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7001.

अनुमोदन अभिप्रेरणा है(क) जन्मजात(ख) व्यक्तिगत(ग) सामाजिक(घ) इनमें से कोई नहीं

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सही विकल्प है (ग) सामाजिक

7002.

प्यास है(क) जैविक अभिप्रेरक(ख) मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरक(ग) व्यक्तिगत अभिप्रेरक(घ) अर्जित अभिप्रेरक

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सही विकल्प है  (क) जैविक अभिप्रेरक

7003.

अभिप्रेरणात्मक व्यवहार की व्याख्या मूल प्रवृत्तियों के आधार पर किसने की है?(क) वाटसन(ख) स्किनर(ग) मैक्डूगल(घ) वुण्ट

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सही विकल्प है (ग) मैक्डूगल

7004.

अर्जित प्रेरकों से क्या आशय है? मुख्य अर्जित प्रेरकों को सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।याअर्जित प्रेरक किन्हें कहते हैं? मुख्य व्यक्तिगत अर्जित प्रेरकों तथा सामाजिक अर्जित प्रेरकों को सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।

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अजित प्रेरक (Acquired Motives)
जन्मजात प्रेरकों के अलावा व्यक्ति में उसके समाज तथा पर्यावरण के प्रभाव से भी बहुत से प्रेरक विकसित होते हैं। इस प्रकार के प्रेरकों को जो समाज में रहकर अर्जित किये जाते हैं, अर्जित या सामाजिक प्रेरक कहकर पुकारा जाता है। इन प्रेरकों में मनुष्य के व्यवहार के वे चालक सम्मिलित हैं। जिन्हें वह शिक्षा या वातावरण के सम्पर्क से अपने जीवनकाल में आवश्यकतानुसार अर्जित करता है। अर्जित प्रेरकों का एक नाम गौण आवश्यकताएँ भी है, क्योकि इन्हें व्यक्ति सामाजिक समायोजन के लिए प्राप्त करता है; ये सार्वभौमिक (Universal) नहीं होते। अर्जित प्रेरक मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं – (अ) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा (ब) सामाजिक अर्जित प्रेरक। अब हम इनका अलग-अलग संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे –

(अ) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक
एन० एल० मस ने व्यक्तिगत अर्जित प्रेरकों को इस प्रकार समझाया है, “व्यक्तिगत प्रेरक वे प्रेरक हैं जो किसी विशेध संस्कृति में स्वयं प्रधान नहीं होते अपितु वे शारीरिक तथा सामान्य सामाजिक प्रेरकों से सम्बन्धित होते हैं। इनके विभिन्न प्रकारों का वर्णन निम्नलिखित है –

(1) जीवन लक्ष्य – हर व्यक्ति अपना एक जीवन-लक्ष्य निर्धारित करता है जो उसकी भावनाओं, विचारों, इच्छाओं, योग्यताओं, क्षमताओं तथा प्रेरणाओं पर आधारित होता है। लक्ष्य-निर्धारण के पश्चात् व्यक्ति उसे प्राप्त करने हेतु चेष्टाएँ करता है। व्यक्ति के जीवन की क्रियाएँ तथा व्यवहार इन्हीं जीवन-लक्ष्यों के अनुरूप होते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति का जीवन-लक्ष्य डॉक्टर बनना है तो वह ऐसी क्रियाएँ करेगा जो उसे डॉक्टर बनने में सहायता दे सकें।
(2) आकांक्षा-स्तर – प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वयं को जीवन के किसी अभीष्ट स्तर तक पहुँचाने की इच्छा होती है, यही आकांक्षा का स्तर (Level of Aspiration) कहलाता है। प्रत्येक व्यक्ति की आकांक्षा का स्तर भिन्न-भिन्न होता है। स्पष्ट रूप से यह आकांक्षा का स्तर व्यक्ति के लिए प्रेरक का कार्य करता है। जीवन में प्रगति करने के लिए अथवा महान् कार्य करने के लिए आकांक्षा-स्तर से अत्यधिक प्रेरणा प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ–12वीं की बोर्ड परीक्षा में प्रथम स्थान पाने की आकांक्षा वाला मेधावी विद्यार्थी अपने समस्त प्रयास उस ओर लगा देगा।
(3) मद-व्यसन – मद-व्यसन एक प्रबल अर्जित प्रेरक है। बहुत से व्यक्तियों में नशे के सेवन की प्रवृत्ति इतनी बढ़ जाती है कि वे उस विशेष नशे के बिना नहीं रह पाते। यह नशा उनके लिए एक अत्यधिक प्रबल प्रेरक का कार्य करता है, जिसके अभाव में उनका शारीरिक सन्तुलन समाप्त हो जाता है तथा वे अशान्ति एवं तनाव अनुभव करने लगते हैं। उदाहरण के लिए—बीड़ी सिगरेट, तम्बाकू, भाँग, चरस, गाँजा, अफीम, शराब और यहाँ तक कि चाय व कॉफी पीने की आदत डालना मद-व्यसन के अन्तर्गत आते हैं।
(4) आदत की विवशता – यदि किसी कार्य को नियमित रूप से बार-बार दोहराया जाए तो वे आदत बन जाते हैं। ये आदतें स्वचालित (Automatic) हो जाती हैं और एक विशिष्ट उत्तेजक आदत की प्रक्रिया को चालित कर देती हैं। उदाहरण के लिए-माना कोई व्यक्ति सुबह 4.30 बजे जागकर चाय पीता है तो इस क्रिया को बार-बार लगातार करने पर यह उसकी आदत बन जाएगी। आदत बन जाने के उपरान्त व्यक्ति उसी के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य हो जाता है।
(5) रुचि – रुचि अधिक अच्छी लगने की एक प्रवृत्ति है और प्रबल प्रेरक का कार्य करती है। व्यक्ति अपने चारों ओर के वातावरण में विविध प्रकार की वस्तुएँ पाता है, किन्तु सम्पर्क में रहकर वह किन्हीं विशेष वस्तुओं को अधिक पसन्द करने लगता है और उन्हें पाकर प्रसन्नता का अनुभव करता है। व्यक्ति की यह पसन्दगी या रुचि उन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि भिन्न हो सकती है जिसमें आयु के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। उदाहरणार्थ-एक बच्चा अखबार पाकर ‘बाल-स्तम्भ’ के अन्तर्गत कहानियाँ-कविताएँ आदि पढ़ने में रुचि दिखाता है, जबकि एक प्रौढ़ व्यक्ति देश-विदेश के समाचारों, लेखों या सम्पादकीय पढ़ने में रुचि प्रदर्शित करता है। स्पष्ट है कि रुचि के वशीभूत होकर व्यक्ति सम्बन्धित कार्य करने को बाध्य हो जाता। है। इस रूप को एक व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक के रूप में माना जाता है।
(6) अचेतन मन – व्यक्ति के व्यवहार को संचालित करने वाले कारकों में अचेतन मन की प्रेरणा भी विशिष्ट स्थान रखती है। व्यक्ति की अनेक कामनाएँ या इच्छाएँ, जिनकी सन्तुष्टि नहीं हो पाती है, अचेतन मन में दब जाती हैं; किन्तु दबकर भी नष्ट नहीं होतीं, अपितु वहीं से अपनी सन्तुष्टि का प्रयास करती हैं। मन के अचेतन स्तर में बैठी हुई बातें व्यक्ति के व्यवहार को अत्यधिक प्रेरित करती हैं। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को नदी में प्रवेश करने से बहुत डर लगता है। पूर्व का इतिहास जानने पर पता लगा है कि वह बचपन में नदी में डूबने से बचा था और नदी से वही डर उसके मन की गहराई में जाकर बैठ गया।
(7) मनोवृत्तियाँ – मनोवृत्ति (Attitude) एक आन्तरिक अवस्था है जो व्यक्ति को किसी कार्य को करने या छोड़ने के लिए प्रेरित करती है। यह रुचि से भिन्न प्रेरक है। रुचि में हम अपनी पसन्द के कार्यों में संलग्म हो जाते हैं, जबकि मनोवृत्ति हमारे भीतर पसन्द की वस्तुओं की ओर आकर्षण तथा नापसन्द की वस्तुओं की ओर विकर्षण उत्पन्न कर देती है। उदाहरणार्थ-यदि किसी व्यक्ति को शास्त्रीय गायन पसन्द है तो वह उस ओर आकर्षित होकर गायन सुनेगा, अन्यथा नहीं।
(8) संवेग – संवेगों को कार्य का प्रेरक माना जाता है। भय, क्रोध, प्रेम, दया, वात्सल्य, घृणा तथा करुणा आदि संवेग के उदाहरण हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति ऐसा व्यवहार प्रदर्शित कर सकता है। जिसकी वह सामान्यावस्था में कल्पना भी नहीं कर सकता। उदाहरणार्थ- आत्म-सम्मान पर चोट लगने से क्रुद्ध व्यक्ति अपने प्रियजन पर भी आघात कर सकता है।

(ब) सामाजिक अर्जित प्रेरक
अर्जित प्रेरकों के एक प्रकार को सामाजिक अर्जित प्रेरक कहते हैं। एक समाज के अधिकांश सदस्यों में ये प्रेरक लगभग समान रूप में पाये जाते हैं, परन्तु ये प्रेरके जन्मजात नहीं होते बल्कि समाज के सम्पर्क एवं प्रभाव के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं। मुख्य सामाजिक अर्जित प्रेरकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है.

(1) सामुदायिकता – सामुदायिकता प्रत्येक सामाजिक प्राणी में पाई जाने वाली सार्वभौमिक भावना तथा एक सामाजिक प्रेरक है। यह भावना ही व्यक्ति को सामाजिक कार्यों के लिए प्रेरित करती है और इस भाँति सामाजिक व्यवहार का प्रेरक बनती है। इसी प्रेरणा के कारण व्यक्ति समूह अथवा समुदाय में रहना पसन्द करता है तथा सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करता है। सामुदायिकता के कारण व्यक्ति अनेक कार्य एवं व्यवहार करने को बाध्य होता है।
(2) आत्म-गौरव या आत्म-स्थापन – समाज के सम्पर्क एवं अन्य व्यक्तियों के मध्य रहते हुए व्यक्ति में आदर पाने की भावना विकसित होती है। हर एक व्यक्ति अन्य लोगों की तुलना में अधिक अच्छा, अधिक सफल, उन्नत एवं प्रगतिशील रहना चाहता है। वह अपने लक्ष्य के मार्ग की बाधाओं को जीतकर गौरवान्वित होता है, यही आत्म-गौरव की प्रवृत्ति,है। समाज में कार्य करने वाली यह भावना व्यक्ति को ऐसे अनेक कार्यों की प्रेरणा प्रदान करती है जो उसे समाज में सम्मान एवं प्रतिष्ठा दिला सकें। एडलर नामक मनोवैज्ञानिक ने आत्म-स्थापन’ अथवा ‘शक्ति की इच्छा को प्रबल प्रेरक स्वीकार किया है।
(3) प्रशंसा तथा निन्दा – प्रशंसा एवं निन्दा भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल प्रेरक हैं। प्रशंसा एवं निन्दा व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार को पर्याप्त रूप में प्रभावित करते हैं। समाज में व्यक्ति के अच्छे कार्यों की प्रशंसा तथा बुरे कार्यों की निन्दा की जाती है। प्रशंसा प्राप्त करने की लालसा से मनुष्य अच्छे कार्यों को बार-बार दोहराने की प्रेरणा पाता है, जबकि वह निन्दनीय कार्यों को दोहराने का प्रयास नहीं करता।
(4) आत्म-समर्पण – आत्म-समर्पण अर्थात् अन्य व्यक्तियों की श्रेष्ठता के सम्मुख स्वयं को हीन बना देने की भावना भी सामाजिक व्यवहार को निर्धारित करने वाला एक मुख्य प्रेरक है। आत्म-समर्पण के प्रेरक हमें ऐसे कार्य करने के लिए बाध्य करते हैं जिनके माध्यम से हम स्वयं को अपने से श्रेष्ठ व्यक्तित्व के सम्मुख अधीन कर देते हैं तथा उनके विचार एवं मत के अनुसार कार्य करते हैं।
(5) आक्रामक-प्रवृत्ति – आक्रामक-प्रवृत्ति सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करने वाली एक अर्जित प्रवृत्ति है। यह शारीरिक आवश्यकताओं या कुण्ठाओं की सन्तुष्टि के अवरोध में पैदा होती है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि मानव न तो आक्रामक प्रवृत्ति का है और न ही शान्त प्रवृत्ति का। जब तक उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में अवरोध उत्पन्न नहीं होता वह शान्त दिखाई पड़ता है, किन्तु अवरोध उत्पन्न होते ही वह आक्रामक स्वरूप धारण कर लेता है। उदाहरणार्थ-न्यूगिनी के ‘अरापेश’ जाति के लोग तथा हिमालय की अनेक पहाड़ी जातियाँ एकदम शान्तिप्रिय हैं, जबकि ‘मुण्डुगुमार’ जाति के लोगों को बाल्यावस्था से ही युद्ध प्रिय बनाया जाता है। व्यक्ति के अनेक व्यवहार उसकी आक्रामक प्रवृत्ति के वशीभूत होकर भी सम्पन्न होते हैं। इस रूप में आक्रामक प्रवृत्ति भी एक सामाजिक अर्जित प्रेरक है।
(6) आत्म-प्रकाशन – समाज के प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसका रहन-सहन दूसरे व्यक्तियों से अच्छा हो और वह अन्य व्यक्तियों से अच्छा व्यक्त करे। जब कभी इसमें रुकावट पैदा होती है। तो वह क्रोधित हो जाता है और झुंझला उठता है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि आत्म-प्रकाशन की इच्छा-प्रभुत्व, नेतृत्व आत्म-प्रदर्शन एवं प्रतिष्ठा की भावना आदि में निहित होती है।
(7) अर्जनात्मकता – अर्जनात्मकता अर्थात् किसी वस्तु या वस्तुओं को संचित करने की प्रवृत्ति को भी एक सामाजिक अर्जित प्रेरक माना गया है। वास्तव में व्यक्ति में यदि किसी वस्तु को संचित या एकत्र करने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है, तो वह उसके लिए अधिक प्रयत्नशील हो जाता है। ज्यों-ज्यों वह सम्बन्धित वस्तुओं को संचित करता जाता है, त्यों-त्यों उसे विशेष सन्तोष की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति अभीष्ट वस्तु को संचित नहीं कर पाता तो वह परेशान हो उठता है तथा अधिक तत्परता से विभिन्न प्रयास करता है। इस रूप में अर्जनात्मकता को प्रबल सामाजिक अर्जित प्रेरक माना गया है। सामान्य रूप से धन सम्बन्धी अर्जनात्मकता प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान होती है।

7005.

मानसिक अस्वस्थता की रोकथाम के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प है –(क) समय पर डॉक्टरी जाँच(ख) आत्मसम्मान की, सन्तुष्टि(ग) बालक का उचित लालन-पालन(घ) इनमें से कोई नहीं

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 (ग) बालक का उचित लालन-पालन

7006.

प्रसिद्ध कहावत “अंगूर खट्टे हैं” किस मानसिक मनोरंजन से सम्बंधित है?(क) दमन(ख) प्रतिक्रिया निर्माण(ग) विस्थापन(घ) युक्तिकरण

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सही विकल्प है  (ख) प्रतिक्रिया निर्माण

7007.

सम्बन्धन प्रेरक है(क) जन्मजात(ख) व्यक्तिगत(ग) सामाजिक(घ) इनमें से कोई नहीं

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सही विकल्प है  (ग) सामाजिक

7008.

सभ्यता की परिभाषा लिखिए।

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क्लाइव बेल के शब्दों में, “वह (सभ्यता) मूल्यों के ज्ञान के आधार पर स्वीकृत किया गया तर्क और तर्क के आधार पर कठोर व भेदनशील बनाया गया मूल्यों का ज्ञान है।”

7009.

मैक्डूगल नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रेरित व्यवहार का क्या कारण बताया है?(क) वंशानुक्रम(ख) उत्तेजना(ग) मूल प्रवृत्तियाँ(घ) वातावरण

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सही विकल्प है  (ग) मूलप्रवृत्तियाँ

7010.

मूल प्रवृत्तियों तथा प्रतिक्षेप क्रियाओं में क्या अन्तर है?

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मूल प्रवृत्तियों तथा प्रतिक्षेप क्रियाओं में कुछ समानताएँ होती हैं; जैसे कि दोनों ही जन्मजात तथा स्वाभाविक होती हैं तथा दोनों को ही सीखने की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु इन दोनों प्रकार की क्रियाओं में पर्याप्त अन्तर भी हैं। इन दोनों के अन्तर का विवरण निम्नलिखित है

⦁    मूल प्रवृत्ति द्वारा प्रेरित व्यवहार का सम्बन्ध सम्पूर्ण शरीर से होता है, जबकि प्रतिक्षेप क्रिया द्वारा प्रेरित व्यवहार या क्रिया का सम्बन्ध शरीर के किसी एक अंग से ही होता है।
⦁    मूल प्रवृत्ति जन्य व्यवहार व्यापक होता है, जबकि प्रतिक्षेप क्रिया के परिणामस्वरूप होने वाला व्यवहार सीमित होता है।
⦁    मूल प्रवृत्ति जन्य व्यवहार में यदि व्यक्ति चाहे तो कुछ सीमा तक परिवर्तन कर सकता है, परन्तु प्रतिक्षेप क्रियाओं में व्यक्ति कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता।
⦁    मूल प्रवृत्ति-जन्य व्यवहार के तीन पक्ष अर्थात् ज्ञानात्मक, संवेगात्मक तथा क्रियात्मक पक्ष होते हैं, परन्तु प्रतिक्षेप क्रिया का केवल क्रियात्मक पक्ष ही प्रस्तुत होता है।
⦁    मूल प्रवृत्ति-जन्य व्यवहार पर प्रेरणा, रुचि तथा संवेग आदि कारकों को प्रभाव पड़ सकता है, परन्तु प्रतिक्षेप क्रियाओं पर इन कारकों का सामान्य रूप से कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

7011.

मूल प्रवृत्ति की एक समुचित परिभाषा लिखिए।

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“मूल प्रवृत्ति शब्द के अन्तर्गत हम उन सभी जटिल कार्यों को लेते हैं जो बिना पूर्व-अनुभव के उसी प्रकार से किये जाते हैं जिस प्रकार से उस लिंग और प्रजाति के समस्त सदस्यों द्वारा किये जाते हैं।”

7012.

मूल प्रवृत्ति से क्या आशय है?

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प्राणियों के व्यवहार की व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए प्रेरकों के साथ-ही-साथ मूल प्रवृत्तियों (Instincts) को भी जानना आवश्यक है। वास्तव में, प्राणियों का स्वभावगत व्यवहार मूल रूप से मूल प्रवृत्तियों द्वारा ही परिचालित होता है। मूल प्रवृत्तियाँ जन्मजात होती हैं तथा प्राणियों के स्वभाव में निहित होती हैं। मूल प्रवृत्तियों का सम्बन्ध संवेगों से होता है। मूल प्रवृत्तियों के अर्थ को मैक्डूगल ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “मूल प्रवृत्ति एक परम्परागत अथवा जन्मजात मनोशारीरिक प्रवृत्ति है, जो उसके अधिकारों के लिए यह निर्धारित करती है कि व्यक्ति किसी एक जाति की वस्तुओं को प्रत्यक्ष करेगा एवं उन पर ध्यान देगा, किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष के उपरान्त एक उद्वेगात्मक तीव्रता का अनुभव करेगा और उसके सम्बन्ध में एक विशेष प्रकार की क्रिया करेगा या कम-से-कम ऐसी क्रिया करने के आवेग का अनुभव करेगा।”

7013.

''मनोरचनाएँ समायोजन में सहायक हैं।” इस कथन की विवेचना दीजिए।

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व्यक्ति के जीवन तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए समायोजन का विशेष महत्त्व है। समायोजन के लिए निरन्तर प्रयास एवं उपाय करने आवश्यक होते हैं। समायोजन के लिए किये जाने वाले उपायों में मनोरंजनों (Mental Mechanisms) का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनोरचनाएँ कुछ ऐसी प्रक्रियाएँ होती हैं, और चेतन भी होती हैं तथा अचेतन भी। मनोरचनाओं के द्वारा व्यक्ति अपने अन्तर्द्वन्द्वों से छुटकारा प्राप्त करने का प्रयास करता है। मनोरचनाओं के माध्यम से व्यक्ति विभिन्न चिन्ताओं से भी अपना बचाव करता है। मनोरचनाएँ चिन्ता से केवल रक्षा ही नहीं करतीं बल्कि यह उन विधियों की ओर संकेत भी करता हैं जिनसे चिन्ता उत्पन्न करने वाले आवेगों की दिशा भी बदली जा सकती है। इस प्रकार मनोरचनाएँ अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त करके तथा चिन्ताओं से मुक्ति दिलाकर व्यक्ति के जीवन में समायोजन बनाये रखने में सहायक सिद्ध होती हैं। मैक्डूगल के अनुसार, “अधिक सामान्य जैविक दृष्टि से मनोरचनाएँ व्यक्ति की अपने वातावरण से समायोजन स्थापित करने में सहायता करती हैं।”

7014.

टिप्पणी लिखिए-मानसिक अस्वस्थता के उपचार की विधि : सम्मोहन।

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सम्मोहन (Hypnosis), अल्पकालीन प्रभाव वाली एक मनोवैज्ञानिक विधि है जिससे मनोरोग के लक्षण दूर होते हैं, रोग दूर नहीं होता। सम्मोहन क्रिया में चिकित्सक मानसिक रोगी को कुछ समय के लिए अचेत कर देता है और उसे एक आरामकुर्सी पर विश्रामपूर्वक बैठाता है। अब उसे किसी ध्वन्यात्मक या दृष्टात्मक उत्तेजना पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कहा जाता है। संसूचनाओं के माध्यम से उसे अचेत ही रखा जाता है। रोगी को निर्देश दिया जाता है कि वह अपनी स्मृति से लुप्त हो चुकी अनुभूतियों को कहे। अनुभूति के स्मरण-मात्र से ही रोगी का रोग दूर हो जाता है।

7015.

किन्हीं दो मनोरक्षा युक्तियों के उदाहरण दीजिए।

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मानसिक स्वास्थ्य को सामान्य बनाये रखने का एक उपाय मनोरक्षा युक्तियाँ (Defence Mechanisms) भी हैं। मनोरक्षा युक्तियाँ वे चेतन और अचेतन प्रक्रियाएँ हैं जिनसे आन्तरिक अन्तर्द्वन्द्व कम होता है अथवा समाप्त हो जाता है। दो मुख्य मनोरक्षा युक्तियों का सामान्य विवस्ण निम्नलिखित है –

(1) दमन (Repression) – दमन एक मुख्य एवं प्रधान मनोरक्षा युक्ति है। इस मनोरक्षा युक्ति के माध्यम से सम्बन्धित व्यक्ति अपनी अप्रिय एवं समाज-विरोधी इच्छाओं, कटुस्मृतियों एवं घटनाओं को मन के चेतन स्तर से हटाकर अचेतन स्तर पर भेज देता हैं दमन से कुछ हद तक मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा में सहायता प्राप्त होती है, परन्तु निरन्तर दमन की मनोरक्षा युक्ति को अपनाने से कुछ प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकते हैं।
(2) प्रक्षेपण (Projection) – प्रेक्षपण भी एक सामान्य रूप से पायी जाने वाली मनोरक्षा युक्ति है। व्यवहार में देखा जा सकता है कि कभी-कभी व्यक्ति में कुछ दोष या कमियाँ होती हैं, परन्तु वह इन दोषों की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेना चाहता। ऐसे में वह अपने आप को दोष-रहित समझने के लिए अपने दोषों या कमियों को अन्य व्यक्तियों पर थोपता या आरोपित करता है। इस प्रकार के दोषारोपण से वह सन्तुष्टि महसूस करता है। यही प्रक्षेपण है।

7016.

कौन-सा प्रेरक व्यक्ति को अपने लक्ष्य के मार्ग में बाधा आने पर विजय पाने तथा संघर्ष के लिए अभिप्रेरित करता है?(क) पलायन(ख) युयुत्सा(ग) अनुकरण(घ) क्रोध

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सही विकल्प है  (ख) युयुत्सा

7017.

लिबिडो किस विद्वान की संकल्पना है?

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‘लिबिडो’ फ्रॉयड द्वारा प्रतिपादित संकल्पना है।

7018.

सभ्यता किसे कहते हैं?

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संस्कृति के भौतिक पक्ष को सभ्यता कहा जाता है। सभ्यता का संबंध उस कला-विन्यास से है। जिसे मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने हेतु रचा है। यह संस्कृति का अधिक जटिल व विकसित रूप है जिसमें मानव-निर्मित भौतिक वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं। मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “सभ्यता से हमारा अर्थ उस संपूर्ण प्रविधि तथा संगठन से हैं जिसे कि मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियंत्रित करने के उद्देश्य से बनाया है।

7019.

मनोविश्लेषण विधि का सामान्य परिचय दीजिए।

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फ्रायड नामक विख्यात मनोवैज्ञानिक ने सम्मोहन विधि की कमियों को ध्यानावस्थित रखते हुए मनोविश्लेषण विधि’ (Psycho-analysis) की खोज की। रोगी को एक अर्द्ध-प्रकाशित कक्ष में आरामकुर्सी पर इस प्रकार विश्रामपूर्वक बैठाया जाता है कि मनोविश्लेषक तो रोगी की क्रियाओं का पूर्णरूपेण अध्ययन व निरीक्षण कर पाये लेकिन रोगी उसे न देख सके। अब मनोविश्लेषक के व्यवहार से प्रेरित व सन्तुष्ट व्यक्ति उस पर पूरी तरह विश्वास प्रदर्शित करता है। यद्यपि शुरू में प्रतिरोध की अवस्था के कारण रोगी कुछ व्यक्त करना नहीं चाहता, किन्तु उत्तेजक शब्दों के प्रयोग से उसे पूर्व-अनुभव दोहराने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसके बाद स्थानान्तरण की अवस्था के अन्तर्गत दो बातें होती हैं-(i) रोगी चिकित्सक को भला-बुरा कहता या गाली बकता है अथवा (ii) रोगी मनोविश्लेषक पर मुग्ध हो जाता है और उसकी हर एक बात मानता है। शनैः-शनै: रोगी अपनी समस्त बातों की जानकारी मनोविश्लेषक को दे देता है, जिससे उसकी उलझनें समाप्त हो जाती हैं और वह सामन्य व समायोजित हो जाता है।

7020.

काम की मूल प्रवृत्ति को ही सम्पूर्ण मानव-व्यवहार एवं क्रियाओं का उद्गम स्वीकार करने वाले मनोवैज्ञानिक का नाम क्या है?(क) सिगमण्ड फ्रॉयड(ख) ट्रॉटर(ग) बी० एन० झा(घ) वुडवर्थ

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सही विकल्प है (क) सिगमण्ड फ्रॉयड

7021.

कौन-सा विद्वान समाजीकरण की प्रक्रिया को काम प्रवृत्तियों (लिबिडो) द्वारा निर्धारित प्रक्रिया मानता है?

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समाजीकरण की प्रक्रिया को काम प्रवृत्तियों (लिबिडो) द्वारा निर्धारित प्रक्रिया मानने वाले विद्वान का नाम फ्रॉयड है।

7022.

समाजीकरण क्या है? इसके प्रमुख अभिकरणों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।यासमाजीकरण क्या है? संक्षेप में समाजीकरण के प्रमुख अभिकरणों का उल्लेख कीजिए।यासमाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार तथा विद्यालय की भूमिका स्पष्ट कीजिए।या“परिवार समाजीकरण का प्रमुख आधार है।” इस कथन की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।

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मनुष्य का जन्म समाज में होता है। समाज में जन्म लेने के पश्चात् वह धीरे-धीरे आस-पास के वातावरण के संपर्क में आता है और उससे प्रभावित होता है। प्रारंभ में मनुष्य एक प्रकार से जैविक प्राणी मात्र होता है; क्योंकि आहार, निद्रा आदि के अतिरिक्त उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं होता। और उसकी अवस्था बहुत-कुछ पशुओं के समान होती है। इसके अतिरिक्त जन्म के समय बालक में सभी प्रकार के सामाजिक गुणों का भी अभाव होता है। सामाजिक गुणों के अभाव में बालक एक जैविक प्राणी मात्र ही होता है। माता-पिता के संपर्क में आकर वह मुस्कराना और पहचानना सीखता है। धीरे-धीरे वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों के संपर्क में आता है और उनसे सामाजिक शिष्टाचार की अनेक बातें सीखता हैं। आगे चलकर और बड़े होने पर उसके सपंर्क का क्षेत्र और अधिक व्यापक हो जाता है तथा वह विभिन्न सामाजिक तरीकों से अपने कार्यों का संचालन करना सीख लेता है तथा उसका प्रत्येक व्यवहार समाज के नियमों के अनुसार होने लगता है। इस प्रकार, वह प्राणी से सामाजिक प्राणी बन जाता है और समाजशास्त्र में बच्चे के सामाजिक बनने की इस प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहा जाता है।

समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है। इसी के परिणामस्वरूप व्यक्ति समाज में रहना सीखता है। अर्थात् एक सामाजिक प्राणी बनता है। संस्कृति का हस्तांतरण भी इसी प्रक्रिया के माध्यम से होता है। विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित समाजीकरण की परिभाषाएँ निम्नवर्णित हैं-

⦁    ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार-“समाजीकरण से समाजशास्त्रियों का तात्पर्य है वह प्रक्रिया जिससे व्यक्ति का मानवीकरण होता है।”
⦁    ग्रीन (Green) के अनुसार--“समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन और व्यक्तित्व प्राप्त करता है।”
⦁    जॉनसन (Johnson) के अनुसार–“समाजीकरण एक प्रकार का सीखना है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने योग्य बनाता है।”
⦁     बोगार्ड्स (Bogardus) के अनुसार–“समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति एक-दूसरे पर निर्भर रहकर व्यवहार करना सीखता है और इसके द्वारा सामाजिक आत्म-नियंत्रण सामाजिक उत्तरदायित्त्व तथा संतुलित व्यक्तित्व का अनुभव प्राप्त करता है।”
⦁    डेविस (Davis) के अनुसार-“परिवर्तन की इस प्रक्रिया के बिना, जिसे हम समाजीकरण कहते हैं, समाज एक पीढ़ी से भी आगे स्वयं को संतुलित नहीं कर सकता है और न ही संस्कृति जीवित रह सकती है। इसके बिना व्यक्ति सामाजिक प्राणी भी नहीं बन सकता है।’
⦁    कोनिग (Koenig) के अनुसार-“समीकरण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें एक व्यक्ति अपने समाज, जिसमें वह जन्मा है, जो कार्यरत (या उपयोगी) सदस्य बनता है अर्थात् समाज | की जनरीतियों एवं रूढ़ियों के अनुसार व्यवहार एवं कार्य करता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया जीवन भर किसी-न-किसी रूप में चलती रहती है। इसी प्रक्रिया के माध्यम से संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्सांतरित होती है।

समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण
समाज की विभिन्न संस्थाएँ व्यक्ति के समाजीकरण में योगदान देती आई हैं। ये संस्थाएँ अथवा अभिकरण निम्नलिखित हैं-

1. परिवार–बालक का समाजीकरण करने वाली प्रथम तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्था परिवार है। परिवार में ही बच्चे का जन्म होता है तथा सबसे पहले वह माता-पिता व अन्य परिवारजनों के ही संपर्क में आता है। परिवार के सदस्य बालक के समाजीकरण में अपना प्रथम तथा स्थायी योगदान प्रदान करते हैं। परिवार के सदस्यों का परस्पर सहयोग और प्रेम-भाव बालक को समाजीकरण के लिए प्रेरित करता है। किम्बाल यंग (Kimball Young) के शब्दों में, “समाज के अंतर्गत समाजीकरण की भिन्न-भिन्न संस्थाओं में परिवार’ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।” प्रत्येक बालक अपने माता-पिता से रीति-रिवाज, सामाजिक परंपराओं तथा सामाजिक शिष्टाचार का ज्ञान प्राप्त करता है। वह परिवार में ही रहकर आज्ञाकारिता, सामाजिक अनुकूलन तथा सहनशीलता की प्रवृत्ति को विकसित करता है। संभवतः इसलिए परिवार को बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा गया है जो कि ठीक भी है। समाजीकरण में परिवार के महत्त्व को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
⦁    माता-पिता के व्यवहार का प्रभाव-बच्चों के साथ माता-पिता का क्या और कैसा व्यवहार है, इस बात से ही बच्चे के सामाजिक जीवन का अनुमान लगाया जा सकता है। माता-पिता के व्यवहार को बालक के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अधिक लाड़-प्यार में पला बालक प्रायः बिगड़ जाता है। इसके साथ ही साथ माता-पिता से प्यार न मिलने पर बालक में हीन भावना ग्रन्थियाँ बनने लगती हैं और उसका व्यक्तित्व ठीक प्रकार से विकसित नहीं हो पाता।
⦁    माता-पिता के चरित्र का प्रभाव-समाजीकरण में माता-पिता के चरित्र का विशेष प्रभाव पड़ता है। चरित्रहीन माता-पिता के बालकों के व्यक्तित्व के संतुलित होने की कोई संभावना नहीं होती। जुआरी व शराबी माता-पिता की संतान नियंत्रणहीन हो जाती है और वह समाज-विरोधी कार्य करने लगती है। इसके विपरीत, चरित्रवान माता-पिता की संतान पर रीति-रिवाजों और प्रतिमानों द्वारा सामाजिक नियंत्रण की संभावना बनी रहती है।
⦁    भाई-बहनों का प्रभाव-परिवार में रहने वाले भाई-बहनों को भी बालक के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। भाई-बहनों में बालक का जो स्थान होता है उससे बालक का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। यदि उसका स्थान परिवार में सबसे प्रथम है तो वह अपने आचरण को संतुलित रखने का प्रयास करता है ताकि उसके छोटे भाई-बहन उसका सम्मान करें। एक ही पीढ़ी के होने के कारण भाई-बहनों का प्रभाव समाजीकरण में अत्यधिक पड़ता है।
⦁    पारिवारिक नियंत्रण का प्रभाव-माता-पिता के निंयत्रण का भी बच्चों अथवा परिवार के युवक-युवतियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। नियंत्रणहीन परिवार में युवक-युवितयों के बिगड़ने की संभावना अधिक बनी रहती है। इसके विपीरत, जो परिवार नियंत्रित रहते हैं। उनके बच्चे पूर्ण से सुयोग्य एवं नियंत्रित रहते हैं।
⦁    परिवार की आर्थिक स्थिति का प्रभाव-परिवार की आर्थिक स्थिति भी बच्चे के समाजीकरण को प्रभावित करती है। यदि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है तो बच्चे की संभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर दी जाती है जिससे बच्चा अपराधों की ओर आकर्षित नहीं होता। इसके विपरीत, निर्धन परिवार के बच्चों की आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती। इन परिवारों के बच्चों में हीन-भावना ग्रथियों का निर्माण हो जाता है और वे समाज-विरोधी कार्य करने लगते हैं।
⦁     नागरिक गुणों की पाठशाला—परिवार को ही नागरिक गुणों की प्रथम पाठशाला कहो गया है। परिवार में रहकर ही बच्चा सर्वप्रथम सहानुभूति, प्रेम, त्याग, सहिष्णुता, आज्ञापालन आदि गुणों को सीख जाता है। इन्हीं से व्यक्ति का समाजीकरण संभव होता है।

2. पड़ोस-परिवार के पश्चात् बालक अपने पड़ोस के संपर्क में आता है। पड़ोस के वातावरण से बालक पर्याप्त प्रभावित होता है। पड़ोसियों का परस्पर प्रेम, सहयोग तथा सद्भाव बालक के समाजीकरण में विशेष योगदान करता है। पड़ोस के बालक परस्पर मिलकर खेलते हैं। इस खेल में या तो बालक अन्य बालकों का नेतृत्व करता है या किसी बालक के नेतृत्व में कार्य करता है।
इस प्रकार, बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए अच्छे पड़ोस में रहना पसंद किया जाता है। यदि पड़ोस अच्छा नहीं है तो बच्चों के समाजीकरण की प्रक्रिया भी दूषित हो जाती है।

3. विद्यालय परिवार तथा पड़ोस के पश्चात बालक के समाजीकरण में विद्यालय महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है। विद्यालय समाज का लघु रूप होता है; अतः बालक को वहाँ अनेक सामाजिक अनुभव होते हैं और अनेक सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने के अवसर मिलते हैं। बालक के परस्पर मिलने-जुलने, उठने-बैठने, खेलने-कूदने तथा सहयोगपूर्वक श्रमदान आदि में भाग लेने से उसमें सामाजिकता की भावना का विकास होता है। समाज के नियमों और व्यवहारों का प्रायोगिक ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से विद्यालय का सर्वोच्च स्थान है यह समाजीकरण का महत्त्वपूर्ण औपचारिक अभिकरण है। विद्यालय के महत्त्व को निम्नलिखित तथ्यों से समझा जा सकता है-
⦁    स्कूल के वातावरण का प्रभाव-स्कूल का वातावरण भी बच्चों के जीवन को प्रभावित करता है। यदि स्कूल में अनुशासन ठीक है और सभी अध्यापक अपने उत्तरदायित्व का पूरा ध्यान रखते हैं तो बच्चे का जीवन भी सुधरता है और उनमें जीवन को अनुशासित एवं संतुलित करने की क्षमता विकसित होती है। यदि स्कूल का वातावण दूषित हो तो इसके प्रभाव के कारण बच्चों के व्यक्तित्व का ठीक प्रकार से विकास नहीं हो पाता है।
⦁    शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव-बालक के जीवन पर उसके अध्यापकों तथा गुरुओं के व्यक्तित्व और चरित्र का गहरा प्रभाव पड़ता है। अध्यापक के आदर्श बच्चों के जीवन को पूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। बच्चों के सोचने-विचारन, उठने-बैठने, बोलने तथा हाव-भाव आदि पर अध्यापकों के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव दोनों ही प्रकार का हो सकता है। सुयोग्य अध्यापक बालकों में लोकप्रिय होकर अपना आदर्श बच्चों के अनुभव के लिए छोड़ जाते हैं। इसके विपरीत, कुछ अध्यापक अपने प्रति घृणा
के भाव भी बच्चों के मन में छोड़ जाते हैं।
⦁    सहपाठियों का प्रभाव-बच्चों के व्यक्तित्व पर उनके सहपाठियों का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। यदि सभी छात्र योग्य परिवार के हों तो बालकों की आदत पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और यदि छात्रों की अधिकतर संख्या टूटे हुए (भग्न) परिवारों से संबंधित है। तो बच्चों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
⦁    अध्यापकों के व्यवहार का प्रभाव-अध्यापकों के व्यवहार का भी बच्चों के चरित्र एवं व्यक्तित्व पर विशेष प्रभाव पड़ता है। बच्चों के साथ यदि अध्यापकों का व्यवहार उचित हो तो बच्चे मन लगाकर कार्य करते हैं। इसके विपरीत, यदि बच्चों के साथ कठोर व्यवहार हो तो वे कक्षा में उपस्थित होने से मन चुराने लगते हैं तथा विद्यालय के समय को बुरी संगति में बिताकर छुट्टी के समय घर पहुँच जाते हैं। इस प्रकार कुसंगति में पड़कर वे समाज-विरोधी कार्य करने लगते हैं और उनके समाजीकरण की प्रक्रिया में बाधा पड़ती है।

4. मित्र-मण्डली–अपनी मित्र-मंडली में रहना प्रत्येक बालक पसंद करता है। मित्र-मंडली एक ऐसा प्राथमिक समूह है जिसमें बालक अनेक बातें सीखता है। मित्रों का परस्पर व्यवहार तथा शिष्टाचार भी समाजीकरण में सहायक होता है। बच्चा अपने मित्रों से बहुत कुछ सीखता है। क्योंकि एक ही आयु-समूह होने के कारण बच्चे एक-दूसरे को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। परंतु बुरी मित्र-मंडली का प्रभाव बालक को असामाजिक बना देता है। परिवार के बाद मित्र-मंडली ही एक ऐसा प्राथमिक अभिकरण है जिसकी बच्चे के समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

5. क्रीड़ा-समूह-मित्र-मंडली के समान बालक के समाजीकरण में क्रीड़ा-समूह भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। बड़े होने पर बालक अपने साथी-समूह में खेलता है तो वह अनेक परिवारों से आए बालको के संपर्क में आता है और उनके बोलचाल तथा शिष्टाचार के ढंगों को सीखता है। प्रत्येक बालक एक-दूसरे को कुछ-न-कुछ सामाजिक व्यवहार के पाठ का शिक्षण देता है। क्रीड़ा-समूह बालकों में सामाजिक अनुशासन भी उत्पन्न करता है। क्रीड़ा-समूह में रहकर बालक सहयोग, न्याय, अनुकूलन तथा प्रतिस्पर्धा आदि सामाजिक गुणों को अर्जित करता है तथा ये गुण क्रमशः विकसित होकर जीवन भर उसके काम आते हैं।

6. जाति–जाति’ (Caste) से भी व्यक्ति को समाजीकरण होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी जाति के प्रति श्रद्धा की भावना रखता है और उसके प्रति कर्तव्य का पालन करना सीखता है। प्रत्येक जाति को अपनी प्रथाएँ परंपराएँ और सांस्कृतिक उपलब्धियाँ होती हैं। व्यक्ति इनको किसी-न-किसी रूप में ग्रहण करता है। जाति के नियम पालन, उसके अनुशासन में रहना आदि व्यक्ति के समाजीकरण में योगदान देते हैं।

7. जन-माध्यम-आज के इलेक्ट्रॉनिक युग में जन-माध्यम हमारे दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग बन गए हैं। इसमें पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविजन, फिल्मों इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। बच्चों को संस्कृति तथा इसमें हो रहे परिवर्तनों का ज्ञान देने में जन-माध्यमों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो गई है। बच्चों तथा बड़ों पर हुए अध्ययनों से यह पता चलता है कि विभिन्न जन-माध्यमों को उनके मूल्यों, आदर्शो, व्यवहार प्रतिमानों, दृष्टिकोण इत्यादि पर गहरा प्रभाव पड़ता है। रामायण तथा महभारत जैसे धारावाहिकों ने बच्चों को परंपरागत भारतीय संस्कृति के आदर्शों से परिचित कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया में अनेक अभिकरण महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। इन अभिकरणों के अतिरिक्त संस्थाएँ, आर्थिक संस्थाएँ एवं राजनीतिक संस्थाएँ भी समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इन सभी के सामूहिक योगदान के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति सामाजिक विरासत को ग्रहण कर पाता है।

7023.

समाजीकरण में कौन-से कारक सहायक माने जाते हैं?

Answer»

अमेरिकी समाजशास्त्री क्यूबर ने समाजीकरण में निम्नलिखित तीन कारकों को सहायक माना है-

⦁    पैतृक गुण-मनुष्य में जो कुछ भी गुण पाए जाते हैं वे अपने पूर्वजों के कारण पाए जाते हैं। व्यक्ति अपने पूर्वजों के अनुसार ही खाता-पीता तथा जीवन-यापन करता है। अपने समूह के अनुरूप ही वह अपने को ढालता है तथा मान्यताओं का निर्माण करता है।
⦁    सांस्कृतिक पर्यावरण-सांस्कृतिक पर्यावरण में व्यक्ति पलता है और उसी में उसका पोषण होता है। सांस्कृतिक पर्यावरण प्रत्येक स्थान पर अलग-अलग प्रभाव डालता है। इस कारण ही भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहारों में भिन्नता पायी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भिन्नता के अनुसार ही समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यवहार करना सीखता है। तथा उसके आदर्शों के अनुसार अपने जीवन को ढालता है।
⦁    नवीनतम अनुभव–प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कुछ-न-कुछ नवीन अनुभवों को अवश्य प्राप्त करता रहता है। ये अनुभव ही उसे सीखने में सहायता देते हैं। चाहे और अनचाहे अनुभव मनुष्य का समाजीकरण करने में अपना योग देते हैं।

7024.

व्यक्ति को समाजीकरण की क्यों आवश्यकता होती है?

Answer»

समाजीकरण एक अत्यंत अनिवार्य प्रक्रिया है जिसकी आवश्यकता व्यक्ति को निम्नलिखित कारणों से होती है-

⦁    ‘स्व’ का विकास-मानव चरित्र का विकास व्यक्ति के ‘स्व’ या ‘अहं’ के विकास पर निर्भर है। जब तक व्यक्ति के ‘स्व’ का विकास नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति को भले-बुरे का ज्ञान नहीं होता। व्यक्ति के ‘स्व’ का विकास करने के लिए व्यक्ति को शिष्टाचार, बोलचाल तथा उठने-बैठने के तरीकों को जानना चाहिए। इन तरीकों को जानना ही समाजीकरण कहलाता है। इसलिए समाजीकरण मानव जीवन में ‘स्व’ के विकास के लिए नितांत आवश्यक है। वस्तुतः समाजीकरण का अर्थ ही ‘स्व’ का विकास करना है।

⦁    व्यक्तित्व के विकास में सहायक–व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास समाज में रहकर ही कर सकता है। जो व्यक्ति किसी कारणवश समाज के बाहर रहे, उनमें व्यक्ति के उचित गुणों का विकास नहीं हो पाता। ऐसे अनेक बालकों का अध्ययन किया गया है जो भेड़ियों की माँद में पाए गए थे या किन्हीं कारणवश माता-पिता से बिछुड़करे जंगलों पशुओं के साथ रहे। उन बच्चों का व्यवहार भेड़िए या जंगली पशु जैसा ही था, क्योंकि मानव समाज से उनका कोई संबंध नहीं बन पाया था। फलस्वरूप उनमें व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाया था तथा वे समाज से अलग रहने के कारण पशुतुल्य ही रहे। इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्तित्व का विकास करने के लिए व्यक्ति को समाजीकरण की अत्यंत आवश्यकता है।

7025.

समाजीकरण क्या है? समाजीकरण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।यासमाजीकरण से आप क्या समझते हैं?

Answer»

मनुष्य का जन्म समाज में होता है। समाज में जन्म लेने के पश्चात् वह धीरे-धीरे आसपास के वातावण के संपर्क में आता है और उससे प्रभावित होता है। प्रारंभ में मनुष्य एक प्रकार से जैविक प्राणी मात्र ही होता है; क्योंकि आहार, निद्रा आदि के अतिरिक्त उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं होता; अत: उसकी अवस्था बहुत-कुछ पशुओं के ही समान होती है। इसके अतिरिक्त, जन्म के समय बालक में सभी प्रकार के सामाजिक गुणों का भी अभाव होता है और समाजिक गुणों के अभाव में कोई भी बालक एक जैविक प्राणी मात्र ही होता है। माता-पिता के संपर्क में आकर वह मुस्कराना और पहचानना सीखता है। धीरे-धीरे वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों के संपर्क में आता है और उनसे सामाजिक शिष्टाचार की अनेक बातें सीखता है। आगे चलकर और बड़े होने पर उसके संपर्क का क्षेत्र और अधिक व्यापक हो जाता है तथा वह विभिन्न सामाजिक तरीकों से अपने कार्यों का संचालन करना सीख लेता है। इस प्रकार वह जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बन जाता है और समाजशास्त्र में बच्चे के सामाजिक बनने की इस प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहा जाता है। अतः समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है। इसी के परिणामस्वरूप व्यक्ति समाज में रहना सीखता है अर्थात् एक सामाजिक प्राणी बनता हैं। संस्कृति का हस्तांतरण भी इसी प्रक्रिया के माध्यम से होता है। ग्रीन (Green) के अनुसार, समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, स्वानुभूति और व्यक्तित्व प्राप्त करता है।”

7026.

मनोविश्लेषण विधि की खोज किस मनोवैज्ञानिक द्वारा की गयी थी?(क) सिगमण्ड फ्रॉयड(ख) थॉर्नडाइक(ग) गार्डनर मर्फी(घ) पैवलोव

Answer»

सही विकल्प है (क) सिगमण्ड फ्रॉयड

7027.

इड, इगो एवं सुषर इगो के आधार पर समाजीकरण की व्याख्या करने वाले विद्वान कौन हैं?

Answer»

इड, इगो एवं सुपर इगो के आधार पर समाजीकरण की व्याख्या करने वाले विद्वान् फ्रॉयड हैं।

7028.

मन के तीन गत्यात्मक पक्षों इड, ईगो और सुपर इगो के सम्बोधन का वर्णन किया है –(क) फ्रॉयड ने(ख) जोन्स ने(ग) मैक्डूगल ने।(घ) तुष्ट ने

Answer»

सही विकल्प है  (क) फ्रायड ने

7029.

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के क्षेत्र का उल्लेख कीजिए।

Answer»

‘मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान’ अपने आप में एक व्यवस्थित विज्ञान है। इसका अध्ययन-क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध सम्पूर्ण मानव-जीवन से है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के क्षेत्र का सामान्य परिचय निम्नलिखित है

(1) सामान्य व्यक्तियों का अध्ययन – सामान्य रूप से माना जाता है कि मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान द्वारा केवल मानसिक रोगियों अथवा असामान्य व्यक्तियों का ही अध्ययन किया जाता है, परन्तु यह धारणा भ्रामक है। वास्तव में, मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान सामान्य व्यक्तियों के लिए भी आवश्यक एवं उपयोगी है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान व्यक्तियों के अन्तर्गत मानसिक स्वास्थ्य के नियमों तथा उपायों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन से समस्त सामान्य व्यक्ति लाभान्वित होते
(2) मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों का अध्ययन – मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के अन्तर्गत मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। मानसिक अस्वस्थता के विभिन्न प्रकारों, उनके कारणों, लक्षणों तथा रोकथाम एवं उपचार के उपायों का अध्ययन मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के अन्तर्गत ही किया जाता है।
(3) सम्पूर्ण समाज का अध्ययन – मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान सम्पूर्ण समाज का अध्ययन करता है तथा उसे लाभ पहुँचाता है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान सम्पूर्ण समाज को मानसिक रूप से स्वस्थ बनाये रखने में सहायता पहुँचाती है।

7030.

बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर सर्वाधिक प्रभाव किस संस्था का पड़ता है?

Answer»

बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर सर्वाधिक प्रभाव परिवार नामक संस्था का पड़ता है।

7031.

मानसिक स्वास्थ्य पर किस मनोवैज्ञानिक कारक का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है?

Answer»

प्रबल मानसिक संघर्ष का मानसिक स्वास्थ्य पर सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

7032.

मानसिक रूप से स्वस्थ्य व्यक्ति का एक मुख्य लक्षण बताइए।

Answer»

मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति समय-समय पर आत्म-निरीक्षण करता है।

7033.

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के तीन मुख्य कार्य कौन-कौन से हैं?

Answer»

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के तीन मुख्य कार्य हैं –

⦁    मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा
⦁    मानसिक रोगों की रोकथाम तथा
⦁    मानसिक रोगों को प्रारम्भिक उपचार।

7034.

मानसिक स्वास्थ्य पर किस कारक का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है?(क) उत्तम पोषण का(ख) शारीरिक सौन्दर्य का(ग) शारीरिक विकलांगता का(घ) इन सभी कारकों का

Answer»

सही विकल्प है (ग) शारीरिक विकलांगता का

7035.

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का जीवन के किस क्षेत्र में महत्त्व है?(क) जीवन के असामान्य क्षेत्रों में(ख) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में(ग) जीवन के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में(घ) जीवन के किसी भी क्षेत्र में नहीं

Answer»

सही विकल्प है (ख) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में

7036.

मानसिक स्वास्थ्य की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।

Answer»

एच० आर० भाटिया के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य यह बताता है कि कोई व्यक्ति जीवन की माँगों और अवसरों के प्रति कितनी अच्छी तरह से समायोजित है।”

7037.

मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के नियम तथा उपाय बताने वाले विज्ञान को कहते हैं –(क) व्यावहारिक मनोविज्ञान(ख) प्राकृतिक चिकित्साशास्त्र(ग) मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान(घ) इनमें से कोई नहीं

Answer»

सही विकल्प है  (ग) मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान

7038.

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की ड्रेवर द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।

Answer»

ड्रेवर के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है-मानसिक स्वास्थ्य के नियमों की खोज करना और उसको सुरक्षित रखने के उपाय करना।”

7039.

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मुख्य पक्षों का उल्लेख कीजिए।यामानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सकारात्मक पक्ष क्या है?

Answer»

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के तीन प्रमुख पक्ष हैं

1. सकारात्मक पक्ष :
सकारात्मक पक्ष में उन नियमों तथा परिस्थितियों को उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है जिनके द्वारा मनुष्य व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करते हुए जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में सफल हो सके। इनमें मानसिक रोगों की खोज करना तथा उनकी रोकथाम करना आते हैं।
2. नकारात्मक पक्ष :
मानसिक रोगों की सहानुभूतिपूर्ण ढंग से तथा कुशलता से चिकित्सा करना, उन परिस्थितियों से बचने का प्रयास करना जिनके कारण मानसिक संघर्ष तथा भावना-ग्रन्थियों के उत्पन्न होने की सम्भावना होती रहती है।
3. संरक्षणात्मक पक्ष :
व्यक्ति को उन विधियों का ज्ञान कराना, जिनसे मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्ध को कायम रखा जा सकता है।

7040.

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मुख्य उद्देश्य क्या हैं ?

Answer»

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के निम्नलिखित उद्देश्य हैं

⦁    क्रो एवं क्रो के अनुसार, मानसिक अव्यवस्था एवं अस्वस्थता को नियन्त्रित करना तथा मानसिक रोगों को दूर करने के उपायों की खोज करना।
⦁    मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का उद्देश्य ऐसे साधनों को एकत्र करना है, जिससे साधारण मानसिक रोगों को नियन्त्रित किया जा सके।
⦁    प्रत्येक व्यक्ति को सामंजस्यपूर्ण और सुखी जीवन व्यतीत करने में सहायता देना।
⦁    मानसिक तनाव और चिन्ताओं से मुक्ति दिलाने में सहायता देना।

7041.

“मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने तथा मानसिक अस्वस्थता को रोकने से है।” यह परिभाषा प्रतिपादित की है –(क) फ्रायड ने(ख) हैडफील्ड ने(ग) ड्रेवर ने।(घ) भाटिया ने

Answer»

सही विकल्प है  (ख) हैडफील्ड ने

7042.

मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सामूहिक चिकित्सा का सामान्य परिचय दीजिए।

Answer»

मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सामूहिक चिकित्सा विधि में दस से लेकर तीस तक समलिंगी रोगियों की एक साथ चिकित्सा की जाती है। चिकित्सक समूह के सभी रोगियों को इस प्रकार प्रेरित करता है कि वे एक-दूसरे से अपनी समस्याएँ कहें तथा दूसरों की समस्याएँ खुद सुनें। एक-दूसरे को समस्या कहने-सुनने से पारस्परिक सहानुभूति उत्पन्न होती है। रोगी जब अपने जैसे अन्य पीड़ित व्यक्तियों को अपने साथ पाता है तो उसे सन्तोष अनुभव होता है। धीरे-धीरे चिकित्सक के दिशा-निर्देशन में सभी रोगी मिलकर समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते हैं और मानसिक सन्तुलन की अवस्था प्राप्त करते हैं।

7043.

मानसिक रोगियों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली खेल एवं संगीत विधि का सामान्य परिचय दीजिए।

Answer»

बालकों तथा दीर्घकाल तक दबाव महसूस क़रने वाले मानसिक रोगी व्यक्तियों के लिए खेल विधि उपयोगी है-रोगी को स्वेच्छा से स्वतन्त्रतापूर्वक नाना प्रकार के खेल खेलने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। खेल खेलने से उसकी विचार की दिशा बदलती है तथा खेल जीतने से उसमें आत्मविश्वास बढ़ता है। इसी प्रकार संगीत भी मानसिक उलझनों तथा तनावों को दूर करने की एक महत्त्वपूर्ण कुंजी है। रुचि का संगीत सुनने से उत्तेजित स्नायुओं को आराम मिलता है, संवेगात्मक उत्तेजनाओं का अन्त होता है, पाचन क्रिया तथा रक्तचाप सामान्य हो जाते हैं।

7044.

स्वप्न विश्लेषण विधि किस उपचार के लिए प्रयोग में लाई जाती है ?

Answer»

मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए स्वप्न विश्लेषण विधि’ को अपनाया जाता है।

7045.

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के निम्नलिखित पहलू हैं, सिवाय(क) संरक्षणात्मक पहलू(ख) सांस्कृतिक पहलू(ग) उपचारांत्मक पहलू(घ) निरोधात्मक पहलू

Answer»

सही विकल्प है  (ख) सांस्कृतिक पहलू

7046.

“मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने और मानसिक असन्तुलन को रोकने से है।” ऐसा कहा गया है(क) हैडफील्ड द्वारा(ख) क्रो और क्रो द्वारा(ग) कुल्हन द्वारा(घ) शेफर द्वारा

Answer»

सही विकल्प है  (क) हैडफील्ड द्वारा

7047.

मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सम्मोहन विधि का सामान्य परिचय दीजिए।

Answer»

सम्मोहन, अल्पकालीन प्रभाव वाली एक मनोवैज्ञानिक विधि है, जिससे मनोरोग के लक्षण दूर होते हैं, रोग दूर नहीं होता। सम्मोहन क्रिया में चिकित्सक मानसिक रोगी को कुछ समय के लिए अचेत कर देता है और उसे एक आरामकुर्सी पर विश्रामपूर्वक बिठलाता है। अब उसे किसी ध्वन्यात्मक या दृष्टात्मक उत्तेजना पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कहा जाता है। संसूचनाओं के माध्यम से उसे अचेत ही रखा जाता है। रोगी को निर्देश दिया जाता है कि वह अपनी स्मृति से लुप्त हो चुकी अनुभूतियों को कहे। अनुभूति के स्मरण मात्र से ही रोगी का रोग दूर हो जाती है।

7048.

किसलय-कर किस हेतु हिला करते हैं?

Answer»

किसलय-कर स्वागत हेतु हिला करते हैं।

7049.

ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए:कहता है कौन कि भाग्य ठगा है मेरा?वह सुना हुआ भय दूर भगा है मेरा।कुंछ करने में अब हाथ लगा है मेरा,वन में ही तो गार्हस्थ्य जगा है मेरा।

Answer»

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘कुटिया में राजभवन’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता मैथिलीशरण गुप्त हैं।
संदर्भ : जब सीता जी प्रभु रामचन्द्र के साथ वन में कुटिया बनाकर रहती है, वन में एक साधारण नारी की तरह अपने परिवार की जिम्मेदारी निभाने का सौभाग्य पाती हैं।
स्पष्टीकरण : गृहस्थ जीवन का आनंद वन में अनुभव करते हुए सीता जी कहती हैं कि कौन कहता है कि हमारा भाग्य ठगा गया है? वास्तव में यहाँ हमारा भय मिट गया है। यहाँ रहकर कुछ न कुछ करने में मन लगता है। ऐसा लग रहा है कि वन में ही गृहस्थ जाग गया है।

7050.

ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए:औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ,श्रमवारि-बिन्दु फल स्वास्थ्य-शुक्ति फलती हूँअपने अचल से व्यंजन आप झलती हूँ।

Answer»

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘कुटिया में राजभवन’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता मैथिलीशरण गुप्त हैं।
संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियों में सीता जी खुद फल-फूल लाकर उनसे खाना पकाती हैं सुखी और स्वस्थ जीवन का आनंद उठाती है।
स्पष्टीकरण : उक्त पंक्तियों में सीता जी अपने स्वावलंबन के बारे में कह रही हैं कि मैं यहाँ अपने पैरों पर खड़ी हूँ, दूसरों पर निर्भर नहीं हूँ। मेरे शरीर का वास्तविक आनंद तो परिश्रम से ही प्राप्त होता है। अपने हाथों से हवा स्वयं झलती हूँ।