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| 1. | ‘कर्मवीर भरत’ के षष्ठ सर्ग ‘राम-भरत-मिलन’ का सारांश लिखिए।या‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग (अन्तिम सर्ग) की कथा लिखिए। | 
| Answer» सेना सहित भरत को सहसा वन में आते देखकर एक भील ने रामचन्द्र जी को भरत-आगमन का समाचार सुनाया। लक्ष्मण को मन कुछ शंकित हुआ, परन्तु भरत का नाम सुनकर पुलकित होकर राम चरण-पादुका के बिना ही कुटी के बाहर आ गये। उन्होंने धूल-धूसरित भरत को अपने चरणों में नत देखा तो भरत को स्नेह सहित उठाकर गले से लगा लिया। शत्रुघ्न ने राम और लक्ष्मण के चरण स्पर्श किये। इसके बाद दोनों भाइयों ने सीता के चरणों में शीश झुकाकर ‘सदा सुखी जीवन जीने का आशीर्वाद प्राप्त किया। गुरु का आगमन सुनकर राम उनके रथ के पास गये और आदर सहित उन्हें आश्रम में ले आये। माताओं के चरण छूकर और सुमन्त से भेंट करके राम अति हर्षित हुए। गुरु वशिष्ठ से पिता की मृत्यु की बात सुनकर व्याकुल होकर ‘हाय पिता’ कहकर पृथ्वी पर गिर पड़े तथा गुरु के समझाने पर तर्पणादि कार्य करके निवृत्त हुए। चित्रकूट में राम के प्रेम में विभोर हुए सभी के कई दिन बीत गये। चित्रकूट के वन-उपवनों की प्राकृतिक सुषमा ने उनका मन मोह लिया था। भरत संकोचवश कुछ कह नहीं पा रहे थे। तब वशिष्ठ ने कहा कि हमको यहाँ आये बहुत दिन बीत गये हैं, अब हमें लौटना चाहिए। तब अवसर पाकर भरत ने कहा कि मैं राम को छोड़कर अयोध्या नहीं जाऊँगा। मैं उनका प्रतिनिधि बनकर वन में निवास करूंगा। हम सबकी विनती स्वीकार कर राम अयोध्या जाएँ, सिंहासन सूना पड़ा है। तत्पश्चात् कैकेयी ने राम से कहा-“पुत्र! मैं इस दु:खमय नाटक की सूत्रधारिणी हूँ। तुम भरत के कहे अनुसार राज्य प्राप्त करके मेरे ऊपर लगे कलंक को मिटाओ।” गुरु ने भी कैकेयी का समर्थन किया। कैकेयी के वचन सुनकरे राम ने कहा-“माता! इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। काल की गति ही वक्र है। मैं विवश हूँ, लौटकर नहीं जा सकता। भरत को राज्य का मोह नहीं है, फिर भी मैं अयोध्या जाकर राज्य नहीं कर सकता। भरत धर्मनिष्ठ होकर भी प्रेम-सिन्धु में डूब रहा है। यदि वह कहे तो मैं पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर अयश के सागर में डूब सकता हूँ, परन्तु कुल के आदर्शों को तो निबाहना ही चाहिए।’ | भरत ने कहा–“हे प्रभु! मैं नन्दिग्राम में कुटी बनाकर सिंहासन पर आपकी चरण-पादुकाएँ रखकर चौदह वर्ष तक वनवासी की तरह निवास करूंगा और आपका प्रतिनिधि बनकर जनसेवा करता रहूंगा। मैं आपकी पादुकाएँ लिये बिना नहीं जा सकता। आप मुझे चौदह वर्ष की अवधि बीतने पर लौट आने का आश्वासन दीजिए।’ यह कहकर भरत राम के चरणों पर गिर पड़े। ‘राम ने अपनी चरण-पादुकाएँ दे दीं और सबको प्रेम सहित विदा किया। भरत ने अयोध्या न जाकर नन्दिग्राम में कुटी बनायी और सिंहासन पर राम की चरण-पादुकाएँ रख दीं। शत्रुघ्न भरत की आज्ञा से राज्य का कार्य चलाने लगे। इस प्रकार भरत ने अपने चरित्र का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया। | |