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‘कर्मवीर भरत’ के ‘कौशल्या-सुमित्रा-मिलन’ शीर्षक तृतीय सर्ग का सारांश लिखिए।या‘कर्मवीर भरत’ के आधार पर भरत के कौशल्या तथा सुमित्रा से हुए वार्तालाप का वर्णन संक्षेप में कीजिए।

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भरत और कौशल्या-मिलन–कौशल्या के भवन में जाकर दोनों भाइयों ने माता के चरणों की वन्दना की और उनसे दीर्घायु होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। उस समय माता कौशल्या के केश बिखरे हुए, वस्त्र मलिन, तन आभूषणरहित और आँखों में आँसू भरे हुए थे। उन्होंने दोनों पुत्रों को गले लगाकर बिलख-बिलखकर रोते हुए, मन के विषाद को कम किया।

भरत ने माता कौशल्या से कहा कि मैं अपने पापों का प्रायश्चित्त करना चाहता हूँ। यदि पिता जीवित रहते तो मेरे सौ-सौ अपराध क्षमा कर देते। मैं अपनी माता की नीति नहीं समझ पाया। अयोध्या का राज्य मेरे । लिए शूल बना हुआ है। यह कभी नहीं हो सकता कि राम वन में रहें और भरत राज्य-सुख भोगता रहे। यह कहकर भरत ने माँ कौशल्या के चरण पकड़ लिये।।

माता कौशल्या ने भरत को गले लगाकर कहा कि इसमें न तो तुम्हारा  कोई दोष है और न ही कैकेयी का। कैकेयी तो हमेशा राम का हित चाहती थी। राम भी उसका ही सर्वाधिक आदर करते थे। उसने भी अपना हृदय कठोर बनाकर ही जीवन-दीक्षा के लिए राम को वन भेजा है। अतः तुम अपने मन में किसी प्रकार का हीन भाव न लाओ।

कौशल्या ने पुन: कहा कि यह तो सभी जानते हैं कि भरत को राज्य का लोभ नहीं है। तुम अपने मन की शंका और ग्लानि को दूर कर आत्मविश्वासपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करो। जब तक सरयू की धारा है, तब तक तुम्हारा सुयश रहेगा। इस प्रकार माता कौशल्या ने अपने स्नेह-सिक्त वचनों से भरत का उत्साह बढ़ाया तथा उन्हें समझाया कि अन्त:करण को शुद्ध रखने वाले साहसी पुरुष कभी परनिन्दा पर ध्यान नहीं देते। जो निन्दा व अपयश के भयजाल में फंसे रहते हैं वे जीवन में कभी महान् कार्य नहीं कर सकते।

भरत और सुमित्रा-मिलन–राजभवन में भरत के आने का समाचार सुनकर सुमित्रा उनसे मिलने दौड़ीं और भाव-विह्वल होकर उन्होंने पुत्रों को गले से लगाया। भरत ने सुमित्रा से कहा-“हे माँ! तुमने श्रीराम को वन जाने से क्यों नहीं रोका? मेरी माता ने मुझे राज्य का लोभी जानकर मेरे सिर पर राजमुकुट रख दिया और राम के सिर पर जटा-मुकुट। यही शूल हृदय में चुभ रहा है। काश! वह मुझे वन भेज देतीं तो आज राम अवध का शासन करते।’

भरत की बात सुनकर सुमित्रा ने कहा- “बेटा, तुम्हारी शिक्षा अयोध्या तक सीमित रही है और राम ने पहले भी विश्वामित्र के साथ रहकर राक्षसों का वध किया है। वे वन के कष्टों से भली-भाँति परिचित हैं। मुझे तुम्हारा मलिन मुख देखकर रोना आता है। मैंने वैधव्य तो सहन कर लिया, परन्तु तुम्हें दुःखी देखकर मैं जीवित नहीं रह सकती। नववधू उर्मिला, जिसने हँसते-हँसते पति लक्ष्मण को वन भेजा है, वह भी अपने अन्तर के दु:ख को प्रकट  नहीं होने देती, लेकिन तुम्हें विकल देखकर वह भी धैर्य धारण नहीं कर सकेगी। उधर वधू माण्डवी भी तुम्हें दु:खी देखकर अपने आँसू नहीं रोक पाएगी। अतः तुम अपने मन का क्षोभ त्यागकर हमारे पथ-प्रदर्शक बनकर अपने कर्तव्य को निभाओ।” इस प्रकार सुमित्रा ने दोनों पुत्रों को प्रेम से गले लगाकर गुरु के पास भेज दिया।



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