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‘कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग ‘आदर्श वरण’ का सारांश लिखिए।या“चतुर्थ सर्ग ‘आदर्श वरण’ में सच्चे अर्थों में भरत की कर्मवीरता व्यक्त हुई है। उदाहरण सहित इस कथन की सत्यता की पुष्टि कीजिए।या‘कर्मवीर भरत’ के चतुर्थ सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए।

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गुरु का समझाना–भरत और शत्रुघ्न गुरु के पास पहुँचे और उनके चरणों में नमन कर संकोच के कारण कुछ भी कह न सके। गुरु ने आशीर्वाद देकर भरत को उनके वर्तमान कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि दशरथ सत्य का पालन करने के कारण मरकर भी अमर हो गये; अतः अब तुम चिन्ता को छोड़कर पिता के शरीर का विधिवत् संस्कार करो। पिता के निर्जीव शरीर को देखकर भरत मूर्च्छित हो गये। चेतना लौटने पर वशिष्ठ ने  भरत का हाथ पकड़कर उन्हें संसार की नश्वरता समझायी और कहा कि “नाश और विकास, सुख और दुःख, मृत्यु और जीवन साथ-साथ चलते रहते हैं। इस जीवन के रंगमंच पर हम सभी अभिनय करते हैं। केवल ईश्वर ही सूत्रधार तथा संचालक होता है।”

दशरथ का अन्तिम संस्कार-दशरथ के मृत शरीर को एक पालकी में रखकर सरयू-तट पर लाया गया। पुरवासी विकल होकर पीछे-पीछे चल रहे थे। भरत ने पिता के भौतिक शरीर का दाह-संस्कार किया और श्रद्धापूर्वक स्वर्ण-मणियों का दान दिया।

भरत के अभिषेक का प्रस्ताव तथा भरत का राम को लौटा लाने का संकल्प-स्नानादि से शुद्ध होकर गुरु वशिष्ठ की उपस्थिति में एक सभा बुलायी गयी। सुमन्त ने भरत के राज्याभिषेक को शास्त्रसम्मत, लोकसम्मत और पिता की आज्ञा बताते हुए उनके राजतिलक का प्रस्ताव रखा। सुमन्त की बात सुनकर भरत ने विनय सहित कहा कि रघुकुल की युगों से रीति रही है कि बड़ा पुत्र ही शासन का अधिकारी होता है। अतः परम्परा-निर्वाह के लिए त्यागपूर्वक सिद्धान्तों की रक्षा करना ही उचित है। राम संन्यासी होकर वन में चले गये, जिसके कारण पिता स्वर्ग सिधार गये। फिर वही राज्य मैं ग्रहण करू, यह कैसे सम्भव है? मैं वन में । जाकर, राम के चरण पकड़कर उनको लौटाकर लाऊँगा और माँ के द्वारा लगाये गये कलंक को मिटाऊँगा

वन में राम रहें, मैं बैर्दै सिंहासन पर,
शोभा देता नहीं मुझे आज्ञा दें गुरुवर ।
वन में जाकर चरण पकड़कर उन्हें मनाऊँ,
जैसा भी हो सके राम को लौटा लाऊँ ॥

भरत के वचन सुनकर दु:ख के समुद्र में डूबते हुए सबको मानो जीने का सहारा मिल गया। भरत के दृढ़ संकल्प को सुनकर शत्रुघ्न, कैकेयी सहित सभी माताओं, पुरवासियों और वशिष्ठ ने राम को अयोध्या लौटाने के लिए वन की ओर प्रस्थान किया। कुछ दूर तक तो भरत पैदल  ही चले किन्तु माता कौशल्या के कहने पर रथ पर बैठ गये। दिन-भर चलने के पश्चात् सभी ने तमसा नदी के तट पर विश्राम किया और प्रात: गुरु वशिष्ठ की आज्ञा लेकर नदी को पार करके आगे बढ़े।



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