्कार एवं निर्माण का कार्य नहीं कर पाएँगे। अतः आविष्कारों के कारण होने वाले परिवर्तन नहीं होंगे। इसकी तुलना में योग्य व्यक्ति नव-निर्माण एवं आविष्कार के द्वारा समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम होंगे। किसी समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक होने पर बहुपत्नी-विवाह प्रथा एवं स्त्रियों की कमी होने पर बहुपति प्रथा तथा दोनों की समान संख्या होने पर एक-विवाह प्रथा का प्रचलन होगा। सामान्यतः यह माना जाता है कि अन्तर्जातीय एवं अन्तर्रजातीय विवाह से प्रतिभाशाली सन्तानें पैदा होती हैं, जो आविष्कारों द्वारा नवीन परिवर्तन लाने में सक्षम होती हैं।

12.

सामाजिक परिवर्तन क्या है? इसके जनसंख्यात्मक कारक की विवेचना कीजिए।यासामाजिक परिवर्तन के जनसांख्यिकीय कारकों की विवेचना कीजिए।

Answer»

संकेत – सामाजिक परिवर्तन के अर्थ के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (1) की हैडिंग सामाजिक परिवर्तन का अर्थ देखें।
जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि किसी समाज की रचना को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जनसंख्या की रचना, आकार, जन्म-दर, मृत्यु-दर, देशान्तरगमन, जनसंख्या की कमी एवं अधिकता, स्त्री-पुरुषों का – अनुपात, बालकों, युवकों एवं वृद्धों की संख्या आदि सभी जनसंख्यात्मक कारक माने जाते हैं। हम यहाँ सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारकों की भूमिका का उल्लेख करेंगे।

1. जनसंख्या के आकार को प्रभाव – जनसंख्या का आकार भी समाज को प्रभावित करता है। समाज का जीवन-स्तर, गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य एवं अनेक अन्य सामाजिक समस्याओं का जनसंख्या के आकार से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हमारे सामाजिक मूल्य, आदर्श, मनोवृत्तियाँ, जीवन-यापन का ढंग सभी कुछ जनसंख्या के आकार पर भी निर्भर हैं। राजनीतिक व सैनिक दृष्टि से भी जनसंख्या का आकार महत्त्वपूर्ण है। जिन देशों में जनसंख्या अधिक होती है, वे राष्ट्र शक्तिशाली माने जाते हैं; चीन इसका उदाहरण है। जिन देशों की जनसंख्या … कम होती है, वे राष्ट्र कमजोर समझे जाते हैं। इसी प्रकार जिन देशों की जनसंख्या कम है। वहाँ के लोगों का जीवन-स्तर अपेक्षाकृत ऊँचा होता है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, कनाडा और अमेरिका के लोगों का जीवन-स्तर चीन व भारत के लोगों से काफी ऊँचा है, क्योंकि वहाँ की जनसंख्या कम है। ग्राम और नगर का भेद भी जनसंख्या के कारक पर ही निर्भर है।

2. जन्म तथा मृत्यु-दर – जन्म और मृत्यु-दर जनसंख्या के आकार को प्रभावित करते हैं। जब किसी देश में मृत्यु-दर की अपेक्षा जन्म-दर अधिक होती है तो जनसंख्या में वृद्धि होती। है। इसके विपरीत स्थिति में जनसंख्या घटती है। जब जन्म-दर और मृत्यु दर में कमी होती है या दोनों में सन्तुलन होता है तो उस देश की जनसंख्या में स्थिरता पायी जाती है। जिन देशों में जनाधिक्य होता है, वहाँ इस प्रकार की प्रथाएँ एवं रीति-रिवाज पाये जाते हैं जिनके द्वारा जन्म-दर को कम किया जा सके। उदाहरण के लिए, वहाँ गर्भपात की छूट होती है तथा – जन्मनिरोध एवं परिवार नियोजन पर अधिक जोर दिया जाता है। ऐसे देशों में छोटे परिवारों पर : बल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में जनाधिक्य होने के कारण परिवार नियोजन है। कार्यक्रम को तीव्र गति से लागू किया गया है। इसके विपरीत, जिन देशों में जनसंख्या कम होती है वहाँ स्त्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठी-ऊँची होती है और जन्म-निरोध, परिवार नियोजन तथा गर्भपात के विपरीत धारणाएँ पायी जाती हैं। साथ ही वहाँ जन्म-दर को बढ़ाने के लिए समय-समय पर प्रोत्साहन दिया जाता है; जैसे-रूस में जनसंख्या को बढ़ाने के लिए कई प्रलोभन दिये जाते रहे हैं।

3. आप्रवास एवं उत्प्रवास – जनसंख्या की गतिशीलता भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। जब किसी देश में विदेश से आकर बसने वालों की संख्या अधिक होती है। तो वहाँ जनसंख्या में वृद्धि होती है और यदि किसी देश के लोग अधिक संख्या में विदेशों में जाकर रहने लगते हैं तो उस देश की जनसंख्या घटने लगती है। विदेशों से अपने देश में जनसंख्या के आने को आप्रवास (Immigration) तथा अपने देश से विदेशों में जनसंख्या के निष्क्रमण को उत्प्रवास (Emigration) कहते हैं। आप्रवास एवं उत्प्रवास के कारण विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्ति सम्पर्क में आते हैं। वे एक-दूसरे के विचारों, भाषा, प्रथाओं, रीतिरिवाजों, कला, ज्ञान, आविष्कार, खान-पान, पहनावा, रहन-सहन, धर्म आदि से परिचित होते हैं। सम्पर्क के कारण एक संस्कृति दूसरी संस्कृति को प्रभावित एवं परिवर्तित करती है।

4. आयु – यदि किसी देश में वृद्ध लोगों की तुलना में युवक और बच्चे अधिक हैं तो वहाँ परिवर्तन को शीघ्र स्वीकार किया जाएगा। इसका कारण यह है कि वृद्ध व्यक्ति सामान्यतः रूढ़िवादी एवं परिवर्तन-विरोधी होते हैं तथा प्रथाओं के कठोर पालन पर बल देते हैं। वृद्ध लोगों की अधिक संख्या होने पर सैनिक दृष्टि से वह समाज कमजोर होता है। युवा लोगों की अधिकता होने पर वह देश और समाज नवीन आविष्कार करने में सक्षम होता है। ऐसे समाज में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्रान्तियाँ आने के अवसर मौजूद रहते हैं, किन्तु दूसरी ओर जनसंख्या में युवा लोगों का अधिक अनुपात होने पर अनुभवहीन लोगों की संख्या भी बढ़ जाती है।

5. लिंग – समाज में स्त्री-पुरुषों का अनुपात भी सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करता है। जिन समाजों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या अधिक होती है, उनमें स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न होती है और वहाँ बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन होता है। दूसरी ओर, जहाँ पर स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक होती है वहाँ बहुपति प्रथा का प्रचलन होता है तथा कन्या-मूल्य की प्रथा पायी जाती है।

13.

निम्नांकित में से किसने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है? (क) कार्ल मार्क्स(ख) विल्फ्रेडो पैरेटो(ग) आगस्त कॉम्टे(घ) थॉर्टन वेबलन

Answer»

(ख) विल्फ्रेडो पैरेटो

14.

टॉयनबी (Toynbee) के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को किस नाम से जाना जाता है ?(क) अभिजात वर्ग का सिद्धान्त(ख) चक्रीय सिद्धान्त(ग) चुनौती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धान्त(घ) सामाजिक गतिशीलता का सिद्धान्त

Answer»

सही विकल्प है (घ) मैक्स वेबर

15.

किसने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या भावनात्मक, चेतनात्मक और आदर्शात्मक अवधारणाओं से की है?

Answer»

चार्ल्स कूले ने।  

16.

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए। या सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।

Answer»

सामाजिक परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया

सामाजिक परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है। असभ्यता और बर्बरता के युग में जब मानव का जीवन पूरी तरह प्राकृतिक था, तब भी समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रही। यदि संसार के इतिहास को उठाकर देखा जाए तो ज्ञात होता है कि जब से समाज का प्रादुर्भाव हुआ है, तब से समाज के रीति-रिवाज, परम्पराएँ, रहन-सहन की विधियाँ, पारिवारिक, वैवाहिक व्यवस्थाओं आदि में निरन्तर परिवर्तन होता आया है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप ही वैदिक काल के समाज में और वर्तमान समाज में आकाश-पाताल का अन्तर पाया जाता है। वास्तविकता यह है कि मनुष्य की
आवश्यकताएँ हमेशा बदलती रहने के कारण वह उसकी पूर्ति के नये-नये तरीके सोचता रहता है। इसके फलस्वरूप उसके कार्य और विचार करने के तरीकों में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया सतत अथवा निरन्तर क्रम में स्वाभाविक रूप से चलती रहती है।
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्त
सामाजिक परिवर्तन के आरम्भिक सिद्धान्तों में उविकास की प्रक्रिया को अधिक महत्त्व दिया गया, जब कि बाद के सामाजिक विचारकों ने रेखीय अथवा चक्रीय आधार पर सामाजिक परिवर्तन की विवेचना की। आज अधिकांश समाजशास्त्री संघर्ष सिद्धान्त के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की विवेचना करने के पक्ष में हैं। वास्तव में, सामाजिक परिवर्तन के बारे में दिये गये सिद्धान्तों की संख्या इतनी अधिक है कि यहाँ पर इन सभी का उल्लेख करना सम्भव नहीं हैं; अत: हम यहाँ केवलु प्रमुख रूप से सामाजिक परिवर्तन के रेखीय और चक्रीय सिद्धान्त का ही वर्णन करेंगे।
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त
समाजशास्त्र को जब एक व्यवस्थित विज्ञान के रूप में विकसित करने का कार्य आरम्भ हुआ तो आरम्भिक समाजशास्त्री उविकास के सिद्धान्त से अधिक प्रभावित थे। फलस्वरूप कॉम्टे, स्पेन्सर, मॉर्गन, हेनरीमैन तथा वेबलन जैसे अनेक विचारकों ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक परिवर्तन एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो विकास के अनेक स्तरों में से गुजरती हुई आगे की ओर बढ़ती है। परिवर्तन के इस क्रम में आगे आने वाला प्रत्येक स्तर अपने से पहले के स्तर से अधिक स्पष्ट लेकिन जटिल होता है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति एक निश्चित दशा में आगे की ओर बढ़ने की होती है। उदाहरण के लिए, समाजशास्त्र के जनक कॉम्टे ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारण मनुष्य के बौद्धिक स्तर अथवा उसके विचारों में परिवर्तन होते रहना है। यह बौद्धिक विकास तीन स्तरों के द्वारा होता है। पहले स्तर में व्यक्ति के विचार धार्मिक विश्वासों से प्रभावित होते हैं। दूसरे स्तर पर मनुष्य तात्विक अथवा दार्शनिक विधि से विचार करने लगता है। अन्तिम स्तर प्रत्यक्ष अथवा वैज्ञानिक ज्ञान का स्तर है जिसमें तर्क और अवलोकन की सहायता से विभिन्न घटनाओं के कारणों और परिणामों की व्याख्या की जाने लगती है।
इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन ऊपर की ओर उठती हुई एक सीधी रेखा के रूप में होता है। हरबर्ट स्पेन्सर ने भी सामाजिक परिवर्तन को समाज के उविकास की चार अवस्थाओं के रूप में स्पष्ट किया। इन्हें स्पेन्सर ने सरल समाज (Simple society), मिश्रित समाज (Compound society), दोहरे मिश्रित समाज (Double compound society) तथा अत्यधिक मिश्रित समाज (Terribly compound society) का नाम दिया। समाज की प्रकृति में होने वाले इन प्रारूपों के आधार पर स्पेन्सर ने बताया कि आरम्भिक समाज आकार में छोटे होते हैं, इसके सदस्यों में पारस्परिक सम्बद्धता कम होती है, यह समरूप होते हैं लेकिन लोगों की भूमिकाओं में कोई निश्चित विभाजन नहीं होता।
इसके बाद आगे होने वाले प्रत्येक परिवर्तन के साथ समाज का आकार बढ़ने लगता है, सदस्यों में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जाती है, लोगों की प्रस्थिति और भूमिका में एक स्पष्ट अन्तर दिखायी देने लगता है तथा सामाजिक संरचना अधिक व्यवस्थित बनने लगती है। इस तरह समाज में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन सरलता से जटिलता की ओर एक रेखीय क्रम में होता है। मॉर्गन ने मानव-सभ्यता के विकास को जंगली युग, बर्बरता का युग तथा सभ्यता का युग जैसे तीन भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया। कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार पर तथा वेबलन ने प्रौद्योगिक आधार पर सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये। स्पष्ट है कि जिन सिद्धान्तों के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को अनेक स्तरों के माध्यम से विकास की दिशा में होने वाले परिवर्तन के रूप में स्पष्ट किया गया, उन्हें हम परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त कहते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त

रेखीय सिद्धान्तों के विपरीत सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित हैं। कि सामाजिक परिवर्तन कुछ निश्चित स्तरों के माध्यम से एक विशेष दिशा की ओर नहीं होता बल्कि सामाजिक परिवर्तन एक चक्र के रूप में अथवा उतार-चढ़ाव की एक प्रक्रिया के रूप में होता है। इतिहास बताता है कि पिछले पाँच हजार वर्षों में संसार में कितनी ही सभ्यताएँ बनीं, धीरे-धीरे उनका विकास हुआ, कालान्तर में उनका पतन हो गया तथा इसके बाद अनेक सभ्यताएँ एक नये रूप में फिर से विकसित हो गयीं। सभ्यता की तरह सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन भी उतार-चढ़ाव की एक प्रक्रिया के रूप में होते हैं। एक समय में जिन व्यवहारों, मूल्यों तथा विश्वासों को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, कुछ समय बाद उन्हें अनुपयोगी और रूढ़िवादी समझकर छोड़ दिया जाता है।

तथा अनेक ऐसे सांस्कृतिक प्रतिमान विकसित होने लगते हैं जिनकी कुछ समय पहले तक कल्पना भी नहीं की गयी थी। इसका तात्पर्य है कि जिस तरह मनुष्य का जीवन जन्म, बचपन, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और मृत्यु के चक्र से गुजरता है, उसी तरह विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में भी एक चक्र के रूप में उत्थान और फ्तन होता रहता है। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ऋतुओं अथवा मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित परिवर्तन जिस तरह एक निश्चित चक्र के रूप में होते हैं, समाज में होने वाले परिवर्तन सदैव एक गोलाकार चक्र के रूप में नहीं होते। जिन सामाजिक प्रतिमानों, विचारों, विश्वासों तथा व्यवहार के तरीकों को हम एक बार छोड़ देते हैं, समय बीतने के साथ हम उनमें से बहुत-सी विशेषताओं को फिर ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन उनमें कुछ संशोधन अवश्य हो जाता है। इस दृष्टिकोण से अधिकांश सामाजिक परिवर्तन घड़ी के पैण्डुलम की तरह होते हैं जो दो छोरों अथवा सीमाओं के बीच अपनी जगह निरन्तर बदलते रहते हैं। स्पेंग्लर, पैरेटो, सोरोकिन तथा टॉयनबी वे प्रमुख विचारक हैं जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये।

17.

सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक का समर्थक कौन है ?(क) कार्ल मार्क्स(ख) वेबलन(ग) जॉर्ज लुण्डबर्ग(घ) मैक्स वेबर

Answer»

(ग) चुनौती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धान्त

18.

कार्ल मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण(क) यान्त्रिक प्रयोग(ख) आर्थिक कारक(ग) धार्मिक कारण(घ) राजनीतिक कारण

Answer»

(ख) आर्थिक कारक   

19.

‘वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं ?

Answer»

वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त’ के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स हैं।

20.

सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया?

Answer»

सही उत्तर है ऑगबर्न ने      

21.

सामाजिक परिवर्तन की किन्हीं चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

Answer»

सामाजिक परिवर्तन की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति सामाजिक होती है।
(ii) सामाजिक परिवर्तन आवश्यक एवं स्वाभाविक है।
(iii) सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा तुलनात्मक है।
(iv) सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है।

22.

भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति की अवधारणा किसने दी?

Answer»

भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति की अवधारणा ऑगबर्न ने दी।

23.

अभिजात वर्ग को परिभ्रमण सिद्धान्त की अवधारणा किसने दी है?

Answer»

पैरेटो महोदय।    

24.

सामाजिक परिवर्तनों से आप क्या समझते हैं। इसमें आर्थिक कारकों की भूमिका की विवेचना कीजिए।

Answer»

सामाजिक परिवर्तनों के आर्थिक कारक

सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारकों को समझने से पहले यह जानना आवश्यक है कि आर्थिक कारकों को अभिप्राय किन दशाओं अथवा विशेषताओं से है ? साधारणतया यह समझा जाता है कि प्रति व्यक्ति आय, लोगों का जीवन-स्तर, आर्थिक समस्याएँ, आर्थिक आवश्यकताएँ तथा सम्पत्ति का संचय आदि वे दशाएँ हैं जिन्हें आर्थिक कारक कहा जा सकता है। वास्तव में, ये दशाएँ स्वयं आर्थिक कारक न होकर आर्थिक कारकों के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली कुछ प्रमुख घटनाएँ हैं। आर्थिक कारकों का तात्पर्य उन आर्थिक संस्थाओं तथा शक्तियों से होता है जो किसी समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करती हैं। इस दृष्टिकोण से उपभोग की प्रकृति, उत्पादन का स्वरूप, वितरण की व्यवस्था, आर्थिक नीतियाँ, श्रम-विभाजन की प्रकृति तथा आर्थिक प्रतिस्पर्धा वे प्रमुख आर्थिक कारक हैं, जो व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को एक विशेष ढंग से प्रभावित करते हैं। मार्क्स के अनुसार केवल उत्पादन का स्वरूप अथवा उत्पादन का ढंग अकेले इतना महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक है जिसमें होने वाला कोई भी परिवर्तन सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को बदल देता है। सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित विभिन्न आर्थिक कारकों की प्रकृति को अग्रलिखित रूप से समझा जा सकता है

1. उपभोग की प्रकृति – किसी समाज में व्यक्ति किन वस्तुओं का उपभोग करते हैं तथा उपभोग का स्तर क्या है, यह तथ्य एक बड़ी सीमा तक सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। किसी समाज में जब अधिकांश व्यक्तियों को एक न्यूनतम जीवन-स्तर बनाये रखने के लिए उपभोग की केवल सामान्य सुविधाएँ ही प्राप्त होती हैं तो वहाँ परिवर्तन की गति बहुत सामान्य होती है। इसके विपरीत, यदि अधिकांश व्यक्ति उपभोग की सामान्य सुविधाएँ पाने से भी वंचित रहते हैं तो धीरे-धीरे जनसामान्य का असन्तोष इतना बढ़ जाता है कि वे सम्पूर्ण सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करने लगते हैं। व्यक्तियों का जीवन-स्तर यदि सामान्य से अधिक ऊँचा होता है तो अधिकांश व्यक्ति परम्परागत व्यवहार-प्रतिमानों, प्रथाओं और धार्मिक नियमों को अपने लिए आवश्यक नहीं समझते। इसके फलस्वरूप वहाँ परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत तेज हो जाती है।

2. उत्पादन की प्रणालियाँ – उत्पादन की प्रणाली का तात्पर्य मुख्य रूप से उत्पादन के साधनों, उत्पादन की मात्रा तथा उत्पादन के उद्देश्य से है। मार्क्स के अनुसार, उत्पादन की प्रणाली सामाजिक परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण है। उत्पादन के साधन अथवा उपकरण जब बहुत सरल और परम्परागत प्रकृति के थे, तब समाजों की प्रकृति भी सरल थी। अनेक प्रकार के शोषण और आर्थिक कठिनाइयों के बाद भी व्यक्ति अपनी दशाओं से सन्तुष्ट रहते थे। जैसे-जैसे परम्परागत प्रविधियों की जगह उन्नत ढंग की मशीनों के द्वारा उत्पादन किया जाने लगा, समाज के उच्च और निम्न वर्ग की आर्थिक असमानताएँ बढ़ने लगीं। ये आर्थिक असमानताएँ वर्ग-संघर्ष को जन्म देकर सामाजिक परिवर्तन का ही नहीं बल्कि क्रान्ति तक का कारण बन जाती हैं।

3. वितरण की व्यवस्था – प्रत्येक समाज में वितरण की एक ऐसी व्यवस्था अवश्य पायी जाती है जिसके द्वारा राज्य अथवा समूह अपने साधन विभिन्न व्यक्तियों को उपलब्ध करा सकें। वितरण की यह व्यवस्था या तो राज्य के नियन्त्रण में होती है अथवा व्यक्तियों को इस बात की स्वतन्त्रता होती है कि वे प्रतियोगिता के द्वारा अपनी कुशलता के अनुसार स्वयं ही विभिन्न , साधन प्राप्त कर लें। वितरण की इन दोनों में से किसी भी एक व्यस्था के रूप में होने वाला परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पैदा करता है। रॉबर्ट बीरस्टीड का विचार है कि यदि हवा और पानी की तरह सभी व्यक्तियों को भोजन और वस्त्र भी बिना किसी बाधा के मिल जाएँ तो समाज में कोई समस्या न रहने के कारण सामाजिक परिवर्तन की दशा भी उत्पन्न नहीं होती। इसके विपरीत, व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में अनेक आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न हो जाना भी बहुत स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए, प्राचीन समय में वस्तु-विनिमय का प्रचलन था जिसके फलस्वरूप व्यक्तियों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध थे तथा लोगों की आवश्यकताएँ बहुत कम थीं।

4. आर्थिक नीतियाँ – प्रत्येक राज्य कुछ ऐसी आर्थिक नीतियाँ बनाता है जिनके द्वारा उपभोग, उत्पादन तथा वितरण की व्यवस्था को सन्तुलित बनाया जा सके। आर्थिक नीतियाँ केवल आर्थिक सम्बन्धों को ही व्यवस्थित नहीं बनातीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन को रोकने अथवा उसमें वृद्धि करने में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। उदाहरण के लिए, यदि राज्य स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण लगाकर श्रमिकों की मजदूरी, कार्य की दशाओं तथा कल्याण सुविधाओं के बारे में कानून बनाकर श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करता है तो समाज । में स्तरीकरण की व्यवस्था बदलने लगती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की जगह राज्य द्वारा यदि सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना की जाने लगती है तो इससे भी आर्थिक संरचना में और फिर सामाजिक संरचना में परिवर्तन होने लगते हैं।

5. श्रम-विभाजन – श्रम-विभाजन एक विशेष आर्थिक कारक है, जिसका सामाजिक परिवर्तन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। समाज में जब किसी तरह का श्रम-विभाजन नहीं होता तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करता है। इसके फलस्वरूप लोगों का जीवन आत्मनिर्भर अवश्य बनता है लेकिन लोग अपने धर्म, जाति और समुदाय के बन्धनों से बाहर नहीं निकल पाते। श्रम-विभाजन एक ऐसी दशा है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति से एक विशेष कार्य के द्वारा। आजीविका उपार्जित करने की आशा की जाती है। इसका तात्पर्य है कि श्रम-विभाजन में सभी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं। दुर्वीम — ‘ ने इस दशा को ‘सावयवी एकता’ कहा है।

6. आर्थिक प्रतिस्पर्दा – प्रतिस्पर्धा यद्यपि एक सामाजिक प्रक्रिया है लेकिन जब यह प्रक्रिया आर्थिक क्रियाओं से सम्बन्धित हो जाती है, तब इसी को हम आर्थिक प्रतिस्पर्धा कहते हैं। जॉनसन का कथन है कि आर्थिक प्रतिस्पर्धा व्यक्तियों में तनाव और संघर्ष की दशा उत्पन्न करके सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देती है। आर्थिक प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की तुलना में अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगता है। इसके फलस्वरूप व्यक्तियों की कार्यकुशलता अवश्य बढ़ती है, लेकिन पारस्परिक द्वेष और । विरोध में भी बहुत वृद्धि हो जाती है।

7. औद्योगीकरण – अनेक विद्वान् औद्योगीकरण को सामाजिक परिवर्तन का सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारक मानते हैं। औद्योगीकरण से छोटे-छोटे कस्बे बड़े औद्योगिक नगरों में परिवर्तित होने लगते हैं। उद्योगों में काम करने वाले लाखों श्रमिकों की मनोवृत्तियों, व्यवहारों और रहन-सहन के तरीकों में परिवर्तन होने लगता है। नये व्यवसायों में वृद्धि होने से सभी धर्मों, जातियों और वर्गों के लोमों द्वारा किये जाने वाले कार्य की प्रकृति में परिवर्तन होने लगता है।

25.

सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ क्या हैं? इसकी व्याख्या कीजिए।

Answer»

सामाजिक परिवर्तन यद्यपि एक तुलनात्मक अवधारणा है, लेकिन कुछ प्रमुख विशेषताओं के आधार पर इसकी सामान्य प्रकृति को स्पष्ट किया जा सकता है

1. सामाजिक परिवर्तन सामुदायिक जीवन में होने वाला परिवर्तन है – यदि दो-चार व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों अथवा व्यवहार करने के ढंगों में परिवर्तन हो जाये तो इसे सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत, जब किसी समुदाय के अधिकांश व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, सामाजिक नियमों तथा विचार करने के तरीकों में परिवर्तन हो जाता है, तभी इसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

2. सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती – कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि किसी समाज में भविष्य में कौन-कौन से परिवर्तन होंगे और कब होंगे। हम अधिक-से-अधिक परिवर्तन की सम्भावना मात्र कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि आगामी कुछ वर्षों में औद्योगीकरण के कारण अपराधों की मात्रा में वृद्धि हो जायेगी अथवा किसी प्रकार के अपराध बढ़ सकते हैं, लेकिन हम निश्चित रूप से भविष्य में अपराधों की संख्या तथा स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कह सकते।

3. सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है – सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति इस प्रकार की है कि इसकी निश्चित माप नहीं की जा सकती। मैकाइवर का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन का अधिक सम्बन्ध गुणात्मक परिवर्तनों (Qualitative changes) से है और गुणात्मक तथ्यों की माप न हो सकने के कारण इसकी जटिलता बहुत अधिक बढ़ जाती है। भौतिक वस्तुओं में होने वाले परिवर्तन को सरलता से समझा जा सकता है, लेकिन सांस्कृतिक मूल्यों (Cultural values) और विचारों में होने वाला परिवर्तन इतना जटिल हो जाता है कि सरलता से उसको समझ सकना बहुत कठिन है। सामाजिक परिवर्तन में जितनी वृद्धि होती जाती है, इसकी जटिलता भी उतनी ही बढ़ जाती है।

4. सामाजिक परिवर्तन की गति तुलनात्मक है – किसी एक समाज में होने वाले परिवर्तन को दूसरे समाज से उसकी तुलना करने पर ही समझा जा सकता है। एक ही समाज के विभिन्न भागों में परिवर्तन की गति भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, अथवा विभिन्न समाजों में परिवर्तन की | मात्रा में अन्तर हो सकता है। सामान्य रूप से सरल और आदिवासी समाजों में परिवर्तन बहुत कम और धीरे-धीरे होता है, जब कि जटिल और सभ्य समाजों में हमेशा नये परिवर्तन होते रहते हैं। यही कारण है कि ग्रामों में परिवर्तन की गति धीमी और नगरों में बहुत तेज (rapid) होती है।

5. सामाजिक परिवर्तन का चक्रवत और रेखीय रूप – सामान्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के दो स्वरूप होते हैं-चक्रवत और रेखीय। चक्रवत परिवर्तन का तात्पर्य है कि परिवर्तन कुछ विशेष दशाओं के बीच ही होता रहता है। लौट-बदलकर वही स्थिति फिर से आ जाती है जो कुछ समय पहले विद्यमान थी। फैशन या पहनावे के क्षेत्र में चक्रवत परिवर्तन सबसे अधिक देखने को मिलता है। रेखीय परिवर्तन हमेशा एक ही दिशा में आगे की ओर होता रहता है। ऐसे परिवर्तन अधिकतर प्रौद्योगिकी व शिक्षा के क्षेत्र में देखने को मिलते हैं।

6. सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य नियम है – सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य और आवश्यक घटना है। परिवर्तन चाहे नियोजित रूप से किया गया हो अथवा स्वयं हुआ हो, यह अनिवार्य रूप से सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। विभिन्न समाजों में परिवर्तन की मात्रा में अन्तर हो सकता है, लेकिन इसके न होने की सम्भावना नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि समाज की आवश्यकताएँ हमेशा बदलती रहती हैं तथा व्यक्तियों की मनोवृत्तियों और रुचियों में भी परिवर्तन होता रहता है।

7. सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापी है – मानव-समाज के आरम्भिक इतिहास से लेकर आज तक परिवर्तन की प्रक्रिया सभी व्यक्तियों, समूहों और समाजों को प्रभावित करती रही है। बीरस्टीड का कथन है कि “परिवर्तन का प्रभाव इतना सर्वव्यापी रहा है कि कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं हैं। उनके इतिहास और संस्कृति में इतनी भिन्नता पायी जाती है कि * किसी व्यक्ति को भी दूसरे का प्रतिरूप (Replica) नहीं कहा जा सकता।” इससे सामाजिक परिवर्तन की सर्वव्यापी प्रकृति स्पष्ट हो जाती है।

26.

सामाजिक परिवर्तन का क्या अर्थ है ? सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारकों (कारणों) का उल्लेख कीजिए।

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सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा

मैरिल का कथन है कि मानव-सभ्यता का सम्पूर्ण इतिहास सामाजिक परिवर्तन का ही इतिहास है। इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक परिवर्तन प्रत्येक समाज की एक आवश्यक विशेषता ही नहीं बल्कि परिवर्तन के द्वारा ही मानव-समाज असभ्यता और बर्बरता के विभिन्न स्तरों. को पार करते हुए सभ्यता के वर्तमान स्तर तक पहुँच सका है। यह सच है कि किसी समाज में परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है, जब कि कुछ समाजों में यह गति बहुत तेज हो सकती है। लेकिन संसारे का कोई भी समाज ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें परिवर्तन न होता रहा हो।
इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी तरह के परिवर्तनों को हम सामाजिक परिवर्तन नहीं कहते। किसी समुदाय के लोगों की वेशभूषा, खान-पान, मकानों की बनावट अथवा परिवहन के साधनों में होने वाले विकास को सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जाता। संक्षेप में, सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य लोगों के सामाजिक सम्बन्धों, समाज के ढाँचे अथवा सामाजिक मूल्यों में होने वाले परिवर्तन से है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी समाज में लोगों की प्रस्थिति और भूमिका, विचार करने के ढंगों तथा जीवन की स्वीकृत विधियों में परिवर्तन होने लगता है, तब इसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

सामाजिक परिवर्तन का अर्थ

इतिहास, दर्शन, राजनीतिशास्त्र तथा अनेक दूसरे समाज विज्ञानों से सम्बन्धित विद्वानों ने सामाजिक परिवर्तन के अर्थ को अपने-अपने दृष्टिकोण से स्पष्ट किया है। इस दशा में सामाजिक परिवर्तन की वास्तविक अवधारणा को समझने से पहले यह आवश्यक है कि परिवर्तन तथा ‘सामाजिक परिवर्तन के अन्तरे को स्पष्ट किया जाये। परिवर्तन क्या है ? इसे स्पष्ट करते हुए फिचर (Fichter) ने लिखा है, “संक्षिप्त शब्दों में, किसी पूर्व अवस्था या अस्तित्व के प्रकार में पैदा होने वाली भिन्नता को ही परिवर्तन कहा जाता है।
इस कथन के द्वारा फिचर ने यह बताया कि परिवर्तन में तीन प्रमुख तत्त्वों का समावेश होता है

⦁     एक विशेष दशा,
⦁     समय तथा
⦁    भिन्नता।
सर्वप्रथम, जब हमें यह कहते हैं कि परिवर्तन हो रहा है तो हमारा उद्देश्य यह स्पष्ट करना होता है कि परिवर्तन किस दशा, वस्तु अथवा तथ्य में हो रहा है। दूसरे, समय के दृष्टिकोण से परिवर्तन एक तुलनात्मक दशा है। किसी वस्तु या दशा में एक समय की तुलना में दूसरे समय पैदा होने वाली नयी विशेषताओं को ही हम परिवर्तन कहते हैं। तीसरे, परिवर्तन का तात्पर्य किसी दशा अथवा वस्तु के रूप में इस तरह भिन्नता उत्पन्न होना है जो उसे पहले की तुलना में एक नया आकार-प्रकार दे दे। स्पष्ट है कि यदि समय के अन्तराल के साथ लोगों की वेशभूषा बदल जाये, मकानों की निर्माण-शैली में भिन्नता आ जाये अथवा परिवहन के साधन अधिक विकसित हो जायें तो इन सभी दशाओं को हम ‘परिवर्तन’ के नाम से सम्बोधित करेंगे।
‘सामाजिक परिवर्तन’ की अवधारणा परिवर्तन से भिन्न है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि जब दो विशेष अवधियों के बीच व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक ढाँचे तथा सामाजिक मूल्यों में भिन्नता उत्पन्न होती है, तब इसी भिन्नता को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध समाज के मुख्यत: तीन पक्षों में होने वाले परिवर्तन से होता है। ये पक्ष हैं

⦁    व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन,
⦁     समाज की संरचना को बनाने वाली इकाइयों में परिवर्तन तथा
⦁     सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन। इसका अर्थ है।
कि जब व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों, उनकी प्रस्थिति और भूमिका तथा जीवन की स्वीकृत विधियों में परिवर्तन होने लगता है, तब इसी दशा को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इस तथ्य को समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी कुछ प्रमुख परिभाषाओं के आधार पर सरलता से समझा जा सकता है।
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाएँ
सामाजिक परिवर्तन का सही अर्थ क्या है, यह जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं का अध्ययन करना होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है
⦁    किंग्सले डेविस के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन केवल वे ही परिवर्तन समझे जाते हैं जो कि सामाजिक संगठन अर्थात् समाज के ढाँचे और कार्य में घटित होते हैं।’
⦁    मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “समाजशास्त्री होने के नाते हमारी विशेष रुचि प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक सम्बन्धों से है। केवल इन सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन को ही हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।”
⦁    गिलिन और गिलिन के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन का अर्थ जीवन के स्वीकृत प्रकारों में परिवर्तन है। भले ही यह परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के परिवर्तन में हुए हों या सांस्कृतिक साधनों पर, जनसंख्या की रचना या सिद्धान्तों के परिवर्तन से, या प्रसार से या समूह के अन्दर ही आविष्कार से हुए हों।”

सामाजिक परिवर्तन के कारक

सामाजिक परिवर्तन के पीछे कोई-न-कोई कारक अवश्य रहता है। इसके विभिन्न अंगों में परिवर्तन लाने के लिए विभिन्न कारक ही उत्तरदायी हैं। अतः सामाजिक परिवर्तन भी अनेक कारकों का परिणाम होता है। सामाजिक परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारक उत्तरदायी होते

1. प्राकृतिक या भौगोलिक कारक – प्राकृतिक या भौगोलिक कारक सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राकृतिक शक्तियाँ समाज के प्रतिमानों के रूपान्तरण में अधिक उत्तरदायी होती हैं। भौगोलिक कारकों में भूमि, आकाश, चाँद-तारे, पहाड़, नदी, समुद्र, जलवायु, प्राकृतिक घटनाएँ, वनस्पति आदि सम्मिलित हैं। प्राकृतिक कारकों के समग्र प्रभाव को ही प्राकृतिक पर्यावरण कहा जाता है। प्राकृतिक पर्यावरण का मानव-जीवन पर प्रत्यक्ष और गहरा प्रभाव पड़ता है। बाढ़, भूकम्प व घातक बीमारियाँ मानव सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं। लोग घर-बार छोड़कर अन्यत्र प्रवास कर जाते हैं। नगर और गाँव वीरान हो जाते हैं। लोगों के सामाजिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं। जलवायु सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारक है। जलवायु सभ्यता के विकास और विनाश में प्रमुख भूमिका निभाती है। भौगोलिक कारक ही मनुष्य के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का निर्धारण करते हैं। कहीं मनुष्य प्रकृति के समक्ष नतमस्तक होकर उसी के अनुरूप कार्य करता है और कहीं प्रकृति की उदारता का भरपूर लाभ उठाकर सांस्कृतिक उन्नति के साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अग्रणी बन जाता है।

2. प्राणिशास्त्रीय कारक – प्राणिशास्त्रीय कारक भी सामाजिक परिवर्तन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी होते हैं। प्राणिशास्त्रीय कारकों को जैविकीय कारक भी कहा जाता है। प्राणिशास्त्रीय कारक जनसंख्या के गुणात्मक पक्ष को प्रदर्शित करते हैं। इनसे प्रजातीय सम्मिश्रण, मृत्यु एवं जन्म-दर, लिंग अनुपात और जीवन की प्रत्याशी का बोध होता है। प्रजातीय मिश्रण से व्यक्ति के व्यवहार, मूल्य, आदर्श और विचारों में परिवर्तन आता है। प्रजातीय मिश्रण से समाज की प्रथाएँ, रीति-रिवाज, रहन-सहन का ढंग और सामाजिक सम्बन्ध बदल जाने के कारण सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। जन्म-दर और मृत्यु-दर सदस्यों में सामाजिक अनुकूलन का भाव जगाते हैं। जन्म-दर और मृत्यु-दर में परिवर्तन होने से सामाजिक प्रवृत्तियाँ और मृत्यु-दर अधिक होने से समाज में व्यक्तियों की औसत आयु घट जाती है। समाज में क्रियाशील व्यक्तियों की संख्या घटने से नये आविष्कार बाधित होने लगते हैं। समाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक होने पर बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन हो जाता है, इसके विपरीत स्थिति में बहुपति प्रथा चलन में आ जाती है। नयी परम्पराएँ समाज की संरचना और मूल्यों में परिवर्तन उत्पन्न कर सामाजिक परिवर्तन का कारण बनती हैं। समाज में स्वास्थ्य सेवाओं में कमी आने से स्वास्थ्य में गिरावट होने लगती है।

3. सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक – सामाजिक परिवर्तन के लिए आर्थिक कारक सबसे अधिक उत्तरदायी हैं। आर्थिक कारक सामाजिक संस्थाओं, परम्पराओं, सामाजिक मूल्यों और रीति-रिवाजों को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। औद्योगिक विकास ने भारतीय सामाजिक संरचना को आमूल-चूल परिवर्तित कर दिया है।
मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष तथा भौतिक द्वन्द्ववाद के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करके इसमें आर्थिक कारकों को निर्णायक माना है। मार्क्स का कहना है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति प्राकृतिक साधनों से कितनी कर पाएगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्रौद्योगिकीय विकास का स्तर क्या है। प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों से विभिन्न वर्गों में पाये जाने वाले आर्थिक सम्बन्ध बदल जाते हैं। आर्थिक सम्बन्ध बदलते ही समाज की सामाजिक संरचना परिवर्तित हो जाती है। यह आर्थिक संरचना अन्य सभी संरचनाओं (जैसे-धार्मिक, राजनीतिक, नैतिक आदि) में परिवर्तन की श्रृंखला प्रारम्भ कर देती है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स ने आर्थिक कारकों की भूमिका को अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है।

4. सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक – सांस्कृतिक कारक भी सामाजिक विघटन के महत्त्वपूर्ण कारक हैं। सोरोकिन का मत है कि सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम हैं। संस्कृति मानव-जीवन की जीवन-पद्धति है। इसमें रीतिरिवाज, सामाजिक संगठन, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था, विज्ञान, कला, धर्म, विश्वास, परम्पराएँ, मशीनें तथा नैतिक आदर्श सम्मिलित हैं। इसमें समस्त भौतिक और अभौतिक पदार्थ सम्मिलित होते हैं। वास्तव में, संस्कृति वह सीखा हुआ व्यवहार है जो सामाजिक जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक शैली है। जैसे ही समाज के सांस्कृतिक तत्त्वों में परिवर्तन आता है, वैसे ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
वर्तमान में विवाह एक धार्मिक संस्कार न रहकर, समझौता मात्र रह गया है, जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है। बढ़ते हुए विवाह-विच्छेदों के कारण समाज में परिवर्तन आना स्वाभाविक ही। है। समाज में सामाजिक मूल्यों, संस्थाओं और प्रथाओं में जैसे ही बदलाव आता है, वैसे ही सांस्कृतिक प्रतिमान बदल जाते हैं जो सामाजिक परिवर्तन को जन्म देते हैं। सामाजिक परिवर्तन में सांस्कृतिक कारकों की भूमिका को प्रभावशाली बनाने के लिए ऑगबर्न ने सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। भौतिक और अभौतिक दोनों ही संस्कृतियाँ मानव के जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। एक पहलू में परिवर्तन आने से दूसरा पहलू स्वतः बदल जाता है।

5. सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक – जनसंख्या समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। एक-एक व्यक्ति मिलकर ही समाज बनता है। जनसंख्यात्मक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; क्योंकि किसी समाज की रचना को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। जनसंख्या की रचना, आकार, जन्म-दर, मृत्यु-दर, जनसंख्या की कमी एवं अधिकता, देशान्तरगमन, स्त्री-पुरुषों का अनुपात, बालकों, युवकों एवं वृद्धों की संख्या आदि सभी जनसंख्यात्मक कारक माने जाते हैं।

6. सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिकीय कारक – वर्तमान युग प्रौद्योगिकी का युग है। नये-नये आविष्कार, उत्पादन की विधियाँ अथवा यन्त्र सामाजिक परिवर्तन लाने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रौद्योगिकी अथवा तकनीकी भी सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। जैसे-जैसे किसी समाज की प्रौद्योगिकी में परिवर्तन होते रहते हैं, वैसे-वैसे समाज के विभिन्न पहलुओं तथा संस्थाओं में परिवर्तन होते रहते हैं। प्रौद्योगिकी एक सामान्य शब्द है, जिसके अन्तर्गत समस्त यान्त्रिक उपकरणों तथा इनसे वस्तुओं के निर्माण की प्रक्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। अन्य शब्दों में, यह मशीनों और औजारों तथा उनके प्रयोग से सम्बन्धितं है।
वेबलन ने सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रौद्योगिकी को प्रमुख स्थान दिया है। उन्होंने मनुष्यों को आदतों का दास माना है। आदतें स्थिर नहीं होतीं और प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के साथ आदतें भी बदल जाती हैं। इससे सामाजिक परिवर्तन होता है। प्रौद्योगिकी विकास के साथ ही नगरीकरण और औद्योगीकरण की गति तीव्र होती है। बड़े-बड़े नगर तथा औद्योगिक केन्द्र विकसित होने से समाज में अनेक समस्याएँ जन्म लेने लगती हैं, जिससे समाज में परिवर्तन आ जाता है। भौतिकवादी प्रवृत्ति का उदय होने से धन व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मापदण्ड बन जाता है। मनोरंजन के साधनों का व्यवसायीकरण होने तथा मानसिक संवेग तनाव और रोग को जन्म देकर सामाजिक परिवर्तन लाते हैं।

27.

प्राविधिक निर्णयवाद के निर्माता कौन हैं ?

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प्राविधिक निर्णयवाद के निर्माता थर्स्टन वेबलन हैं।

28.

‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ का प्रतिपादक कौन था ? या निम्नलिखित में से किसने ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ की अवधारणा प्रस्तुत की?(क) मार्क्स(ख) महात्मा गांधी(ग) स्पेन्सर(घ) ऑगबर्न

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सही विकल्प है (क) मार्क्स

29.

कार्ल मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ का सिद्धान्त क्या है?

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मार्क्स द्वन्द्व को ही परिवर्तन की प्रक्रिया का आधार मानता है। माक्र्स ने ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ के द्वारा समाज के विकास को समझने का प्रयत्न किया है। मार्क्स ने इस बात पर बल दिया कि समाज के विकास के कुछ नियम होते हैं तथा उन नियमों के अनुरूप ही समाज में परिवर्तन होते रहते हैं। मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी वर्ग एक ‘वाद’ है, सर्वहारा वर्ग ‘प्रतिवाद’ है। और इन दोनों के संघर्ष से संवाद के रूप में वर्गहीन समाज की स्थापना होगी। मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का अन्तिम लक्ष्य वर्गविहीन समाज की स्थापना है जिसमें न कोई वर्ग-भेद होगा और न किसी प्रकार का शोषण।

30.

कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो किस वर्ष प्रकाशित हुआ ?

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कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन 1948 ई० में हुआ।

31.

कौन-सी पुस्तक एफ० एच० गिडिंग्स द्वारा लिखी गयी है ? (क) सोसायटी(ख) पॉजिटिव पॉलिटी(ग) इण्डक्टिव सोशियोलॉजी(घ) सोशियल कण्ट्रोल

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(ग) इण्डक्टिव सोशियोलॉजी

32.

निरन्तर एक ही दिशा में आगे की ओर होने वाले परिवर्तन को कहते हैं(क) चक्रीय(ख) प्रगतिशील(ग) क्रान्तिकारी(घ) उविकासीय

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(घ) उदूविकासीय

33.

राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा धारा के तहत अनाज संबंधी विविध वर्गों को अनाज वितरण संबंधी, सार्वजनिक वितरण संबंधी तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली संबंधित व्यवस्थाएँ समझाइए ।

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भारतीय संविधान के अनुच्छेद 47 में केन्द्र सरकार ने 5 जुलाई, 2013 को राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा कानून जोड़ा है, 

जिसमें निम्नांकित संवैधानिक व्यवस्थाएँ की गयी है :

  • इस धारा के तहत ‘मा अन्नपूर्णा योजना’ के अनुसार शहर और ग्राम्य क्षेत्रों में आवश्यकतामंद, मध्यम वर्ग के गरीब परिवारों को उचित भाव से अनाज उपलब्ध करवाया जाता है, जिसके तहत राज्य के अंत्योदय परिवारों को प्रतिमास 35 किग्रा अनाज
    मुफ्त दिया जाता है ।
  • इस योजना के तहत सभी लाभार्थियों को अनाज में रु. 2 प्रति किग्रा के भाव से गेहूँ, रु. 3 के भाव से चावल और रु. 1 के भाव से मोटा अनाज समय पर, निश्चित मात्रा में, गुणवत्तायुक्त अनाज PDS द्वारा नियमित दर पर वितरित किया जाता है ।
  • गर्भवती स्त्रिओं को प्रसूति सहायता के रूप में रु. 6000 की रकम केन्द्र सरकार द्वारा चुकाई जाती है ।
  • इस विधेयक के तहत राज्य सरकार द्वारा लाभार्थियों को भोजन और अनाज के बदले में ‘अन्न सुरक्षा भत्था’ प्राप्त करने में हकदार बनते है ।
  • इस धारा के अनुसार ‘गुजरात सरकार’ अंत्योदय और बी.पी.एल. परिवारों को प्रति माह चीनी, आयोडाइज नमक, केरोसीन और वर्ष में दो समय का खाद्यतेल का राहतदर पर वितरण रेशनिंग की दुकानों के माध्यम से दिया जाता है ।
  • राज्य सरकार इन अग्रिम परिवारों की सूचि आधुनिक बनाएगा और सुधारेगा तथा ऐसे नामों की सूचियाँ ग्रामपंचायत, ग्रामसभाओं, बोर्ड सभा में, ई-ग्राम और उचित मूल्य की दुकानों या तहसीलदार, आपूर्ति विभाग की वेबसाईट पर प्रदर्शित की जाती है ।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार करके उसे सुदृढ़ बनाकर भ्रष्टाचारमुक्त व्यवस्था के लिए ‘बायोमेट्रिक पहचान, एपीक कार्ड, बारकोटेड राशनकार्ड और अन्नकूपन तथा वेबकेमरे से इमेल’ लेने की व्यवस्था की है ।
  • इस विधेयक के तहत ‘आंतरिक शिकायत निवारण तंत्र’ तैयार करना और शिकायतों के निवारण के अर्थ में ‘नोडेल अधिकारी’ नियुक्त कर अनाज वितरण व्यवस्था का नियमन और नियंत्रण और शिकायत के अर्थ में ‘राज्य अन्न आयोग’ की रचना और फूड कमिशन की नियुक्ति की जायेगी ।

इस प्रकार ‘राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा की धारा’ की अनेक व्यवस्थाओं के अंतर्गत ‘मा अन्नपूर्णा योजना’ के तहत गुजरात के लगभग 3.62 करोड़ जरुरतमंद नागरिकों को राहत दर पर अनाज देने की कल्याणकारी योजना राज्य सरकार ने अमल में रखकर सकारात्मक कदम उठाया है ।

34.

सामाजिक परिवर्तन होने मुख्य कारणों को समझाइए ।

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पश्चिमीकरण, वैश्विकरण और शहरीकरण के कारण सामाजिक संबंधों में, परिवार व्यवस्था में, विवाह व्यवस्था में, संस्कृति में, लोगों की जीवनशैली में साहित्य, कला-संगीत और नृत्य क्षेत्र में आमूलयूत सांस्कृतिक परिवर्तन आये है । जिससे लोग एक-दूसरे की संस्कृति से परिचित हुए है ।

  • भौतिक चीजों, भोगविलास के साधन, आधुनिक उपकरणों का उपयोग तथा दैनिक जीवन में उपयोग आनेवाले विविध साधन सुविधाएँ ग्रामीण समाज तक पहुँचे है ।
  • लोगों के घरों, उनके निर्माण में तथा निर्माण कार्य की आधुनिकतम जीवनशैली में परिवर्तन आये है ।
  • समाज में भौतिक परिवर्तन से लोगों का जीवनस्तर सुधरा है, जीवनशैली में पाश्चात्य संस्कृति की छटा दिखाई देती है ।
35.

कानून की सामान्य जानकारी क्यों जरुरी बनी है ?

Answer»

कानून की सामान्य जानकारी, ज्ञान और समझ होना अत्यंत जरुरी है ।

  • कानून के सामान्य ज्ञान और कानून के दण्ड के माध्यम से प्रजा कानून का भंग करने और अपराध करने से रूकती है और दण्ड से बच सकती है । शोषण और अन्य के सामने लड़ने हेतु कैसे कानूनी कदम उठा सकते है, इसका मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते है। संवैधानिक अधिकारों और व्यक्तिगत हितों के रक्षणार्थ अधिकार अच्छी तरह भोग सकते है ।
  • व्यक्ति की सुरक्षा और उत्कर्ष के अर्थ में बनी विविध कानूनी व्यवस्थाओं से यह परिचित हो सकता है ।
  • समाज, राज्य और राष्ट्र के प्रति वफादारी बढ़ती है ।
  • समाज के जिम्मेदार नागरिक के रूप में अधिकारों से वंचित न रहे तथा सामान्य नागरिक के रूप में कर्तव्यों का पालन कर सकता है । कानून के ज्ञान और समज से प्रत्येक व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा और गौरवपूर्ण जीवन जी सके इसके लिए कानून का सामान्य ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है ।
36.

भारतीय समाज में परिवर्तन लाने का मुख्य कारण क्या है ?(A) रूढ़ियाँ – परंपराएँ(B) लोकमत(C) पश्चिमीकरण(D) साक्षरता

Answer»

सही विकल्प है (D) साक्षरता

37.

भारतीय समाज में परिवर्तन लाने का मुख्य कारण क्या है ?(A) रूढ़ियाँ – परंपराएँ(B) लोकमत(C) पश्चिमीकरण(D) साक्षरता

Answer»

सही विकल्प है (D) साक्षरता

38.

‘माँ अन्नपूर्णा योजना’ की महत्त्वपूर्ण व्यवस्था बताइए ।

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‘माँ अन्नपूर्णा योजना’ के अनुसार शहर या ग्राम्य क्षेत्रों में जरूरतमंद मध्यमवर्ग के गरीब परिवारों को उचित मूल्य पर अनाज उपलब्ध करवाना है । इसके अनुसार राज्य के अंत्योदय परिवारों के प्रतिमाह 35 किग्रा अनाज मुफ्त में दिया जाता है । इस योजना के तहत सभी लाभार्थियों को अनाज में रु. 2 के प्रति किलो भाव से गेहूँ और रु. 3 प्रति किलो के भाव से और मोटा अनाज रु. 1 प्रति किलो के भाव से समय पर, निश्चित मात्रा में गुणवत्तायुक्त अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) .. के तहत नियमित शर्तों पर वितरण किया जाता है ।

39.

विश्व युद्ध दिवस कब मनाया जाता है ?(A) 8 मार्च(B) 1st अक्टूबर(C) 1 अप्रैल(D) 15 जून

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(B) 1st अक्टूबर

40.

विश्व युद्ध दिवस कब मनाया जाता है ?(A) 8 मार्च(B) 1st अक्टूबर(C) 1 अप्रैल(D) 15 जून

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सही विकल्प है (B) 1st अक्टूबर

41.

‘बालविकास आर्थिक विकास की पूर्वशर्त है ।’ समझाइए ।

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बालकों को भी शोषण के सामने रक्षा का अधिकार दिया गया है । आज हमारे आसपास में बच्चों का शोषण होते हुए हमने देखा है । आज हमारा देश ऐसी अनेक समस्याओं का सामना कर रहा है । बालकों की उपेक्षा के कारण बालमजदूरी जैसी गंभीर समस्याएँ खड़ी हो गई है । बालकों की उपेक्षा न होवे तथा बच्चे बालमजदूरी जैसे शोषण का भोग नहीं बने, इसलिए बच्चों की रक्षा (लोगजागृति के आंदोलन द्वारा) का ध्यान रखना चाहिए । सार्वत्रिक, मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा द्वारा हम इस समस्या को हल कर सकते है ।

बालकों की मानसिक और शारीरिक पीडा पहुँचाना बाल अत्याचार है ।। अपने समाज के असुरक्षित वर्ग में हमारे बच्चे है । किसी भी राष्ट्र की प्रगति का आधार बच्चों के सर्वांगी विकास पर निर्भर है । इसलिए बच्चों के प्रति विशेष ध्यान देना जरुरी है । बालकों का विकास और उनका कल्याण किसी भी समाज के सर्वांगी विकास की पूर्वशरत है, इसलिए तो हम बच्चों को राष्ट्र की सम्पत्ति कहते हैं । बच्चों का अच्छी तरह लालन-पालन करना, शारीरिक मानसिक और बौद्धिक शक्तियों का विकास करके बच्चों को स्वस्थ जिम्मेदार नागरिक बनाने का हमारा प्रथम फर्ज है ।

42.

इनमें से किस सूचना को देने से मना कर सकते है ?(A) निर्वाचन आयोग(B) सरकारी योजनाएँ(C) न्यायिक निर्णय(D) राष्ट्रीय अखण्डता और सार्वभौमिकता की बात

Answer»

(D) राष्ट्रीय अखण्डता और सार्वभौमिकता की बात

43.

इनमें से किस सूचना को देने से मना कर सकते है ?(A) निर्वाचन आयोग(B) सरकारी योजनाएँ(C) न्यायिक निर्णय(D) राष्ट्रीय अखण्डता और सार्वभौमिकता की बात

Answer»

(D) राष्ट्रीय अखण्डता और सार्वभौमिकता की बात

44.

भ्रष्टाचार को समाप्त करने के कानूनी प्रयास बताइए।

Answer»

भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था और समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ते है जो निम्नानुसार है:

  • समाज में भ्रष्टाचारी आचरण से नैतिक मूल्यों और सामाजिक नीति-नियमों का स्तर नीचे गिरता है ।
  • अर्थव्यवस्था में काले धन की समस्या उद्भव होती है, जो राष्ट्र के विकास में अवरोधक है । राज्य के कानूनों, न्याय प्रणाली, सत्ता और प्रशासन तंत्र पर से लोगों का विश्वास घटता है । ईमानदार व्यक्ति हताशा और निराशा में जीता है ।
    मानव अधिकारों का हनन होता है । जिससे समाज में अन्याय और आय की असमानता उद्भव होती है जिसके कारण वर्गसंघर्ष उत्पन्न होता है ।
  • भ्रष्टाचार से लोगों में नैतिकता और राष्ट्रीय चरित्र जोखिम में है और सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का स्तर गिरता है ।

(1) भारत में 1964 में ‘केन्द्रीय लांच रिश्वत विरोधी ब्यूरो’ की स्थापना की है जो सरकारीतंत्र में विद्यमान भ्रष्टाचार की बदी को नेस्तनाबूद करने का प्रयास करता है । भ्रष्टाचारियों को रंगे हाथ पकड़कर उनके विरुद्ध कानूनी, दण्डात्मक कार्यवाही करता है । सार्वजनिक जनता

(2) भ्रष्टाचार संबंधी कोई शिकायत हो तो हेल्पलाईन टोल फ्री नंबर 1800 2334 4444 पर शिकायत कर सकते भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सरकार ने ‘भ्रष्टाचार विरोधी नियम, 1988’ में बनाया, जिससे सार्वजनिक जीवन को शुद्ध करके सत्ता का दुरुपयोग अटकाया गया है ।

(3) सूचना का अधिकार 2005 और नागरिक अधिकारपत्र घोषित किया जिसके पीछे सरकारी कर्मचारी द्वारा प्रशासनिक कार्य निश्चित समय में पूरा करने का विश्वास दिलाकर अपने कार्यक्षेत्र और सत्ता के अधीन के कार्य में होनेवाला विलम्ब दूर करके पारदर्शक और जवाबदार प्रशासन तैयार करना है ।

(4) केन्द्र सरकार ने 2005 में ब्लेकमनी एक्ट बनाया, जिसमें भ्रष्टाचार को अपराधिक स्वरूप में घोषित किया गया । इसके उपरांत FEMA कानून में तथा मनी लेन्डरींग एक्ट में तथा कस्टम एक्ट की धारा-132 में सुधार किया । लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति करके कालाधन खोजने और भ्रष्टाचार को नष्ट करने के प्रयत्न किये । सरकारी अधिकारी द्वारा उच्च सत्ता का अनुचित उपयोग और भ्रष्टाचार की शिकायत के आधार पर विभागीय जाँच का कार्य ‘गुजरात तकेदारी सेवा आयोग’ गाँधीनगर कर रहा है ।

45.

बालश्रमिकों की माँग किस कारण अधिक होती है ?

Answer»

बालश्रमिक श्रम का सस्ता उत्पादक साधन है । व्यस्क व्यक्ति की तुलना में बालश्रमिक को कम मजदूरी या वेतन चुकाकर काम ले सकते है ।

  • वे असंगठित होते है, संगठन के अभाव से मालिकों के विरुद्ध वे आवाज नहीं उठा सकते, विरोध प्रदर्शित नहीं कर सकते जिससे बालश्रमिकों का सरलता से उन्हें खबर न पड़े इस तरह विविधरूपों से वे शोषण कर सकते है । कठिन या जोखमी परिस्थितियों में भी कम वेतन और निर्धारित कार्य समय से अधिक काम कराकर, धमकाकर और लालच देकर काम करवा सकते है ।
  • बाल श्रमिकों की संख्या अधिक है जिससे अधिक मात्रा में और आसानी से वे प्राप्त हो जाते है । ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं के अभाव से, बालक पढ़ने की उम्र में परिवार के सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए, कमाने के अधिक हाथ-पैर के रूप में माता-पिता बालकों को देखते है और बाल मजदूरी की ओर धकेलते है ।
46.

नागरिकों के मूलभूत अधिकार बताइए ।

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भारत में संविधान के तीसरे हिस्से में भारत के तमाम नागरिकों को कोई भी प्रकार के भेद के बिना 6 मूलभूत अधिकारों दिये गये है, 

जो निम्नलिखित है :

  • समानता अधिकार
  • स्वतंत्रता अधिकार
  • शोषण विरोधी अधिकार
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
  • सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार
47.

वृद्धों की समस्याओं का वर्णन करो तथा उनकी रक्षा और कल्याण के लिए प्रावधानों का वर्णन कीजिए ।

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वृद्धावस्था कुदरती क्रम है । जैसे जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ती जाती है वैसे वैसे शारीरिक और मानसिक शक्ति कम हो जाती है । आज के व्यक्तिवादी और भौतिकवादी समय में उनका सन्मान और गौरव बना रहे, उस दिशा में खास प्रयत्न करने की जरूरत है । संयुक्त कुटुंब में रहते वृद्धों की देखभाल पहले के समय की तुलना में अभी अधिक ली जाती है । कुटुंब विभक्त बनने पर समस्या कम या ज्यादा गंभीर बनती है, जिसके कारण कई वृद्धों को वृद्धाश्रम में रहने के लिए मजबूर करता है ।

वे एक प्रकार की उपेक्षा और निःसहाय की स्थिति में हैं । जब कि उनको सहायता की जरूरत है तब अलग रहना इनके लिए बहुत दुःखदायक है । अकेले रहनेवाले अशक्त वृद्धों की असलामती बढ़ती जाती है । वृद्धों की सलामती और रक्षा के लिए खास कार्यवाही करनी चाहिए । बड़े शहरों में यह समस्या बहुत गंभीर बन जाती है । ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत व्यवसाय में से वृद्धावस्था के कारण मुक्ति पानेवाले वद्धों के लिए लम्बे अरसे की कोई आर्थिक सहायता या पेन्शन की योजना न होने के कारण वृद्धों का जीवन अनेकविध समस्याओं से भरपूर है ।

वृद्धों की सुरक्षा और कल्याण के उपाय :

  • वृद्धों के लिए. 1999 में राष्ट्रीय नीति केन्द्र सरकार ने लागु की है । जिसके तहत वृद्धों को पेन्शन/आर्थिक सहायता दी जाती सीनियर सिटिजन्स के लिए स्कीम के तहत वृद्धों को बैंक/पोस्ट ऑफिस में रखे डिपोजिट पर अधिक ब्याज दर की सुविधा, बस, रेलवे या हवाई यात्रा में पुरुष-स्त्री को टिकिट दर में 30 से 50% की राहत दी जाती है । राज्य सरकार ने प्रत्येक जिले में एक सुविधायुक्त ‘वृद्धाश्रम’ खोले है, शहरों में वृद्धों के लिए अलग से बगीचे खुले रखे है । वृद्धाश्रमों में संगीत, योग, खेल, मानसिक क्षमता बढ़े ऐसी प्रवृत्तियों द्वारा जीवन में शांति स्थापित करने का प्रयत्न किया है ।
  • वृद्धों की सुरक्षा के लिए घरेलु हिंसा, शोषण, अत्याचार के विरुद्ध रक्षा देने के लिए सरकार ने माता-पिता और सीनियर सीटीजन की देखभाल और कल्याण संबंधी कानून 2007 में लागु किया जिसमें वृद्धों को हेरान करते उनकी संतानों को दण्ड देने का प्रावधान है । वृद्धों को भरणपोषण का अधिकार दिया है । केन्द्र सरकार ने विशिष्ट योगदान के लिए प्रौढ़ों को सम्मानित करने का कार्यक्रम चलाया है ।

→ UNO ने 1999 के वर्ष को अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध वर्ष घोषित किया है । प्रत्येक वर्ष 1 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध वर्ष मनाया जाता है ।

48.

सूचना प्राप्त करने के अधिकार के उद्देश्यों को बताकर सूचना प्राप्त करने की प्रक्रिया बताइए ।

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सूचना प्राप्त करने का अधिकार अधिनियम केन्द्र सरकार ने 15 जून, 2005 के दिन पास किया । यह जम्मू-कश्मीर को छोड़कर समग्र भारत में लागु पड़ता है । इसके आधार पर देश की गुप्तचर संस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा और सुरक्षा एकता और अखंडता को स्पर्श करती हो ऐसी संस्थाओं और विदेशी राजदूतों के कार्यालयों सहित कुछ अपवाद के अलावा सभी संस्थाओं पर लागु पड़ता है ।

उद्देश्य : पारदर्शक, स्वच्छ, सरल और तीव्र प्रशासनिक कार्य हो, इसमें प्रशासनिक सहयोग प्राप्त करना इस कानून का मूल उद्देश्य है । संवैधानिक व्यवस्थाओं के अधीन कोई भी नागरिक अपने रुके कार्यों के संबंध में योजनाओं के लागु होने के उद्देश्य के प्रजालक्षी कार्यों की सफलता और स्थिति के संबंधित विभाग के ऊपरी अधिकारी को प्रश्न पूछकर सही जानकारी प्राप्त कर सकता है ।

सूचना किस प्रकार प्राप्त करना ? इस अधिकार के तहत सूचना प्राप्ति हेतु आवेदक को निश्चित नमूने में निर्धारित फीस की रकम भरकर नगद में पोस्टल ऑर्डर, पे-ऑर्डर या नॉन ज्यूडिशियल आदेश के साथ जोड़नी होती है । यह आवेदन हस्तलिखित, टाईप या ई-मेल द्वारा भी की जा सकती है । बी.पी.एल. की सूची के तहत परिवार के व्यक्ति किसी भी फीस या नकल संबंधी चार्ज चुकाया हो तो नही । सूचना के आवेदन में किस कारण सूचना मांगी है इसके कारण देना जरुरी नहीं है । आवेदन मिलने की रसीद APIO, आवेदन क्रमांक (ID नंबर) देकर आवेदक को एक नकल देगा । इसके बाद आवेदन के संदर्भ में पत्रव्यवहार में ID क्रमांक दर्शाना होता है ।

सूचना प्राप्त करने के आवेदन स्वीकारने के 30 (तीस) दिनों में आवेदन का समाधान APIO करेगा । यदि कोई नमूना या नकल माँगी हो तो उसकी धारा में निर्धारित स्तर के अनुसार आवेदक के पास फीस या चार्ज वसूल करके सूचना के उत्तर नकल देगा । यदि सूचना राष्ट्र के सार्वभौमत्व, राष्ट्रीय हित या सुरक्षा को स्पर्शती गोपनीय बात, अदालती तिरस्कार हो सके ऐसी, वैज्ञानिक रहस्यों या अपराधों को उत्तेजना मिले इसके लिए इनकार कर सकता है ।

49.

अन्न सुरक्षा विधेयक के उद्देश्य लिखिए ।

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केन्द्र सरकार द्वारा 5 जुलाई, 2013 के दिन अन्न सुरक्षा विधेयक को लागू किया जिसके उद्देश्य इस प्रकार है :

→ देश में बढ़ती जनसंख्या की अनाज की कुल माँग को संतुष्ट करने तथा प्रत्येक समय पर्याप्त मात्रा में सस्ती दर पर गुणवत्तायुक्त अनाज उपलब्ध करवाना । बालकों में और प्रजा में कुपोषण की समस्या निवारण के लिए उचित प्रबंध करना और पोष्टिक आहार के कुल उत्पादन में वृद्धि हेतु प्रोत्साहन देना । सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) को अधिक सुदृढ़, पारदर्शी और सरल बनाना । अंत्योदय योजना और बी.पी.एल. की सूचि में दर्ज अग्रिम परिवारों को अन्न सुरक्षा, पोषणक्षम आहार के रूप में आवश्यक मात्रा । में राहतदर पर अनाज उपलब्ध करवाने के लिए और उससे आनुषंगिक बातों में सरलता से मिलता रहे ।

→ गर्भवती स्त्रियों, स्तनपान कराती माताओं को पोष्टिक मात्रा में अनाज की आवश्यक सहायता करने के लिए ।

50.

बालकों को मुफ्त और अनिवार्य सुरक्षा योजना के मुख्य प्रावधान समझाइए ।

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भारत सरकार ने 18 फरवरी, 2012 के दिन मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार नियम 2012 घोषित किया, 

जिसमें मुख्य व्यवस्थाएँ:

  • इस कानून में बालकों के शिक्षण और स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर विद्यालयी सुविधाओं और भौतिक सुविधाओं के निश्चित मापदण्ड निर्धारित किये है और उसके अनुसार कक्षा कक्ष, प्रयोगकक्ष, स्वच्छ पीने का पानी, बीजली, मध्याहन भोजन की व्यवस्था और गुणवत्ता, शिक्षकों की योग्यता और नियुक्ति के स्तर, विद्यालय को आर्थिक सहायता के रूप में दिया जानेवाला अनुदान की व्यवस्थाएँ निर्धारित की है ।
  • इस कानून में 6 से 14 वर्ष के प्रत्येक बालक को उसके आवास के नजदीक हो ऐसे विद्यालय में प्रवेश देना । उमर के आधार जन्म के प्रमाणपत्र न होने के कारण किसी को भी प्रवेश देने से इनकार नहीं कर सकते ।
  • प्राथमिक शिक्षा पूरी करे तब तक 14 वर्ष पूरे हुए हो तो भी शिक्षण चालू रखकर उसे मुफ्त शिक्षा प्रदान करना ।
  • प्रवेश देते समय बालक 6 वर्ष का होना चाहिए और उसके जन्म का प्रमाण न हो तो भी होस्पिटल के रिकोर्ड, माँ-बाप के उमर संबंधी शपतपत्र के आधार पर प्रवेश देना होता है ।
  • विद्यालय में किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना प्रवेश देने का आदेश है ।
  • प्रवेश के समय दान या केपिटेशन फीस के रूप में या अन्य किसी भी प्रकार की फीस की रकम नहीं ले सकते है ।
  • प्रवेश के समय बालक के माता-पिता का इन्टरव्यू लेकर प्रवेश देना या माता-पिता की आय और शैक्षणिक योग्यता या अयोग्यता के आधार पर प्रवेश परीक्षा लेकर प्रवेश नहीं दे सकते है ।
  • 3 से 5 वर्ष के बालकों की शिक्षा के लिए प्रि-स्कूल (बालमंदिर) की शिक्षा, पाठ्यक्रम, अभ्यासक्रम, मूल्यांकन और उनकी शिक्षा के लिए खास प्रशिक्षण के संबंध में नियम प्रथमबार बनाकर क्रांतिकारी कदम उठाकर नर्सरी को कानून के अधीन लाया गया
  • SC और ST के प्रवेशइच्छुक बालकों को उनकी कानून में दर्शाई पहचान के आधार पर बी.पी.एल. की सूची के परिवारों के बालकों को निजी प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा 1 में वर्ग की कुल क्षमता के 25% तक अनिवार्य प्रवेश का आदेश दिया गया है ।
  • विद्यालय के शिक्षक निजी ट्यूशन की प्रवृत्ति नहीं कर सकते ।
  • विद्यालय के कम योग्यतावाले शिक्षकों को 5 वर्ष के निर्धारित समय में शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करनी है ।
  • बालक को स्थानांतरण के सिवाय शिक्षा पूरी न करे उससे पहले विद्यालय से निकाल नहीं सकते ।
  • निजी प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश प्राप्त SC, ST के बालकों की फीस निर्धारित शर्तों के तहत उस विद्यालय को सरकार चुकाएगी ।
  • इस कानून की व्यवस्था के पालन का जिम्मा व्यवस्थातंत्र, ट्रिब्यूनल या राज्य काउन्सिल जैसी व्यवस्था की गयी है । इस अधिनियम के भंग के लिए विद्यालय के संचालकों को दण्ड तथा विद्यालय की मान्यता रद्द करने की कानूनी व्यवस्था है ।