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श्वान के सिर हो-चरण तो चाटता है!भौंक ले—क्या सिंह को वह डाँटता है?रोटियाँ खायीं कि साहस खो चुका है,प्राणि हो, पर प्राण से वह जा चुका है।तुम न खेलो ग्राम-सिंहों में भवानी !विश्व की अभिमान मस्तानी जवानी !

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[श्वान = कुत्ता। ग्राम सिंह = कुत्ता। भवानी = दुर्गारूपी जवानी।]

प्रसंग-इन पंक्तियों में कवि ने स्वाभिमान के महत्त्व पर  प्रकाश डालते हुए युवकों से उसे किसी भी कीमत पर न खोने का आह्वान किया है।

व्याख्या-कवि कहता है कि कहने को सिर तो कुत्ते का भी होता है, पर उसमें स्वाभिमान तो नहीं होता । वह तो अपनी क्षुधापूर्ति के लिए दूसरों की चाटुकारी करता फिरता है और उनके पैरों को चाटता रहता है। इसलिए स्वाभिमान के अभाव में उसकी वाणी में कोई शक्ति नहीं रह जाती। कुत्ता चाहे कितना ही जोर से भौंक ले, किन्तु उसमें इतना साहस ही नहीं होता कि उसके भौंकने से सिंह डर जाए; क्योंकि दूसरे की रोटियाँ खाते ही उसका स्वाभिमान नष्ट हो जाता है। उसमें साहस नहीं रह जाता। इस प्रकार जीवित होने पर भी वह मरे हुए के समान हो जाता है; अतः हे देश के शक्तिस्वरूप नवयुवको! तुम्हें अपने स्वाभिमान की रक्षा करनी है और पराधीन नहीं रहना है। कुत्तों की भाँति रोटी के टुकड़ों के लिए अपने स्वाभिमान को नहीं खोना है। तुम्हें अपनी प्रचण्ड दुर्गा जैसी असीम शक्ति को आपसी झगड़ों  में नष्ट नहीं करना है, अपितु उसे देश के दुश्मनों के संहार में लगाना है। तुम्हारी ऐसी मस्तानी जवानी का सारी दुनिया लोहा मानती है।

काव्यगत सौन्दर्य-
⦁    यहाँ कवि ने युवकों को कायरता और चाटुकारिता से बचकर स्वाभिमान से जीने और देश के हित में कार्य करने की प्रेरणा दी है।
⦁    श्वान (कुत्ता) यहाँ उन लोगों का प्रतीक है, जो अंग्रेजों की रोटियाँ खाकर उनके हाथों की कठपुतली बने हुए हैं।
⦁    भाषा-परिमार्जित खड़ी बोली।
⦁    शैली-उद्बोधन।
⦁    रस-वीर।
⦁    गुण-ओज।
⦁    अलंकार–अनुप्रास, रूपक और उपमा।
⦁    छन्द-मुक्त और तुकान्त।
⦁    भावसाम्य-स्वाभिमान को जीवन का प्रतीक बताते हुए गुप्त जी ने कहा है
जिसमें न निज गौरव तथा निज जाति का अभिमान है।
वह नर नहीं है, पशु निरा और मृतक समान है।।



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