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6901.

मध्यकालीन शिक्षा से आप क्या समझते हैं? इस काल की शिक्षा की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।यामध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

Answer»

मध्यकालीन शिक्षा का अर्थ भारतीय इतिहास में शैक्षिक दृष्टिकोण से मध्यकाल नितान्त भिन्न काल था। इस काल में भारत में मुख्य रूप से विदेशी मुस्लिम शासकों का शासन था। इस शासन के ही कारण भारत में एक भिन्न शिक्षा प्रणाली को लागू किया गया जो पारम्परिक भारतीय शिक्षा-प्रणाली से नितान्त भिन्न प्रकार की थी। इस शिक्षा-प्रणाली को मुस्लिम शिक्षा-प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है। वास्तव में इस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रसार एवं प्रचार करना भी था। मध्यकालीन अथवा मुस्लिम शिक्षा का सामान्य परिचय डॉ० केई ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर, अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।”

मध्यकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ

मध्यकालीन भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं–

1. शिक्षा का संरक्षण-मध्यकाल में शिक्षा-व्यवस्था राज्य के संरक्षण या नियन्त्रण में थी। मुस्लिम शासकों ने भी शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रुचि ली थी। उनके राज्य के विभिन्न भागों में मकतबों, मदरसों एवं पुस्तकालयों की स्थापना की गई। राज्य की ओर से छात्रों को छात्रवृत्तियाँ और शिष्यवृत्तियाँ भी दी गयी। इन सब सुविधाओं के कारण इस युग में शिक्षा का पर्याप्त प्रसार हुआ।

2. शिक्षा में व्यापकता का अभाव-यद्यपि मध्यकाल में शिक्षा का प्रसार बहुत तेजी से हुआ, लेकिन उसमें व्यापकता का सर्वथा अभाव था। शिक्षा पर धार्मिक कट्टरता की छाप लगी हुई थी और शिक्षा की जो भी व्यवस्था थी, वह केवले नगरों में उच्च तथा मध्यम वर्गों के बालकों के लिए ही थी। फलतः जनसाधारण के बालकों के ज्ञानार्जन का कोई सुलभ साधन नहीं था।

3. शिक्षा के लौकिक पक्ष पर बल-मुस्लिम शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य लौकिक यश, सुख तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति माना गया था। मुसलमानों को ध्यान लौकिक जीवन की ओर अधिक आकृष्ट था। अतः मुस्लिम शिक्षा में लौकिक पक्ष पर बहुत अधिक बल दिया गया और इसमें भारतीय आध्यात्मिकता का अभाव रखा गया।

4. प्रान्तीय भाषाओं की उपेक्षा–मध्यकाल में अरबी और फारसी भाषा के माध्यम से शिक्षा दी। जाती थी। इस कारण प्रान्तीय भाषाओं की पूर्णत: उपेक्षा हो गई। उच्च पद के इच्छुक व्यक्तियों ने भी मातृभाषा की उपेक्षा करके अरबी और फारसी भाषा का अध्ययन किया।
5. निःशुल्क शिक्षा—इस काल में बालकों की शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क थी। विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था। उनकी पढ़ाई का पूरा व्यय धनी व्यक्तियों और शासकों को वहन करना पड़ता था।

6. परीक्षाएँ-मुस्लिम काल में आजकल के समान सार्वजनिक परीक्षाओं का प्रचार नहीं था। शिक्षक वाद-विवाद और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्यार्थियों को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में भेजता था।
7. उपाधियाँ-मुस्लिम काल में छात्रों की शिक्षा समाप्ति के बाद उपाधियाँ प्रदान करने की व्यवस्था थी। धर्म की शिक्षा प्राप्त करने पर आलिम’ की उपाधि, तर्कशास्त्र और दर्शनशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने पर फाजिल की उपाधि और साहित्य का अध्ययन करने वाले छात्र को ‘कामिल’ की उपाधि दी जाती थी।

8. गुरु-शिष्य सम्बन्ध–इस काल में भी गुरु को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त होता था। शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर करते थे, और गुरु अपने शिष्य को पुत्रवत् मानते थे। छात्रावासों में गुरु और शिष्य एक साथ रहते थे, जिसके फलस्वरूप दोनों में निकट सम्पर्क स्थापित रहता था।

9. अनुशासन और दण्ड–इस काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध । शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ मधुर होने के कारण शिक्षकों के सामने अनुशासनहीनता की समस्या न थी, लेकिन अनुशासनहीन छात्रों को बेंत, कोड़े और चूंसे मारकर शारीरिक दण्ड दिया जाता था। इनका प्रयोग करने के लिए शिक्षकों को स्वतन्त्र छोड़ दिया गया था। कठोर दण्ड का प्रावधान होने के शिक्षा के लौकिक पक्ष पर बल कारण सामान्य रूप से अनुशासनहीनता की समस्या प्रबल नहीं थी।

10. छात्रावास- मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए। छात्रावासों की व्यवस्था थी, जिनका व्यय भार धनी व्यक्ति उठाते इन छात्रावासों में शिक्षकों और विद्यार्थियों के सुख तथा आनन्द उपाधियाँ की अनेक सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं।

11. स्त्री-शिक्षा-परदा-प्रथा के कारण इस काल में स्त्री-शिक्षा की प्रगति प्राचीनकाल की अपेक्षा कम थी। निम्न वर्ग की बालिकाओं को शिक्षा का अवसर प्राप्त नहीं होता था, जब कि धनी तथा उच्च घराने में उत्पन्न हुई बालिकाओं की शिक्षा के लिए अनेक साधन थे। छोटी आंयु में मोहल्ले की बालिकाएँ एकत्र होकर मकतब जाती थीं और लिखना-पढ़ना सीख लेती थीं। सम्पन्न परिवार की बालिकाओं को घर पर व्यक्तिगत शिक्षकों द्वारा शिक्षा दी जाती थी। कुछ स्त्रियाँ साहित्य, धर्मशास्त्र, गृहशास्त्र, संगीत इत्यादि में निपुण थीं, जिनमें नूरजहाँ, रजिया बेगम, जहाँआरा, गुलबदन बेगम आदि प्रमुख हैं।

12. व्यावसायिक शिक्षा–मध्यकाल में व्यावसायिक शिक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया था। जीविका उपार्जन सम्बन्धी शिक्षा के लिए मुहम्मद तुगलक ने अनेक कारखानों की स्थापना की थी, जो अकबर के समय दीवाने वयूतात के अधीन थे। इन कारखानों में चित्रकला, सुनारगिरी, वस्त्र बनाना, दरी और परदे बनाना, अस्त्र-शस्त्र बनाना, दर्जी का काम, जूते बनाना, मलमल तैयार करना आदि काम सिखाए जाते थे।

13. सैन्य शिक्षा-राज्य के सैनिकों द्वारा बालकों को सैन्य शिक्षा दी जाती थी। इसके द्वारा वे देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। इस युग में सैनिक विद्यालयों की स्थापना नहीं हो पाई थी। बालकों को गोली चलाने और हाथियों पर बैठकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी। |

14. ओषधिशास्त्र की शिक्षा–मध्यकाल में ओषधिशास्त्र की शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन दिया गया था। ओषधिशास्त्र की संस्कृत की पुस्तकों का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। अनेक मुस्लिम संस्थाओं में इस प्रकार की शिक्षा दी जाती थी।

15. ललित कलाओं की शिक्षा-मध्यकाल में भवन-निर्माण कला, चित्रकला, नृत्यकला और संगीत के प्रशिक्षण के लिए अनेक सुविधाएँ प्राप्त थीं। इन सभी कलाओं को राजाओं एवं अमीरों का संरक्षण प्राप्त था। शाहजहाँ भवन-निर्माण कला में विख्यात था। जहाँगीर चित्रों का पारखी था और अकबर कुशल संगीतज्ञ था।

6902.

मुस्लिम काल में शिक्षा का प्रारम्भ किस संस्कार से होता था?

Answer»

मुस्लिम काल में शिक्षा का प्रारम्भ बिस्मिल्लाह संस्कार से होता था।

6903.

मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?

Answer»

मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को ‘मुस्लिम शिक्षा के नाम से भी जाना जाता है।

6904.

मध्यकाल में भारत में किनका शासन था ?

Answer»

मध्यकाल में भारत में मुख्य रूप से मुस्लिम शासकों का शासन था।

6905.

मध्यकालीन शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।

Answer»

भारतीय शिक्षा के मध्यकाल को मुस्लिम अथवा इस्लामी शिक्षा का काल कहते हैं। 712 ई० से भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए और प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने का प्रयत्न आरम्भ हो गया। 1206 ई० में भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो गई। इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक व औरंगजेब जैसे शासकों ने भारतीय शिक्षा-प्रणाली को समूल नष्ट करने का भरसक प्रयास किया। परिणामस्वरूप शिक्षा-प्रणाली का स्वरूप बिल्कुल बदल गया और भारत में एक नई शिक्षा-प्रणाली का विकास हुआ। इसे मध्यकालीन शिक्षा के नाम से जाना जाता है। मध्यकालीन शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे

⦁    इस्लाम धर्म का प्रचार करना।
⦁    ज्ञानार्जन करना।
⦁    नैतिकता का विकास करना, यद्यपि इस काल की नैतिकता प्राचीनकाल से भिन्न थी।
⦁    शिक्षा के द्वारा ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करना, जिससे इस्लामी शासन भारत में स्थायी रूप ले सके और उसके विरोधियों का शासन न हो सके।
⦁    व्यक्ति का चरित्र-निर्माण करना।
⦁    भौतिक उन्नति करना और सांसारिक वैभव प्राप्त करना।
⦁    मुस्लिम सिद्धान्तों, कानूनों एवं सामाजिक प्रथाओं का विकास

6906.

प्राचीन व मध्यकालीन शैक्षिक विशेषताओं की तुलना निम्न बिन्दुओं के आधार पर कीजिए-(i) शिक्षा का उद्देश्य,(i) पाठ्यक्रम,(ii) शिक्षा के केन्द्र।

Answer»

(i) शिक्षा का उद्देश्य

1. प्राचीन काल में भारतीय समाज आदर्शवादी था जिसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान तथा अनुभव को अर्जित करना था, जबकि इसके विपरीत मध्यकाल में भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों की निर्धारण इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार होने के कारण ज्ञान का अधिक-से-अधिक प्रसार करना था।
2. प्राचीन काल में भारतीय समाज धर्मप्रधान था जिस कारण भारतीय शिक्षा भी धार्मिकता की और उन्मुख थी। शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वर-भक्ति को विकसित करना था। इसके विपरीत मध्य काल में भारतीय शासृक मुसलमान थे और अधिकांश भारतीय जनता हिन्दू थी। अत: मुस्लिम शासकों ने भारत में इस्लाम धर्म के प्रचार व प्रसार हेतु शिक्षा को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया तथा इस्लाम धर्म के नियमों के अनुसार ही छात्रों में इस्लाम धर्म की प्रवृत्ति को गति देने हेतु शैक्षणिक गतिविधियों को प्रचलित किया।

(ii)पाठ्यक्रम

प्राचीन तथा मध्यकाल में पाठ्यक्रम को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था—

1. प्राथमिक स्तर का पाठ्यक्रम

प्राचीन काल में प्राथमिक शिक्षा की समयावधि 6 वर्ष की होती थी तथा 6 से 11 वर्ष के आयु वर्ग के बालकों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा हेतु सुयोग्य माना जाता था। प्राथमिक शिक्षा मौखिक होती थी जिसमें बालकों को वैदिक मन्त्रों के उच्चारण का अभ्यास कराया जाता था। इसके उपरान्त छात्र पढ़ना-लिखना व व्याकरण सीखते थे। प्राथमिक स्तर की शिक्षा में सामान्य या प्रारम्भिक भाषा विज्ञान, प्रारम्भिक व्याकरण, प्रारम्भिक छन्द शास्त्र तथा प्रारम्भिक गणित आदि विषय सम्मिलित थे।

मध्ये काल में प्राश्चमिक शिक्षा की आयु 4 वर्ष,4 माह तथा 4 दिन निर्धारित की गई थी। बालकों को इस आयु सीमा को प्राप्त करने के अवसर पर एक संस्कार या धार्मिक रस्म पूर्ण करनी होती थी; जिसे ‘बिस्मिल्लाह-खानी’ केहा जाता था। इस काल में प्राथमिक स्तर की शिक्षा मौखिक विधि द्वारा ही प्रदान की जाती थी। मौलवियों द्वारा सम्बन्धित विषय को निरन्तर अभ्यास द्वारा कंठस्थ करवा दिया जाता था। इसके साथ ही लकड़ी की तख्तीपर लेखन का अभ्यास भी करवाया जाता था। साधारण वर्ग के परिवारों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मुख्य रूप से पढ़ने-लिखने तथा प्रारम्भिक अंकगणित की ही शिक्षा दी जाती थी। मौखिक रूप से कुरान शरीफ की आयतों को सही उच्चारण में कंठस्थ करवाया जाता था। इसके उपरान्त लेखन, व्याकरण तथा फारसी भाषा का ज्ञान प्रदान किया जाता था।

बच्चों के चरित्र-निर्माण तथा साहित्यिक बोध के विकास का भी समुचित ध्यान रखा जाता था। प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए महापुरुषों की कथाएँ तथा शेख सादी की ‘बोस्ताँ एवं गुलिस्ताँ’ जैसी पुस्तकों को पढ़ाया जाता था। इनके साथ-ही-साथ कुछ प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय प्रेमकाव्यों को भी रुचिपूर्वक पढ़ाया जाता था। इसे वर्ग के मुख्य काव्य-संग्रह थे-लैला-मजनू, युसूफ-जुलेखा तथा सिकन्दरनामा आदि। जहाँ तक शाही-परिवारों तथा कुछ सम्पन्न परिवारों के बच्चों की शिक्षा का प्रश्न है, उसकी अलग से व्यवस्था होती थी तथा उन्हें व्यक्तिगत रूप से महत्त्वपूर्ण विषयों का ज्ञान प्रदान किया जाता था।

2. उच्च स्तर का पाठ्यक्रम 

प्राचीनकालीन उच्चस्तरीय शिक्षा-प्राचीनकालीन भारतीय शैक्षिक-व्यवस्था में उच्चस्तरीय शिक्षा की अलग से व्यवस्था थी। इस शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता था। वर्ण-व्यवस्था की मान्यताओं के अनुसार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग के बालकों को ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में विविधता तथा विकल्प उपलब्ध थे। आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए छात्रों द्वारा वेद, वेदांग, पुराण, दर्शन, उपनिषद् आदि का अध्ययन किया जाता था। लेकिन ज्ञान अर्जित करने के लिए छात्रों द्वारा मुख्य रूप से भौतिकशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास आदि विषयों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता था। उच्चस्तरीय शिक्षा का स्वरूप भी मौखिक ही था। गुरु द्वारा दिए गए व्याख्यान के साथ ही चिन्तन, मनन, स्वाध्याय तथा पुनरावृत्ति के माध्यम से अर्जित ज्ञान को आत्मसात् किया जाता था। मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च-स्तरीय शिक्षा की अवधि सामान्य रूप से 10-12 वर्ष हुआ करती थी। इस काल में भी उच्च-स्तरीय शिक्षा के दो प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था थी। एक वर्ग के पाठ्यक्रम में धार्मिक विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती थी तथा दूसरे वर्ग के पाठ्यक्रम में लौकिक विषयों की शिक्षा का प्रावधान था। इसके साथ-ही-साथ इस्लाम धर्म के इतिहास, इस्लामी-कानून तथा इस्लामी सामाजिक मूल्यों एवं परम्पराओं का भी व्यवस्थित अध्ययन किया । जाता था। धार्मिक पाठ्यक्रम के अतिरिक्त लौकिक पाठ्यक्रम में सर्वप्रथम अरबी-फारसी भाषा साहित्य तथा व्याकरण का व्यापक अध्ययन किया जाता था। मध्यकाल के उच्च स्तर के मुख्य विषय थे-भूगोल, गणित, कृषि, अर्थशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन घेवं नीतिशास्त्र, कानून तथा यूनानी-चिकित्सा पद्धति कहा जा सकता है। कि मध्यकालीन उच्च शिक्षा भी मौख़िक ही थी। सभी शिक्षक अपने विषय को व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत करते थे तथा छात्र उसे सुनकर संमझ लेते थे। इसके अतिरिक्त संगीत, चित्रकला तथा चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों की शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रयोगात्मक विधि को भी अपनाया जाता था।

3. व्यावसायिक स्तर का पाठ्यक्रम

शिक्षा का एक पक्ष व्यावसायिक शिक्षा भी होता था। व्यावसायिक शिक्षा के आधार पर ही प्राचीन भारत अपने आर्थिक जीवन और वैभव का निर्माण करने में सफल हुआ था। अतः प्राचीनकालीन व्यावसायिक शिक्षा को मुख्य रूप से चार भागों में बाँटा था-सैन्य शिक्षा, वाणिज्य सम्बन्धी शिक्षा, चिकित्साशास्त्र सम्बन्धी शिक्षा, कला-कौशल सम्बन्धी शिक्षा तथा पुरोहित शिक्षा।

मध्यकालीन भारतीय शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य लौकिक उन्नति एवं प्रगति को निर्धारित करना था। अतः इस काल की शिक्षा-व्यवस्था में व्यावसायिक शिक्षा को भी समुचित महत्त्व दिया गया था। मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में व्यावसायिक शिक्षा के रूप में मुख्य रूप से हस्तकलाओं की शिक्षा, चिकित्सा सम्बन्धी शिक्षा, सैन्य शिक्षा तथा ललित-कलाओं की शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी।

(iii) शिक्षा केन्द्र

प्राचीन काल में शिक्षा के केन्द्र–टोल, चारण, घटिका, परिषद्, गुरुकुल, विद्यापीठ, विशिष्ट विद्यालय, मन्दिर, महाविद्यालय, ब्राह्मणीय महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय आदि थे। इसके विपरीत मध्य काल में शिक्षा के केन्द्र-मकतब, मदरसा, दरगाहें, खानकाहें, कुरान स्कूल, फारसी स्कूल, फारसी व कुरान स्कूल तथा अरबी भाषा के स्कूल आदि थे।

6907.

मध्यकालीन भारतीय समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक का क्या स्थान था ?

Answer»

मध्यकालीन भारतीय समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की स्थिति को स्पष्ट करते हुए जाफर ने लिखा है, “शिक्षकों को समाज में उच्च स्थान था, यद्यपि उनका वेतन अल्प था, तथापि उनको सार्वजनिक सम्मान और विश्वास प्राप्त था।” भारतीय समाज में सदैव ही शिक्षक को समुचित सम्मान दिया जाता रहा है। मध्यकाल भी इसका अपवाद नहीं था। वास्तव में शिक्षा प्रदान करना एक महान् कार्य माना जाता था तथा यह सार्वजनिक धारणा थी कि शिक्षक चरित्रवान व्यक्ति होते हैं। डॉ० केई ने भी मध्यकालीन समाज में शिक्षक की स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा है, “शिक्षकों की सामाजिक स्थिति उच्च थी और वे साधारण तथा चरित्रवान मनुष्य थे, जिनको व्यक्तियों का विश्वास और सम्मान प्राप्त था।”

6908.

मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था में अनुशासन एवं दण्ड की क्या स्थिति थी ?

Answer»

शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुशासन का विशेष महत्त्व है। अनुशासन बनाए रखने का एक प्रचलित उपायु दण्ड का प्रावधान भी है। मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुशासन बनाए रखने के लिए कठोर शारीरिक दण्ड का प्रावधान था। इस काल की दण्ड-व्यवस्था को स्पष्ट करते हुए एडम ने लिखा है,“छात्र को मुर्गा बनाना, उसकी पीठ या गर्दन पर निश्चित समय के लिए ईंट या लकड़ी को भारी टुकड़ा रखना, उसे पैरों के बल वृक्ष की शाखा से लटकाना, उसे बन्द करना, उसे भूमि पर पेट के बल लिटाकर शरीर को निश्चित दूरी तक घसीटना शारीरिक दण्ड के कुछ उदाहरण थे। इस प्रकार के कठोर दण्डों के प्रावधान के कारण मध्यकाल में शैक्षिक अनुशासनहीनता की समस्या प्रायः गम्भीर नहीं थी।

6909.

मध्यकालीन शिक्षा के सन्दर्भ में प्राथमिक शिक्षा तथा मकतब का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।

Answer»

मध्य युग की प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं

1. मकतब का अर्थ-इस युग में प्राथमिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी, जो अधिकतर मस्जिदों के साथ जुड़े होते थे। मकतब शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा के कुतुब’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है, ‘उसने लिखा। अतः मकतब लिखना-पढ़ना सीखने वाले स्थान को कहा जाता है। धनी लोग अपने बालकों की प्राथमिक शिक्षा का प्रबन्ध मौलवियों द्वारा घर पर ही करते थे।
2. प्रवेश-मकतब में बालकों को इस्लामी ढंग से एक प्रकार की रस्म पूरी कराकर प्रविष्ट किया जाता था। इस रस्म को ‘बिस्मिल्लाह’ कहते थे। बालक की चार वर्ष, चार माह और चार दिन की आयु पूरी करने पर बिस्मिल्लाह की रस्म पूरी की जाती थी। इस अवसर पर उसे कुरान की भूमिका, 55वां तथा 87वाँ अध्याय पढ़ाया जाता था। यदि बालक कुरान की आयतों को दोहराने में सफल नहीं होता था तो उसका बिस्मिल्लाह कहना ही पर्याप्त समझा जाता था।
3. पाठ्यक्रम-मकतबों के पाठ्यक्रम में विभिन्नता पाई जाती है। उन्हें लिपि का ज्ञान कराया जाता था और वर्णमाला कण्ठस्थ कराई जाती थी। बालकों को कुरान का तीसवाँ अध्याय पढ़ाया जाता था। सुन्दर लेख और उच्चारण की शुद्धता को विशेष महत्त्व दिया जाता था। पाठ्यक्रम में साधारण गणित, फारसी एवं व्याकरण की शिक्षा सम्मिलित थी। इसके अतिरिक्त बालकों को पैगम्बरों की कहानियाँ, मुस्लिम फकीरों की कथाएँ एवं फारसी कवियों की कुछ कविताओं का ज्ञान कराया जाता था। उन्हें लेखन, बातचीत का ढंग आदि व्यावहारिक बातों की भी शिक्षा दी जाती थी।
4. शिक्षण विधि-मकतबों में मौखिक शिक्षण विधि के प्रयोग से बालकों को शिक्षा दी जाती थी। बालकों को कलमा एवं कुरान की आयतें रटनी पड़ती थीं। कक्षा के सभी छात्र एक साथ पहाड़े बोलकर कण्ठस्थ करते थे। प्रेरम्भ में सरकण्डे की कलम से तख्ती पर लिखना सिखाया जाता था और बाद में कलम से कागज पर लिखना सिखाया जाता था।

6910.

मकतब क्या है?

Answer»

मकतब प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्थाएँ हैं।

6911.

बौद्धकालीन शिक्षा (बौद्ध शिक्षा) तथा मुस्लिम शिक्षा (मध्यकालीन शिक्षा) में अन्तर बताइए।

Answer»

बौद्ध-शिक्षा तथा मुस्लिम अर्थात् मध्यकालीन भारतीय शिक्षा में मुख्य अन्तर इस प्रकार थे|

⦁    बौद्ध-शिक्षा बौद्ध धर्म एवं दर्शन पर आधारित थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा इस्लाम धर्म की पोषक थी।
⦁    बौद्ध-शिक्षा का माध्यम पालि भाषा थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा का माध्यम अरबी-फारसी भाषा थी।
⦁    बौद्ध-शिक्षा में अनुशासन की कठोर व्यवस्था नहीं थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा में कठोर अनुशासन-व्यवस्था को लागू किया गया था। इसके लिए दण्ड का भी प्रावधान था।
⦁    बौद्धकालीन शिक्षा बौद्ध मठों तथा कुछ अन्य संस्थानों के माध्यम से प्रदान की जाती थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा मकतबों, मदरसों तथा खागाहों के माध्यम से दी जाती थी।
⦁    बौद्धकालीन शिक्षा प्रारम्भ करते समय प्रव्रज्या संस्कार सम्पन्न किया जाता था, जबकि मध्यकालीन शिक्षा ‘बिस्मिल्लाह-खानी’ नामक रस्में से प्रारम्भ होती थी।
⦁    बौद्ध-शिक्षा का परम उद्देश्य निर्माण प्राप्ति था, जबकि मध्यकालीन शिक्षा में लौकिक उन्नति का अधिक महत्त्व दिया जाता था।

6912.

मुस्लिम शिक्षा कितने स्तरों में विभाजित थी ?

Answer»

मध्यकालीन भारतीय शिक्षा के मुख्य रूप से दो स्तर थे—

⦁    प्राथमिक शिक्षा तथा
⦁    उच्च शिक्षा।

6913.

मध्य युग में साहित्य में निष्णात छात्र को कहा जाता था(क) आलिम(ख) फाजिल(ग) कामिल(घ) स्नातक

Answer»

सही विकल्प है (ग) कामिल

6914.

तर्क और दर्शनशास्त्र में प्रबुद्ध छात्रों को क्या उपाधि दी जाती थी ?(क) फाजिले(ख) आलिम(ग) मनसबदार(घ) कामिल

Answer»

सही विकल्प है (क) फाजिल

6915.

मध्यकाल में प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र थे ?(क) मदरसा(ख) मकतब(ग) खानकाह(घ) दरगाह

Answer»

सही विकल्प है  (ख) मकतब

6916.

मध्यकालीन भारत में उच्च मुस्लिम शिक्षा के केन्द्रों को कहा जाता था?(क) मकतब(ख) मदरसा(ग) खानकाह(घ) दरगाह

Answer»

सही विकल्प है (ख) मदरसा

6917.

मध्यकाल में शिक्षा की प्रगति किस बादशाह के काल में सर्वाधिक हुई?(क) फिरोज तुगलक(ख) हुमायूं(ग) शेरशाह(घ) अकबर

Answer»

सही विकल्प है (घ) अकबर

6918.

मध्यकाल में शिक्षा का प्रबन्ध व संरक्षण का दायित्व किस पर था?(क) राज्य पर ,(ख) मन्त्रिपरिषद् पुर(ग) सुल्तान पर,(घ) स्थानीय लोगों पर

Answer»

सही विकल्प है  (क) राज्य पर

6919.

“मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर, अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।” यह कथन किसका है?(क) डॉ० केई का(ख) डॉ० जाकिर हुसैन का(ग) डॉ० यूसुफ हुसैन का(घ) इनमें से किसी को नहीं

Answer»

सही विकल्प है (क) डॉ० केई का
 

6920.

राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान के मुख्य लक्ष्य क्या हैं ?

Answer»

भारत में सन् 1991 में स्थापित ‘राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान का मुख्य लक्ष्य समस्त प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को साक्षर बनाना तथा पर्याप्त जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करना तथा जीवन के प्रति जागरूक बनाना है।

6921.

सामाजिक शिक्षा के क्षे उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।

Answer»

1. मानसिक एवं बौद्धिक विकास :
राष्ट्र की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि उसके नागरिकों का मानसिक एवं बौद्धिक विकास हो। इसीलिए प्रौढ़ शिक्षा में मानसिक एवं बौद्धिक विकास पर बल दिया गया है।
2. व्यावसायिक शिक्षा और आर्थिक समृद्धि :
प्रौढ़ शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को व्यावसायिक शिक्षा देकर उन्हें जीविकोपार्जन के योग्य बनाना तथा आर्थिक समृद्धि के योग्य बनाना है।

6922.

स्त्री-शिक्षा प्रसार का समाज में स्त्रियों की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है?

Answer»

स्त्री-शिक्षा प्रसार से समाज में नारी-सशक्तिकरण को बल मिलता है।

6923.

मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी ?

Answer»

मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की स्थिति दयनीय थी।

6924.

परिवार में माता का योग्य एवं सुशिक्षित होना क्यों आवश्यक है?

Answer»

माता योग्य एवं सुशिक्षित है तो वह अपने बच्चों को भी योग्य एवं सुशिक्षित बना सकती है।

6925.

सामाजिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं। इसके संसाधनों का वर्णन कीजिए।

Answer»

प्रौढ़ स्त्री-पुरुष को साक्षरता तथा जीवन-उपयोगी ज्ञान प्रदान करने की व्यवस्था को सामाजिक शिक्षा कहा जाता है। वास्तव में सामाजिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा का ही अधिक विकसित तथा विस्तृत रूप है। सामाजिक शिक्षा में जीवन के सामाजिक पक्ष को समुचित महत्त्व दिया जाता है।
सामाजिक शिक्षा के माध्यम से व्यक्तियों में नागरिकता की चेतना का निर्माण तथा सामाजिक सुदृढ़ता का विकास किया जाता है। सामाजिक शिक्षा के प्रमुख संसाधन हैं। सामाजिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, रात्रि पाठशालाएँ, व्याख्यान, समाचार-पत्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन, चलचित्र तथा प्रदर्शनियाँ।

6926.

सामाजिक शिक्षा (प्रौढ शिक्षा) से आप क्या समझते हैं? सामाजिक शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।यासामाजिक शिक्षा का प्रमुख कार्यक्रम क्या है? 

Answer»

समाज या प्रौढ़ शिक्षा का अर्थ
प्रौढ़ शिक्षा या सामाजिक शिक्षा यथार्थ में वह अंशकालिक शिक्षा है, जिसे व्यक्ति अपना काम करते समय प्राप्त करता है। संकुचित अर्थ में सामाजिक शिक्षा का आशय निरक्षर को साक्षर बनाना है। जिन वयस्कों की आयु 18 वर्ष से अधिक है और उन्होंने किसी कारण से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है, उन्हें साक्षर बनाना ही प्रौढ़ शिक्षा है।
परन्तु अब प्रौढ़ शिक्षा की अवधारणा को व्यापक रूप दे दिया गया है तथा वह साक्षरता प्रदान करने तक सीमित नहीं रह गयी है। अब प्रौढ़ शिक्षा को ‘सामाजिक शिक्षा’ के रूप में जाना जाता है तथा इस शिक्षा के अन्तर्गत प्रौढ़ व्यक्तियों को सम्पूर्ण जीवन को उन्नत बनाने के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान किया जाता है। प्रौढ़ शिक्षा या सामाजिक शिक्षा का वास्तविक अर्थ स्पष्ट करते हुए मौलाना आजाद ने लिखा है “सामाजिक शिक्षा से हमारा तात्पर्य सम्पूर्ण मनुष्य की शिक्षा से हैं। वह उसे साक्षरता प्रदान करेगी, जिससे उसे संसार का ज्ञान प्राप्त हो सके।
वह उसे यह बताएगी कि किस प्रकार वह अपने को वातावरण से सन्तुलित कर सके और प्राकृतिक परिस्थितियों का, जिनमें वह रहती है, उपयोग कर सके। इसके द्वारा। उसको कुशलताओं तथा उत्पादन-विधियों का समुचित ज्ञान देना है, जिनसे वह आर्थिक उन्नति कर सके। इसके द्वारा उसे स्वास्थ्य के प्रारम्भिक विषयों का ज्ञान व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टिकोण से देना है, जिससे उसका पारिवारिक जीवन स्वस्थ और उन्नतिशील बने। अन्त में वह उसे नागरिकता की शिक्षा दे, जिससे शान्ति और समृद्धि हो।”

हुमायूँ कबीर ने लिखा है
“समाज शिक्षा को अध्ययन के एक प्रकार के पाठ्यक्रम के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसका उद्देश्य लोगों में नागरिकता की चेतना उत्पन्न करना है और उनमें सामाजिक सुसंगठन की भावना की वृद्धि की जाती है। समाज शिक्षी बड़ी आयु के लोगों को केवल अक्षर ज्ञान कराकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाती, बल्कि इसका लक्ष्य सामान्य जनता में एक सुनिश्चित समाज का निर्माण करना रहता है।
इसके स्वाभाविक परिणाम के रूप में समाज शिक्षा का लक्ष्य यह रहता है कि लोगों में व्यक्तिगत रूप से और समाज के सदस्य होने के नाते अपने अधिकारों और कर्तव्यों की सचेष्ट भावना उत्पन्न की जाए।” इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रौढ़ शिक्षा का अर्थ देश के प्रौढ़ नागरिकों को ऐसी शिक्षा देना है जिससे उन्हें प्रगतिवादी समाज में भली प्रकार समायोजन स्थापित करने में सुविधा हो और वे राष्ट्र की उन्नति में योगदान दे सकें। सामाजिक या प्रौढ़ शिक्षा के उद्देश्य सामाजिक या प्रौढ़ शिक्षा देश के उत्थान और प्रगति के लिए अत्यन्त उपयोगी है। इसके प्रमुख उद्देश्य अग्रलिखित हैं

1. मानसिक एवं बौद्धिक विकास :
राष्ट्र की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि उसके नागरिकों का मानसिक एवं बौद्धिक स्तर उच्च हो। इसी कारण प्रौढ़ शिक्षा में मानसिक एवं बौद्धिक विकास पर विशेष बल दिया गया है।
2. व्यावसायिक शिक्षा और आर्थिक समृद्धि :
प्रौढ़ शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को व्यावसायिक शिक्षा देकर उन्हें जीविकोपार्जन के योग्य बनाना तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाना है।
3. सामाजिक भावना का विकास :
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बिना समाज के मनुष्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है। इसलिए उद्देश्य समाज शिक्षा द्वारा प्रौढ़ों में सामूहिक रूप से कार्य करने की भावना उत्पन्न की जाती है। उनमें एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सहानुभूति, दया, आदर के भाव उत्पन्न करना तथा सहयोग से रहना और कार्य करना एवं प्रशिक्षण देना सामाजिक शिक्षा का एक आवश्यक अंग है।
4. नागरिकता की शिक्षा :
सामाजिक शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को उनके अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान कराना है, जिससे वे अपने देश में लोकतन्त्र को सुदृढ़ और स्थायी बना सकें।
5. आध्यात्मिक विकास :
देश के नागरिकों में सत्य, अहिंसा, प्रेम, सदाचार आदि की भावनाओं को जाग्रत करके उन्हें सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की अनुभूति करने में सहायता करना भी सामाजिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।
6. स्वास्थ्य सम्बन्धी बातों का ज्ञान :
सामाजिक शिक्षा का उद्देश्य प्रौढ़ नागरिकों को स्वास्थ्य सम्बन्धी उपयोगी नियमों का ज्ञान देना है, जिससे कि वे पूर्ण स्वस्थ होकर अपने-अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें।
7. राष्ट्रीय साधनों की सुरक्षा :
प्रत्येक व्यक्ति अपने राष्ट्र की एक महत्त्वपूर्ण इकाई होता है। इसलिए व्यक्तियों की प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा इस योग्य बनाया जाता है कि वे राष्ट्रीय साधनों का दुरुपयोग न करके उनकी सुरक्षा करें।
8. सांस्कृतिक ज्ञान :
प्रौढ़ शिक्षा का एक उद्देश्य नागरिकों को उनकी प्राचीन संस्कृति से परिचित कराना तथा सांस्कृतिको गौरव के प्रति उनके हृदय में प्रेम और आदर के भाव उत्पन्न करना है।
9. मनोरंजन के अवसर प्रदान करना :
सामूहिक गीत, नृत्य, कविता, कहानी, नाटक आदि के द्वारा नागरिकों को सुन्दर तरीके से मनोरंजन करने के योग्य बनाना भी प्रौढ़ शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रौढ़ शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करके उसे आदर्श एवं सफल नागरिक बनने में सहायता प्रदान करना है।

6927.

‘प्रौढ़ शिक्षा’ को ‘सामाजिक शिक्षा’ का रूप क्यों दिया गया है? स्पष्ट कीजिए।

Answer»

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले भारत में प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को साक्षरता प्रदान करने के लिए एक शिक्षा योजना को लागू किया गया था तथा उस योजना को प्रौढ़ शिक्षा कहा जाता था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के देश के जनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह महसूस किया गया कि प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को शिक्षित बनाने के लिए उन्हें साक्षरता प्रदान करना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उन्हें जीवनोपयोगी सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान करना आवश्यक है।
इस दृष्टिकोण को स्वीकार करते हुए प्रौढ़ शिक्षा हो । उत, तथा बहुपक्षीय रूप प्रदान करना अनिवार्य माना गया। इस प्रकार से विस्तृत एवं बहुपक्षीय प्रौढ़ शिक्षा को “सामाजिक शिक्षा का नाम दिया गया। स्पष्ट है” कि साक्षरता प्रदान करने के साथ-ही-साथ जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित विस्तृत जानकारी प्रदान करने वाली शिक्षा व्यवस्था को सामाजिक शिक्षा का नाम दिया गया।

6928.

किस काल में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा की दुर्दशा थी?

Answer»

मध्यकाल में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा की दुर्दशा थी।

6929.

मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी?

Answer»

भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो जाने से देशभर में हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों में परदा-प्रथा का बहुत अधिक प्रचलन हो गया तथा हिन्दुओं में बाल-विवाह की प्रथा भी आरम्भ हो गयी। अतः अल्प आयु की कुछ बालिकाएँ भले ही थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त कर लेती हों, लेकिन उच्च शिक्षा से वे वंचित ही रहती थीं।
केवल धनी परिवारों की स्त्रियाँ ही घर पर शिक्षा प्राप्त करती थीं, लेकिन जनसाधारण वर्ग की स्त्रियों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए रजिया बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, जेबुन्निसा, मुक्ताबाई आदि बहुत थोड़ी विदुषी महिलाएँ ही इस युग में हुईं। 18वीं शताब्दी में स्त्री-शिक्षा का इतना ह्रास हो गया कि 19वीं शताब्दी के आरम्भ में केवल एक प्रतिशत बालिकाएँ ही पढ़-लिख सकती थीं।

6930.

टिप्पणी लिखिए-स्त्री-शिक्षा तथा सहशिक्षा।

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स्त्री-शिक्षा तथा सहशिक्षा सहशिक्षा वह शिक्षा-व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत लड़के तथा लड़कियाँ एक स्थान पर एक समय, एक पाठ्यक्रम, एक विधि तथा एक प्रशासन के अन्तर्गत अध्ययन करते हैं।

सहशिक्षा की आवश्यकता तथा महत्त्व
⦁    सहशिक्षा के आधार पर शिक्षा के समान अवसर, सुविधाएँ तथा अधिकार मिलते हैं।
⦁    लड़के और लड़कियों में परस्पर सहयोग तथा विश्वास विकसित होता है।
⦁    एक-दूसरे के प्रति जिज्ञासाएँ सन्तुष्ट होती हैं।
⦁    स्त्री को स्वतन्त्र सामाजिक वातावरण, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा नागरिक अधिकार मिलते हैं, जो सहशिक्षा में ही सम्भव हैं।
⦁    स्त्री-शिक्षा का ‘अलग प्रबन्ध खर्चीला होता है। सहशिक्षा में बचत होती है।

सहशिक्षा का प्रसार
सहशिक्षा के प्रसार के लिए स्त्री-शिक्षा समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं
⦁    सहशिक्षा पर आधारित विद्यालय सुसंगठित हो।
⦁    सहशिक्षा के विद्यालयों की संख्या बढ़ाई जाए।
⦁    इस प्रणाली को प्राथमिक स्तर पर ही लागू किया जाए।
⦁    सहशिक्षा से सम्बन्धित विद्यालयों में संगीत, गृह विज्ञान, नृत्य, चित्रकला आदि विषयों की पूर्ण व्यवस्था हो।
⦁    इस प्रणाली की जानकारी अभिभावकों को दी जाए जिससे यह विकसित हो सके।

6931.

सामाजिक शिक्षा की समस्याओं के निराकरण के उपायों का उल्लेख कीजिए।

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सामाजिक शिक्षा की विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं।
⦁    केन्द्र व राज्य सरकारों को देश से निरक्षरता को मिटाने के लिए जनता के सहयोग से एक व्यापक अभियान चलाना चाहिए।
⦁    समाज शिक्षा का मुख्य उद्देश्य साक्षरता की वृद्धि के साथ ही प्रौढ़ों का सर्वांगीण विकास करना भी है। अत: निरक्षर, अर्द्ध-शिक्षित तथा नव-साक्षर प्रौढ़ों और विभिन्न आयु के वयस्कों की आवश्यकताओं तथा अभिरुचियों को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिए जो वयस्कों का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास करने में सुमर्थ हो सके।
⦁    प्रौढ़ शिक्षा के अन्तर्गत सबसे पहले प्रौढ़ों को पढ़ना और लिखना सिखाया जाए औंर जब उन्हें इनका पर्याप्त ज्ञान हो जाए तब मातृकला, इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणित, सामान्य विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, साहित्य, कृषि, पशुपालन आदि विषयों की शिक्षा दी जाए।
⦁    देश के अधिकांश ग्रामों में प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की जाए।
⦁    प्रौढ़ शिक्षा के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षित करने के लिए काफी संख्या में प्रशिक्षण विद्यालयों . की स्थापना की जाए।
⦁    यदि शिक्षण संस्थाओं के अध्यापक, विद्यार्थी, कार्यालयों के कर्मचारी और अन्य नि:स्वार्थी समाज सेवी ‘प्रत्येक पढ़ाये एक को’ (Each one, Teach one) का सिद्धान्त ग्रहण कर लें तो प्रौढ़ शिक्षा के लिए अध्यापकों की समस्या को स्वतः ही समाधान हो जाएगा।
⦁    प्रौढ़ों के लिए ऐसी रुचिपूर्ण और ज्ञानवर्द्धक शिक्षण-विधि अपनायी जाए, जो उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित कर सके।
⦁    प्रौढ़ शिक्षा साहित्य के निर्माण के लिए साहित्यकार और सरकार संयुक्त रूप से सहयोग करें ताकि उपयुक्त साहित्य का निर्माण विपुल मात्रा में तैयार हो सके।
⦁    समाज शिक्षा के प्रचार और प्रसार का उत्तरदायित्व किसी उपयुक्त संस्था को सौंपा जाना चाहिए, जो स्वतन्त्र रूप से समाज शिक्षा का विधिवत् संचालन कर सके।
⦁    भारतीय प्रौढ़ों के निराशावादी और रूढ़िवादी दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए चलचित्रों व प्रदर्शनियों को प्रबन्ध किया जाए।
उपर्युक्त उपायों को अपनाकर भारत में समाज शिक्षा का प्रसार व्यापक रूप में किया जा सकता है।

6932.

स्त्री-शिक्षा अथवा बालिका शिक्षा को आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण क्यों माना जाता है? याटिप्पणी लिखिए-नारी शिक्षा का महत्त्व।

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एक विद्वान का कथन है, एक लड़के की शिक्षा एक व्यक्ति की शिक्षा है, परन्तु एक लड़की की शिक्षा पूरे परिवार की शिक्षा है। प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट होता है कि बालिका-शिक्षा अधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में आज की बालिका सुशिक्षित है तो एक भावी परिवार उससे लाभान्वित होगा। सुशिक्षित गृहिणी अपने घर-परिवार की सुव्यवस्था बनाये रखती है तथा बच्चों को शिक्षित बनाने में भरपूर योगदान प्रदान कर सकती है। बालिकाओं की शिक्षा से समाज की कुरीतियों को समाप्त करने में योगदान प्राप्त होता है तथा सामाजिक उत्थान में सहायता प्राप्त होती है।

6933.

किस काल में महिलाएँ समान मंच पर पुरुषों से शास्त्रार्थ करती थीं?(क) वैदिक काल में(ख) पौराणिक काल में(ग) मध्य काल में(घ) किसी भी काल में नहीं

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सही विकल्प है  (क) वैदिक काल में

6934.

सामाजिक (प्रौढ) शिक्षा की समस्याएँ क्या हैं? इन समस्याओं के समाधान के उपाय बताइए।याभारतवर्ष में प्रौदों के लिए शिक्षा-प्रसार में क्या-क्या बाधाएँ हैं? याप्रौढ शिक्षा के प्रसार की बाधाओं को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए। 

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सामाजिक शिक्षा (प्रौढ़ शिक्षा) की मुख्य समस्याएँ
सामाजिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा के प्रचार के लिए यद्यपि व्यापक प्रयास किये जा रहे हैं, इस पर भी इसके प्रसार में अनेक बाधाएँ हैं। सामाजिक शिक्षा के प्रसार एवं सफलता के मार्ग में उत्पन्न होने वाली मुख्य समस्याओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. व्यापक निरक्षरता :
भारत में व्यापक निरक्षरता फैली हुई है। नगरों की अपेक्षा गाँवों में निरक्षरता का अधिक बोलबाला है। जब तक निरक्षरता की समस्या बनी रहेगी, तब तक देश की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रगति नहीं हो सकती और न ही प्रौढ़ों में नवचेतना उत्पन्न की जा सकती है।
2. आर्थिक समस्या :
भारत में सामाजिक शिक्षा के प्रसार के लिए एक लम्बी धनराशि की आवश्यकता है। भारत की वर्तमान जनसंख्या 121 करोड़ से भी अधिक्र है। इतनी विशाल ज़नसंख्या में प्रौढ़ों को साक्षर बनने के लिए इतने अधिक धन की आवश्यकता है, जिसे जुटाना सरकार के बस की बात नहीं है। इसके साथ ही प्रौढ़ों को साक्षर बनाने के लिए पर्याप्त अध्यापकों तथा समाज शिक्षा केन्द्रों की व्यवस्था करना भी एक कठिन कार्य है।
3. पाठ्यक्रम की समस्या :
सामाजिक शिक्षा की तीसरी समस्या पाठ्यक्रम का निर्धारण करने की है। सामाजिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के विषय में विद्वानों में परस्पर मतभेद हैं। प्रौढ़ों की रुचियाँ तथा आवश्यकताएँ बालकों की रुचियों तथा आवश्यकताओं से भिन्न होती हैं। ऐसी दशा में बालकों का पाठ्यक्रम प्रौढ़ों के लिए निर्धारित नहीं किया जा सकता।
कुछ प्रौढ़ लोग पूर्णतया निरक्षर होते हैं, कुछ अर्द्ध-शिक्षित तथा कुछ नव साक्षर इन सभी के लिए पृथक्-पृथक् पाठ्यक्रम की व्यवस्था करना एक कठिन कार्य है। इस प्रकार प्रौढ़ों की रुचियों के अनुकूल साहित्य का हमारे देश में पूर्णतया अभाव है और विभिन्न आयु के प्रौढ़ों के लिए पाठ्यक्रम का निर्धारण करना एक जटिल समस्या है।
4. योग्य अध्यापकों की कमी :
सामाजिक शिक्षा को । कार्यक्रम तभी सफल हो सकता है, जब कि वह प्रौढ़ मनोविज्ञान (Adult Psychology) के ज्ञाता अध्यापकों द्वारा संचालित हो, परन्तु हमारे देश में सामाजिक शिक्षा के क्षेत्र में अधिकतर प्राथमिक, माध्यमिक या अप्रशिक्षित अध्यापक ही कार्य कर रहे हैं। ये लोग सामाजिक शिक्षा की समस्याओं, उद्देश्यों तथा प्रौढ़ मनोविज्ञान से पूर्णतया अपरिचित होते हैं। ऐसी दशा में इनसे सफलतापूर्वक कार्य करने की आशा करना व्यर्थ है। सामाजिक शिक्षा को सफल बनाने के लिए लाखों प्रौढ़ मनोविज्ञान के ज्ञाता अध्यापकों की आवश्यकता होगी जिनकी पूर्ति करना एक कठिन कार्य है।
5. शिक्षा के साधनों की कमी :
सामाजिक शिक्षा के साधनों से तात्पर्य–वे समूह अथवा संस्थाएँ हैं, जो समाज शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों से सम्पर्क रखती हैं, उन्हें ज्ञान प्रदान करती हैं तथा उनकी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करती हैं। इस दृष्टि से उत्तम फिल्मों, चार्ट व चित्र तथा अन्य दृश्य सामग्री की परम आवश्यकता है, परन्तु इन साधनों को जुटाना कोई सरल कार्य नहीं है।
6. उपयुक्त साहित्य की कमी :
सामाजिक शिक्षा का उद्देश्य प्रौढ़ों को केवल साक्षर बनाना ही नहीं है, वरन् समाज को एक जागरूक तथा उत्तरदायित्वपूर्ण सदस्य बनाना है, परन्तु ऐसा करने के लिए उनके अनुकूल साहित्य की आवश्यकता नवचेतना भरने तथा उनके दृष्टिकोण को आलोचनात्मक बनाने के लिए एक श्रेष्ठ एवं प्रभावशाली साहित्य के सृजन की है, लेकिन साहित्य का निर्माण करने और उसके प्रकाशन की व्यवस्था करना भी एक जटिल समस्या है।
7. शिक्षण पद्धति की समस्या :
प्रौढ़ों की बुद्धि परिपक्व होती है और इस कारण उन्हें बालकों के समान नहीं पढ़ाया जा सकता। इसके अतिरिक्त जीवन तथा समाज के प्रति प्रौढ़ों का दृष्टिकोण समान नहीं होता है। प्रौढ़ समाज के पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं और उनके विरुद्ध कुछ सुनना नहीं चाहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रौढ़ों के लिए किसी उपयोगी शिक्षण-पद्धति का निर्माण करना एक कठिन कार्य है।
8. समाज शिक्षा केन्द्रों पर उपस्थिति की समस्या :
सामाजिक शिक्षा केन्द्रों पर प्रौढ़ प्रायः अनुपस्थित रहते हैं। इसका मूल कारण आलस्य एवं उदासीनता है। दूसरे प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों का वातावरण नीरस होता है। प्रौढ़ों की अनुपस्थिति में सामाजिक शिक्षा केन्द्रों पर आयोजित किये गये कार्यक्रमों का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता है।
9. सामाजिक शिक्षा के प्रति उत्तरदायित्व की समस्या :
सामाजिक शिक्षा की एक अन्य समस्या यह है कि सामाजिक शिक्षा के प्रसार का उत्तरदायित्व किसका है? केन्द्र सरकार ने इस उत्तरदायित्व का भार राज्य सरकारों पर डाल रखा है, लेकिन शिक्षा परिषद् और शिक्षा विभाग इसके प्रति पूर्ण उदासीन हैं। ऐसी दशा में सामाजिक उपेक्षा के प्रसार की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
10. प्रौढों के निराशावादी तथा रूढिवादी दृष्टिकोण की समस्या :
भारतीय प्रौढ़ निराशावादिता, रूढ़िवादिता तथा सन्देहों से ग्रस्त होता है। प्रायः प्रौढ़ सोचते हैं कि इतनी आयु बीत चुकी है, अब पढ़-लिखकर क्या होगा? यदि उनसे सामाजिक शिक्षा केन्द्र पर जाने का आग्रह किया जाता है तो वे कह देते हैं कि “बाबू जी बूढ़े तोते को पढ़ाकर क्या करोगे?” इसके अतिरिक्त वे शिक्षा को केवल जीविका का साधन मानते हैं।
अतः जब वे पढ़े-लिखे नौजवानों को बेरोजगार देखते हैं, तो वे शिक्षा के प्रति उदासीन हो जाते हैं। वास्तव में प्रौढ़ों का यह निराशावादी दृष्टिकोण सामाजिक शिक्षा के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनकर आता है।

6935.

अखिल भारतीय प्रौढ शिक्षा परिषद्’ की स्थापना कब हुई?(क) 1937 ई० में(ख) 1938 ई० में(ग) 1939 ई० में(घ) 1940 ई० में

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सही विकल्प है  (ग) 1939 ई० में।

6936.

सामाजिक शिक्षा का उद्देश्य है (क) शिक्षा प्रमाण-पत्र देना(ख) साक्षरता प्रदान करना(ग) जीवनोपयोगी ज्ञान देना(घ) मनोरंजन देना

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सही विकल्प है  (ग) जीवनोपयोगी ज्ञान देना

6937.

भारत में किस क्षेत्र (ग्रामीण अथवा नगरीय) के प्रौढ स्त्री-पुरुषों को सामाजिक शिक्षा की अधिक आवश्यकता है?

Answer»

भारत में ग्रामीण क्षेत्र के प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को सामाजिक शिक्षा की अधिक आवश्यकता है।

6938.

सामाजिक शिक्षा के पक्ष माने गये हैं(क) प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को साक्षर बनाना(ख) प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों में शिक्षित मस्तिष्क का विकास करना(ग) प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों में नागरिकता की भावना का विकास करना(घ) उपर्युक्त सभी

Answer»

सही विकल्प है  (घ) उपर्युक्त सभी

6939.

निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य⦁    सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को समाप्त करने के लिए स्त्री-शिक्षा अति आवश्यक है।⦁    कुछ अन्धविश्वास तथा सामाजिक रूढ़ियाँ स्त्री-शिक्षा के मार्ग में बाधक हैं।⦁    मध्यकाल में स्त्री-शिक्षा की सुव्यवस्था थी।⦁    ईसाई मिशनरियों ने स्त्री-शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान दिया है।⦁    वर्तमान समय में सहशिक्षा को प्रोत्साहन देकर स्त्री-शिक्षा का अधिक प्रसार किया जा सकता है।

Answer»

⦁    सत्य
⦁    सत्य
⦁    असत्य
⦁    सत्य
⦁    सत्य

6940.

भारत में प्रौढ शिक्षा का आरम्भ कब हुआ?(क) 1908 ई० में(ख) 1910 ई० में(ग) 1921 ई० में(घ) 1922 ई० में

Answer»

सही विकल्प है  (ख) 1910 ई० में

6941.

सामाजिक शिक्षा का प्रमुख कार्यक्रम क्या है?

Answer»

सामाजिक शिक्षा का प्रमुख कार्यक्रम समस्त प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को आधुनिक जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करना है।

6942.

निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य⦁    प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था को सामाजिक शिक्षा कहते हैं।⦁    केवल साक्षरता प्रदान करने से सामाजिक शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।⦁    सामाजिक शिक्षा के अन्तर्गत केवल व्यावसायिक शिक्षा ही प्रदान की जाती है।⦁    नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक शिक्षा पूर्णरूप से अनावश्यक है।⦁    सामाजिक शिक्षा के अन्तर्गत हर प्रकार का जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान किया जाता है।

Answer»

⦁    सत्य
⦁    सत्य
⦁    असत्य
⦁    असत्य
⦁    सत्य

6943.

विकास की किस अवस्था में सीखने की दर सर्वाधिक होती है ?

Answer»

विकास की शैशवावस्था में सीखने की दर सर्वाधिक होती है।

6944.

शैशवावस्था की मुख्य विशेषता है(क) नैतिक बोध की प्रधानता(ख) जटिल संवेगों का प्रदर्शन(ग) काम-प्रवृत्ति का प्रकाशन(घ) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रधानता

Answer»

(घ) अनुकरण द्वारा सीखने की प्रधानता

6945.

विकास की किस अवस्था में यौन-प्रवृत्ति सुप्तावस्था में होती है ?(क) शैशवावस्था(ख) बाल्यावस्था(ग) किशोरावस्था(घ) प्रौढ़ावस्था

Answer»

सही विकल्प है (ख) बाल्यावस्था

6946.

शैशवावस्था में सुचारु विकास के लिए किस बात का विशेष ध्यान रखना अनिवार्य है ?(क) आज्ञापालन(ख) अध्ययन(ग) नैतिकता(घ) पोषण

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सही विकल्प है (घ) पोषण

6947.

विकास की किस अवधि को प्रारम्भिक विद्यालय की आयु’ कहा जाता है ?(क) शैशवावस्था(ख) बाल्यावस्था(ग) किशोरावस्था(घ) प्रौढ़ावस्था

Answer»

सही विकल्प है  (ख) बाल्यावस्था

6948.

किशोरावस्था जीवन का(क) अधिक महत्त्वपूर्ण काल है(ख) महत्त्वपूर्ण काल है(ग) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण काल है(घ) कम महत्त्वपूर्ण काल है

Answer»

सही विकल्प है (ग) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण काल है

6949.

वीर पूजा की अवस्था कहलाती है(क) शैशवावस्था(ख) बाल्यावस्था(ग) किशोरावस्था(घ) प्रौढ़ावस्था

Answer»

सही विकल्प है  (ग) किशोरावस्था

6950.

विकास की किस अवस्था में शारीरिक परिवर्तनों से सम्बन्धित समस्याएँ प्रबल होती हैं ?(क) शैशवावस्था(ख) बाल्यावस्था(ग) किशोरावस्था(घ) युवावस्था

Answer»

सही विकल्प है (ग) किशोरावस्था