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प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी।कौन कहता है कि तूविधवा हुई, खो आज पानी ?चल रही घड़ियाँ, चले नभ के सितारे,चल रही नदियाँ, चले हिम-खण्ड प्यारे;चल रही है साँस, फिर तू ठहर जाये ?दो सदी पीछे कि तेरी लहर जाये ?पहन ले नर-मुंड-माला,उठ, स्वमुंड सुमेरु कर ले,भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी :प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी !

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[विधवा = निस्तेज के लिए प्रयुक्त। पानी = तेज, स्वाभिमानी के लिए प्रयुक्त चल रही घड़ियाँ लहर जाये = सबमें गति है और तेरी प्रगति रुक जाए, यह कैसे सम्भव है। दो शताब्दियों के बाद तेरी उमंग जागे, यह ठीक नहीं। स्वमुंड सुमेरु कर ले = अपने सिर को मुण्ड-माला का सबसे बड़ा दाना बना ले। जीने की ममता त्याग दे। भूमि-सा“ आज धानी = जैसे लहलहाते हुए धानों की हरियाली में धरती का जीवन झलकता है,  उसी प्रकार अपनी निस्तेज उदास जवानी को जीवन दो।] सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के काव्य-खण्ड में संकलित और श्री माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित ‘जवानी’ कविता से उद्धृत है। यह कविता श्री चतुर्वेदी जी के संग्रह ‘हिमकिरीटिनी’ से ली गयी है।

प्रसंग-इस पद्य में देश की युवा-शक्ति में उत्साह का संचार करते हुए उसे देशोत्थान के कार्यों में प्रवृत्त होने का आह्वान किया गया है। कवि युवाओं को सम्बोधित करता हुआ कहता है

व्याख्या–अरी युवकों की पागल जवानी! तू अपने भीतर उत्साह एवं शक्तिरूपी प्राणों को समेटे है। यह कौन कहता है कि तूने अपना पानी (तेज) रूपी पति खो दिया है और तू विधवा होकर निस्तेज हो गयी है ? मैं आज जिधर भी दृष्टिपात करता हूँ, उधर गति-ही-गति देखता हूँ। घड़ियाँ अर्थात् समय निरन्तर चल रहा है। आसमान के सितारे भी गतिमान हैं। नदियाँ निरन्तर प्रवहमान हैं और पहाड़ों पर बर्फ के टुकड़े सरक-सरककर अपनी गति का प्रदर्शन कर रहे हैं। प्राणिमात्र की साँसें भी निरन्तर चल रही हैं। इस सर्वत्र गतिशील वातावरण में ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है कि तू ठहर जाये ? इस गतिमान समय में  यदि तू ठहर गयी और तुझमें गति का ज्वार-भाटा न आया तो तू दो शताब्दी पिछड़ जाएगी। समय बीत जाने पर जब तुझमें तरंगें उठेगी तो उन तरंगों में दो शताब्दी पीछे वाली गति होगी; अर्थात् जवानी के अलसा जाने पर देश की प्रगति दो शताब्दी पिछड़ जाएगी।
हे नवयुवकों की जवानी! तू उठ और दुर्गा की भाँति मनुष्यों के मुण्डों की माला पहन ले। नरमुण्डों की इस माला में तू अपने सिर को सुमेरु बना, अर्थात् बलिदान के क्षेत्र में तू सर्वोपरि बन। यदि आज समर्पण की आवश्यकता पड़े तो तू उससे पीछे मत हट। जिस प्रकार लहलहाते हुए धानों की हरियाली में धरती का जीवन झलकता है, ऐसे ही हे जवानी, तू भी उत्साह में भरकर धानी चूनर ओढ़ ले। प्राण-तत्त्व तेरे साथ है; अतः हे युवकों की जवानी! तू आलस्य को त्यागकर उठ खड़ी हो और सर्वत्र क्रान्ति ला दे।

काव्यगत सौन्दर्य-
⦁    इन पंक्तियों में कवि ने देश के युवा वर्ग का आह्वान किया है कि वह देश पर अपने को उत्सर्ग कर इसे स्वतन्त्र कराये।
⦁    भाषा–सहज और सरल खड़ी बोली
⦁    शैलीउद्बोधन।
⦁    रस–वीर।
⦁    गुण-ओज।
⦁    शब्दशक्ति-अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
⦁    अलंकारे–अनुप्रास, उपमा एवं रूपक।
⦁    छन्द-तुकान्त-मुक्त।



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