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This section includes InterviewSolutions, each offering curated multiple-choice questions to sharpen your knowledge and support exam preparation. Choose a topic below to get started.

6951.

बाल्यावस्था में दी जाने वाली शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।

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बाल्यावस्था की शिक्षा  (Childhood of Education)

बाल्यावस्था की किसी भी रूप में उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि यह वह अवस्था है जब कि आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का पर्याप्त सीमा तक निर्माण हो जाता है। अत: बाल्यावस्था में बालक की शिक्षा का स्वरूप निर्धारित करते समय निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है

1. अवस्थानुकूल शिक्षा- प्रत्येक बालक की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
2. भाषा के ज्ञान पर बल- इस अवस्था में बालक की भाषा में विशेष रुचि होती है। अत: उसे भाषा का समुचित ज्ञान कराने की उत्तम व्यवस्था की जानी चाहिए।
3. क्रियाशील शिक्षा- बाल्यावस्था में बालक में क्रियाशीलता की प्रधानता होती है। अतः उसकी शिक्षा का आयोजन क्रियाशीलता के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर किया जाए। किण्डरगार्टन तथा मॉण्टेसरी शिक्षा प्रणालियाँ इस उद्देश्य को प्राप्त कराने में सहायक हैं। अतः अध्यापक को उनके सिद्धान्तों का अध्ययन करना चाहिए और यथासम्भव उनको प्रयोग करना चाहिए।
4. रचनात्मक प्रवृत्तियों का विकास- इस अवस्था के स बालकों में रचनात्मक कार्यों के प्रति विशेष रुचि होती है। अतः बालक की शिक्षा में हस्त-कार्यों का भी आयोजन किया जाए। बालक से गृहं उपयोगी तथा सजावट की वस्तुएँ बनवायी जा सकती हैं।
5. पाठ्यक्रम के निर्माण में सावधानी- पाठ्यक्रम के निर्माण में विशेष सावधानी रखनी चाहिए। उन विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए, जो इस अवस्था के बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करते हों। भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, चित्रकला, पुस्तक कला, काष्ठ कला तथा सुलेख, निबन्ध आदि को विशेष स्थान दिया जाए। किसी विदेशी भाषा का भी प्रारम्भ इस स्तर पर किया जा सकता है।
6. रोचक पाठ्य-सामग्री- बाल्यावस्था में बालक की रुचियों में विभिन्नता और परिवर्तनशीलता होती है। अत: पाठ्य-सामग्री का चुनाव रोचकता और विभिन्नता के सिद्धान्त के आधार पर किया जाना चाहिए। पाठ्य-पुस्तकों, साहसी गाथाओं, नाटक, वार्तालाप, हास्य प्रसंग व विभिन्न देशों के निवासियों के विवरण आदि को स्थान दिया जाना चाहिए।
7. जिज्ञासा की सन्तुष्टि- दस वर्ष की अवस्था के बालक के मस्तिष्क का पर्याप्त विकास हो जाता है। अतः उसकी जिज्ञासा प्रवृत्ति काफी तीव्र हो जाती है। वह प्रत्येक बात को समझने का प्रयास करता है और अनेक प्रश्न करता है। अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बालकों की जिज्ञासु प्रवृत्ति को सन्तोषजनक ढंग से सन्तुष्ट करे, बालक द्वारा किये गये प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दे तथा समय-समय पर उन्हें अजायबघर और चिड़ियाघर ले जाकर उनके सामान्य ज्ञान का विकास करे।
8. संवेगों की अभिव्यक्ति के अवसर- बाल्यावस्था में संवेगों का विकास तीव्रता से होता है। कोल और बुस के अनुसार, “बाल्यावस्था संवेगात्मक विकास का अनोखा काल है। अतः अध्यापक का कर्तव्य है कि बालकों के संवेगों का दमन न करके यथासम्भव उन्हें अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करे।
9. सामूहिक प्रवृत्ति की तृप्ति- इस अवस्था में बालक समूह में रहना अधिक पसन्द करते हैं। इस प्रवृत्ति की तृप्ति के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों तथा सामूहिक खेलों का आयोजन किया जाए। विद्यालय के समारोहों का आयोजन भी बालकों के द्वारा ही कराया जाए।
10. प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार-इस अवस्था में बालक का हृदय कोमल होता है। अत: वह कठोर अनुशासन को पसन्द नहीं करता। अध्यापक का कर्तव्य है कि इस अवस्था के बालकों के साथ वह यथासम्भव उदारता, प्रेम एवं सहानुभूति का व्यवहार करे। शारीरिक दण्ड और बल-प्रयोग का बालक पर इतना अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता जितना कि प्रेम और सहानुभूति की।
11. उत्तम आचरण की शिक्षा- बाल्यावस्था में बालकों को उत्तम आचरण की विशेष रूप से शिक्षा प्रदान की जाए। नमस्कार व अभिवादन की शिक्षा के साथ-साथ बालकों से उनके साथियों के जन्मदिवस पर बधाई-पत्र, उपहार आदि भिजवाएँ।
12. सामाजिक गुणों का विकास- विद्यालय में उन क्रियाओं और गतिविधियों का आयोजन किया जाए, जिससे बालकों में सामाजिकता का विकास हो सके। किलपैट्रिक के अनुसार, “बाल्यावस्था प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण का काल है। ऐसी दशा में विद्यालय में समय-समय पर उन क्रियाओं का आयोजन किया जाए, जिनसे छात्रों में आत्म-नियन्त्रण, सहानुभूति, प्रतियोगिता, सहयोग आदि गुणों का विकास हो सके।
13. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था- बालकों की विभिन्न रुचियों की सन्तुष्टि के लिए और विभिन्न शक्तियों के प्रदर्शन के लिए विद्यालय में विभिन्न पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना परम आवश्यक है। संगीत प्रतियोगिता, अन्त्याक्षरी, कविता पाठ, वाद-विवाद प्रतियोगिता आदि का आयोजन विद्यालय में समय-समय पर किया जाना चाहिए।
14. पर्यटन तथा स्काउटिंग की व्यवस्था- इस अवस्था में बालकों में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन की समय-समय पर योजनाएँ बनायी जाएँ। बालकों को ऐतिहासिक स्थलों, कल-कारखानों तथा बन्दरगाहों का भ्रमण कराया जाए। विद्यालयों में स्काउटिंग की व्यवस्था भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है।

6952.

किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त हैं(क) तीन(ख) दो(ग) चार(घ) पाँच

Answer»

सही विकल्प है (ख) दो

6953.

शैशवावस्था में दी जाने वाली शिक्षा का सामान्य परिचय दीजिए।याशैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए? समझाइए।

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शैशवावस्था की शिक्षा (Infancy of Education)

शैशवावस्था विकास की प्रारम्भिक अवस्था है, इसलिए इस काल को शिक्षा का आधार भी कहें तो अनुचित नहीं होगा। फ्रॉयड के अनुसार, “मनुष्य चार-पाँच वर्षों में ही जो कुछ बनना होता है, बन जाता है। इसी प्रकार एडलर ने कहा है, “शैशवावस्था सम्पूर्ण जीवन का क्रम निर्धारित कर देती हैं।” इस अवस्था की शिक्षा में हमें निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए|

1. शारीरिक विकास का प्रयास- माता-पिता एवं शिक्षक सभी को शिशु को स्वस्थ बनाने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए। शिशु को सन्तुलित भोजन, उपयुक्त आवास एवं  स्वस्थ क्रियाओं के लिए अवसर देना चाहिए।
2. शिशु की क्षमताओं का ज्ञान- शिशु की शारीरिक, मानसिक ५ शारीरिक विकास का प्रयास एवं भावात्मक क्षमताओं को समझकर उसी के अनुकूल शिक्षा की क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए। इस अवस्था में मॉण्टेसरी और किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणालियों को अपनाना चाहिए।
3. जिज्ञासा की सन्तुष्टि- माता-पिता और शिक्षक का कर्तव्य है। कि खिलौने आदि देते समय शिशु उनसे जो प्रश्न पूछे, उनका उत्तर देकर शिशु की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करें तथा उसके मानसिक विकास में सहायता दे।
4. शारीरिक दोषों का निराकरण- शिशु के शारीरिक दोषों को दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का विकास होता है।
5. उचित वातावरण- शिशु के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है कि शिशु के लिए उचित वातावरण बनाया जाए। खेल की चीजें, ज्ञानात्मक अनुभव की वस्तुएँ, स्वतन्त्र क्रिया के लिए स्थान एव अवसर देने से शिशु को उत्तम विकास होता है।
6. भावात्मक दमन से सुरक्षा- बालक की मूल-प्रवृत्तियों एवं संवेगों का दमन नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें उचित रूप में अभिव्यक्त करने के अवसर देने चाहिए।
7. भाषा का विकास- परस्पर अच्छी भाषा का प्रयोग करने से शिशु में भाषा का अच्छे ढंग से विकास होता है।
8. समाजीकरण व अच्छी आदतों का निर्माण- शिशु के साथ प्रेम, सहानुभूति व सहयोग के द्वारा व्यवहार करके उसमें भी समायोजन करने की आदत डाली जा सकती है।
9. दण्ड व भय से मुक्ति- शिशुओं के साथ दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उन्हें किसी प्रकार का भय भी नहीं दिखाना चाहिए, अन्यथा उनमें भाव-ग्रन्थियाँ बन जाएँगी और उनका विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
10. आदर्शों द्वारा चरित्र-निर्माण- बड़े लोगों को चाहिए कि वे शिशु के समक्ष अच्छे आदर्श उपस्थित करें। इससे शिशुओं के चरित्र का निर्माण होता है।
11. अवस्थानुकूल शिक्षा- शिशु की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं के अनुकूल ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण-विधि का प्रयोग करना चाहिए।
12. स्वतन्त्रता, सहानुभूति एवं सहकारिता का व्यवहार- शिशु को स्वतन्त्रता देकर उसके साथ सहानुभूति एवं सहकारिता का व्यवहार करने से उसका उत्तम विकास होता है।
13. क्रिया द्वारा शिक्षा-शिशु एक क्रिया- प्रधान प्राणी होता है। अत: उसे क्रिया द्वारा ही शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे शिशुओं को आत्म-प्रदर्शन का भी अवसर मिलता है और कर्मेन्द्रियों का भी प्रशिक्षण होता है।
14. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- मॉण्टेसरी एवं किण्डरगार्टन पद्धतियों में शिशुओं को ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। इनके शिक्षा उपकरणों तथा उपहारों का प्रयोग करके शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को प्रशिक्षित करता है।

6954.

पुस्तकालय के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।याशिक्षा के अभिकरण के रूप में पुस्तकालय के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।यापुस्तकालय की उपयोगिता बताइए।

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पुस्तकालय शिक्षा का एक औपचारिक अभिकरण है। पुस्तकालय में अनेक प्रकार की पुस्तकों का संकलन होता है। पुस्तकें ज्ञान का भण्डार होती हैं तथा असंख्य सूचनाओं का अधिकाधिक स्रोत भी। ज्ञात-प्राप्ति का इच्छुक कोई भी बालक या व्यक्ति पुस्तकालयों से अत्यधिक लाभ प्राप्त कर सकता है। निर्धन तथा ज्ञान-प्राप्ति के इच्छुक बालकों के लिए तो पुस्तकालय वरदानस्वरूप हैं। पुस्तकालय के वातावरण में गहन अध्ययन करना सरल एवं सुविधाजनक होता है।

6955.

शिक्षा के निष्क्रिय साधनों या अभिकरणों से क्या आशय है ?

Answer»

शिक्षा के निष्क्रिय साधन या अभिकरण (Passive Agencies of Education) शिक्षा के वे अभिकरण हैं, जिनके अन्तर्गत शिक्षा की प्रक्रिया से सम्बद्ध दो पक्षों में से केवल एक पक्ष ही प्रभावित होता है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत दूसरा पक्ष सामान्य रूप से निष्क्रिय ही रहता है। शिक्षा के निष्क्रिय अभिकरण इस अर्थ में निष्क्रिय हैं। वे दूसरों को तो प्रभावित करते हैं, किन्तु स्वयं दूसरों से प्रभावित नहीं होते। यह भी कहा जा सकता है कि इस व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा ग्रहण करने वाला तो कुछ-न-कुछ अवश्य सीखता एवं ज्ञान अर्जित करता है, परन्तु शिक्षा प्रदान करने वाला पक्ष न तो कुछ सीखता है और न ही ज्ञान अर्जित करता है। इस वर्ग के मुख्य अभिकरण हैं—रेडियो, चलचित्र, दूरदर्शन तथा पत्र-पत्रिकाएँ आदि।

6956.

शिक्षा के सक्रिय साधनों या अभिकरणों से क्या आशय है ?

Answer»

शिक्षा के सक्रिय साधनं या अभिकरण (Active Agencies of Education) शिक्षा के वे अभिकरण हैं, जिनके अन्तर्गत शिक्षा पाने वाले तथा शिक्षा देने वाले दोनों ही के व्यक्तित्व एक-दूसरे से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं। इस व्यवस्था के अन्तर्गत दोनों ही एक-दूसरे पर क्रिया और प्रतिक्रिया करते हैं तथा इस भाँति दोनों के आचरण में रूपान्तरण होता है। इस वर्ग के मुख्य अभिकरण हैं-विद्यालय, परिवार, समाज, राज्य, धर्म तथा समाजकल्याण केन्द्र आदि।

6957.

जन-संचार माध्यम शिक्षा के कौन-से अभिकरण हैं?याजन-संचार माध्यमों की क्या उपयोगिता है?

Answer»

जन-संचार के माध्यम शिक्षा के अनौपचारिक अंभिकरण (Informal Agencies of Education) हैं। जन-संचार के मुख्य माध्यम हैं–प्रेस, आकाशवाणी, दूरदर्शन, चलचित्र, पत्र-पत्रिकाएँ आदि। आजकल इण्टरनेट भी इस क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान कर रहा है। शिक्षा के इन अभिकरणों से शिक्षा प्राप्त करने के लिए नियमित रूप से न तो प्रवेश लेना पड़ता है और न ही निर्धारित नियमों का पालन करना पड़ता है। ये आजीवन शिक्षा प्रदान करने वाले अभिकरण हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि जन-संचार के माध्यम शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरण हैं।

वर्तमान परिस्थितियों में जन-संचार के माध्यमों को व्यापक शिक्षा के दृष्टिकोण से अत्यधिक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योकि इनके माध्यम से कोई भी व्यक्ति कभी भी ज्ञान अर्जित कर सकता है। ये शिक्षा के सुलभ एवं सुविधापूर्ण अभिकरण हैं। इनमें अधिक समय तथा धन भी खर्च नहीं करना पड़ता।

6958.

शिक्षा प्रदान करने वाले तथा शिक्षा ग्रहण करने वाले पक्षों के आपसी सम्बन्धों के आधार पर शिक्षा के अभिकरणों के मुख्य रूप से कौन-कौन से प्रकार निर्धारित किए गए हैं ?

Answer»

⦁    शिक्षा के सक्रिय अभिकरण तथा

⦁    शिक्षा के निष्क्रिय अभिकरण।

6959.

आपके विचार के अनुसार शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों या अभिकरणों ” में से कौन-से साधन अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ?

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शिक्षा के मुख्य रूप से दो प्रकार के अभिकरण माने गए हैं जिन्हें क्रमश: शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक अभिकरण कहा जाता है। शिक्षा के ये दोनों ही अभिकरण अपने-अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हैं। औपचारिक शिक्षा की आवश्यकता समाज की जटिलता के साथ बढ़ती जाती है। आधुनिक युग में ज्ञान, विज्ञान एवं तकनीकी कुशलता में आशातीत वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप औपचारिक शिक्षा का काफी विस्तार हुआ है, किन्तु इस विस्तार के साथ ही प्रत्यक्ष सम्पर्क और विद्यालयी अनुभवों में अवांछनीय अन्तर होने का डर भी है। ऐसा इस कारण है, क्योंकि शिक्षा के दोनों साधनों के बीच उचित सन्तुलन नहीं रखी जा सका। किसी एक साधन को अनावश्यक रूप से महत्त्व दे दिया गया, जब कि दूसरे की उपेक्षा कर  दी गई। वास्तव में, औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही साधनों को बराबर मूल्य एवं महत्त्व प्रदान किया जाना चाहिए।

6960.

शैक्षिक योग्यता का प्रमाण-पत्र शिक्षा के किस प्रकार के अभिकरणों द्वारा प्रदान किया जाता हैं ?

Answer»

शैक्षिक योग्यता का प्रमाण-पत्र शिक्षा के औपचारिक अभिकरणों द्वारा प्रदान किया जाता है।

6961.

शिक्षा के उन अभिकरणों को क्या कहा जाता है जिनमें शिक्षा ग्रहण करने वाले तथा शिक्षा प्रदान करने वाले दोनों पक्ष एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं ?

Answer»

शिक्षा के इस प्रकार के अभिकरणों को शिक्षा के सक्रिय अभिकरण कहा जाता है।

6962.

मकतब एवं मदरसे तथा गुरुकुल शिक्षा के किस प्रकार के अभिकरण हैं ?

Answer»

मकतब एवं मदरसे तथा गुरुकुल शिक्षा के औपचारिक अभिकरण हैं।

6963.

निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य⦁    विद्यालय ही शिक्षा का मुख्यतम औपचारिक अभिकरण है।⦁    शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरणों का न तो कोई महत्त्व है और न ही कोई आवश्यकता।⦁    व्यावहारिक जीवन में कुशलता अर्जित करने में शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरण सहायक होते हैं।⦁    संग्रहालय शिक्षा के औपचारिक अभिकरण हैं।⦁    राज्य शिक्षा का अभिकरण नहीं है।⦁    रेडियो शिक्षा का निष्क्रिय साधन है।

Answer»

⦁    सत्य,

⦁    असत्य,

⦁    सत्य,

⦁    सत्य,

⦁    असत्य,

⦁    सत्य।

6964.

शिक्षा की किसी भी प्रकार की प्रक्रिया के परिचालन में सहायक कारकों को माना जाता है(क) शिक्षा के अंग।(ख) शिक्षा के अभिकरण या साधन(ग) शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारक(घ) विद्यालय

Answer»

सही विकल्प है (ख) शिक्षा के अभिकरण या साधन

6965.

पूर्व-निर्धारित योजना, उद्देश्य एवं व्यवस्था के अनुसार शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षा के अभिकरणों को कहते हैं(क) महत्त्वपूर्ण अभिकरण(ख) औपचारिक अभिकरण(ग) अनौपचारिक अभिकरण(घ) निष्क्रिय अभिकरण

Answer»

सही विकल्प है (ख) औपचारिक अभिकरण

6966.

पुस्तकालय शिक्षा का अभिकरण है(क) औपचारिक(ख) अनौपचारिक(ग) औपचारिकेत्तर(घ) सक्रिय

Answer»

सही विकल्प है (क) औपचारिक

6967.

‘समुदाय’ शिक्षा के किस अभिकरण का उदाहरण है ?

Answer»

‘समुदाय’ शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरण का उदाहरण है।

6968.

शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरणों की विशेषता नहीं है(क) कोई निश्चित एवं पूर्व-र्निर्धारित पाठ्यक्रम नहीं होता।(ख) योग्यता का प्रमाण-पत्र दिया जाता है।(ग) कोई निश्चित स्थान नहीं होता।(घ) किसी-न-किसी रूप में आजीवन सक्रिय रहते हैं।

Answer»

(ख) योग्यता को प्रमाण-पत्र दिया जाता है

6969.

“अध्यापक ही केवल शिक्षक नहीं होता, केवल स्कूल या कॉलेज ही शिक्षण संस्थाएँ नहीं हैं, वरन् ऐसी कई अन्य संस्थाएँ हैं जिनका प्रभाव शैक्षिक होता है।” यह कथन किसको है?(क) स्वामी विवेकानन्द का(ख) रेमॉण्ट का(ग) फ्रॉबेल का(घ) बी० डी० भाटिया का

Answer»

सही विकल्प है (ख) रेमॉण्ट का

6970.

शिक्षा के औपचारिक अभिकरणों की विशेषता है(क) निश्चित नियमावली होती है।(ख) निर्धारित पाठ्यक्रम एवं परीक्षा का प्रावधान है।(ग) योग्यता का प्रमाण-पत्र दिया जाता है।(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ

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सही विकल्प है (घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ

6971.

गृह या परिवार शिक्षा के किस अभिकरण के उदाहरण हैं ?(क) औपचारिक अभिकरण(ख) अनौपचारिक अभिकरण(ग) निरौपचारिक अभिकरण(घ) निष्क्रिय अभिकरण

Answer»

सही विकल्प है (ख) अनौपचारिक अभिकरण

6972.

गृह-शिक्षा की मुख्य विधियाँ कौन-कौन सी हैं ?

Answer»

घर बच्चों की शिक्षा की महत्त्वपूर्ण संस्था है। घर एवं परिवार द्वारा बच्चों की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है। इस स्थिति में गृह-शिक्षा के अन्तर्गत विभिन्न विधियों को अपनाया जाता है। गृह-शिक्षा के लिए अपनाई जाने वाली मुख्य विधियाँ अग्रलिखित हैं

⦁    खेल-विधि।

⦁    कहानी-विधि।

⦁    अभ्यास-विधि।

⦁    साहचर्य-विधि।

⦁    उत्तरदायित्व-विधि।

⦁    इन्द्रिय-प्रशिक्षण-विधि।

⦁    निर्देश-विधि।

⦁    करके सीखने की विधि।

⦁    भाषा द्वारा शिक्षा।

⦁    संगीत द्वारा शिक्षा।

6973.

निम्नलिखित में कौन-सा शिक्षा का निष्क्रिय अभिकरण है?(क) गिरजाघर(ख) क्लब(ग) विद्यालय(घ) टेलीविजन

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सही विकल्प है (घ) टेलीविजन

6974.

स्पष्ट कीजिए कि बच्चों में मानवीय मूल्यों के विकास में परिवार का सर्वाधिक योगदान होता है।

Answer»

बच्चों में मानवीय मूल्यों की स्थापना में परिवार का सर्वाधिक योगदान होता है। बच्चा अपने पिता से न्याय, माता से नि:स्वार्थ प्रेम तथा भाई-बहनों से भ्रातृत्व-भाव की शिक्षा लेता है। जब बच्चा बड़ा होकर समझदार बनता है तो वह अपने परिवारजनों को परस्पर सहयोग देते हुए देखता है। वह इन सभी से सहयोग की शिक्षा ग्रहण करता है। बच्चा अपने घर में ही क्षमा, सच्चाई, सहानुभूति, उदारता तथा परिश्रम के महत्त्व को समझता है। इसके अतिरिक्त बच्चे अपने परिवार से ही परोपकार के मूल्य को सीखते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि बच्चों के मानवीय मूल्यों का सर्वाधिक विकास परिवार के द्वारा ही होता है।

6975.

बच्चों को शिक्षित करने के दृष्टिकोण से उनके प्रति माता-पिता का व्यवहार कैसा होना चाहिए?

Answer»

माता-पिता का एक मुख्य दायित्व है:-बच्चों को उचित ढंग से शिक्षित करना तथा शिक्षा की ओर उन्मुख करना। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए माता-पिता को बच्चों के प्रति सदैव सन्तुलित एवं निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों की रुचि, योग्यता एवं क्षमता आदि को जानने का प्रयास करना चाहिए तथा उन्हीं के अनुसार बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही बच्चों की क्षमताओं एवं रुचियों को उचित दिशा में विकसित करने के भी प्रयास करने चाहिए। परिवार का कोई बच्चा यदि दुर्भाग्यवश किसी क्षेत्र में पिछड़ा हुआ हो तो उस बालक के प्रति विशेष ध्यान देना चाहिए। उसकी अवहेलना नहीं की जानी चाहिए तथा उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को सदैव आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान करते रहे। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है। कि बच्चों को समुचित स्वतन्त्रता प्रदान करके अनुशासन में रहना सिखाया जाए।

6976.

स्पष्ट कीजिए कि परिवार ही बालक की शिक्षा की प्राचीनतम संस्था है।

Answer»

परिवार बालक की शिक्षा की प्राचीनतम संस्था है। आदिम काल में जब सभ्यता का कुछ भी विकास नहीं हुआ था तब भी बालक को प्रशिक्षित करने का कार्य परिवार द्वारा ही किया जाता था। बच्चों को शिकार करने, कन्द-मूल खोजने, शत्रु से मुकाबला करने के दाँव-पेंच परिवार द्वारा ही सिखाए जाते थे। वर्तमान विद्यालयों के विकास से पूर्व भी हर प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था परिवार द्वारा ही की जाती थी। स्पष्ट है कि परिवार ही बालक की शिक्षा की प्राचीनतम संस्था है।

6977.

घर को शिक्षा का पभावशाली अभिकरण कैसे बनाया जा सकता है?

Answer»

निःसन्देह घर-परिवार बालक की शिक्षा का एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। शिक्षा के इस अभिकरण को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखना अति आवश्यक है। सर्वप्रथम घर-परिवार को चाहिए कि वह बालक के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सांस्कृतिक चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर समुचित ध्यान दें। इसके लिए हरै सँम्भव उपाय किया जाना चाहिए। परिवार द्वारा बच्चों को समुचित धार्मिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। परिवार को बच्चों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास का ध्यान रखना चाहिए। इसके साथ-ही-साथ घर-परिवार को विद्यालय के साथ पूर्ण सहयोग रखना चाहिए। वास्तव में परिवार द्वारा शिक्षा की प्रक्रिया को प्रारम्भ किया जाता है तथा विद्यालय द्वारा उसे विस्तृत रूप दिया जाता है। इस स्थिति में परिवार का सहयोग अति उपयोगी सिद्ध होता है। यदि परिवार द्वारा इन सब बातों को ध्यान में रखा जाता है तो निश्चित रूप से घर-परिवार बालक की शिक्षा का एक अधिक प्रभावशाली अभिकरण बन सकता है।

6978.

गृह-शिक्षा के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।

Answer»

गृह-शिक्षा की विधियाँ (Methods of Home Education)

घर-परिवार को शिशु की प्रथम पाठशाला माना जाता है। घर पर रहकर ही शिशु हर प्रकार का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करता है। स्पष्ट है कि बच्चे की शिक्षा में घर-परिवार द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। अब प्रश्न उठता है कि गृह-शिक्षा को सुचारु एवं उत्तम बनाने के लिए किन विधियों को अपनाया जाता है। गृह-शिक्षा के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. खेल-विधि-गृह- शिक्षा में खेलों का विशिष्ट स्थान है। खेलों में बालक की जन्मजात एवं सहज रुचि होती है। खेल द्वारा आत्म-प्रकाशन का उचित अवसर मिलता है और इसके माध्यम से बच्चे अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं का अधिकतम अभिप्रकाशन कर सकते हैं। यही नहीं, खेल बालक के. समाजीकरण का प्रभावशाली साधन भी हैं। खेल में बालक पास-पड़ोस के बच्चों के सम्पर्क में आता है और उनसे अच्छी-अच्छी बातें सीखता है। खेलों द्वारा दी गई शिक्षा सरल एवं स्वाभाविक होती है।

अतः शुरू से ही घर के बच्चों को खेल-विधि द्वारा शिक्षा देने का अधिकाधिक प्रयास करना चाहिए। माता-पिता का दायित्व है। कि वे अपने परिवार में भाँति-भाँति के खेलों का आयोजन कर बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करें। एक ओर जहाँ खेलों द्वारा बालक को मौलिकता, सहयोग, सद्भाव, भाई-चारा, परोपकार तथा आत्मनिर्भरता की शिक्षा दी जा सकती है, वहीं दूसरी ओर परिवार में खेल के माध्यम से कहानियाँ, इतिहास, वर्णमाला तथा गिनती का ज्ञान भी आसानी से कराया जा सकता है। आजकल शिशुओं को मॉण्टेसरी व किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धतियों द्वारा मनोवैज्ञानिक आधार पर खेल-विधि द्वारा ही उत्तम शिक्षा दी जाती है।

2. कहानी-विधि-छोटे बच्चे कहानी सुनना पसन्द करते हैं। कहानी के माध्यम से उनकी कल्पना, विचार एवं तर्क-शक्ति का विकास होता है। पुराने जमाने से ही बड़े-बड़े लोग घर के बच्चों को धार्मिक, पौराणिक तथा शिक्षाप्रद कहानियाँ सुनाते आए हैं जो बालक के ज्ञान, गह-शिक्षा की विधियाँ सामाजिक व नैतिक गुणों के विकास में मदद देती हैं। कहानियाँ छोटी, रोचक और आयु के अनुसार होनी चाहिए।
3. अभ्यास-विधि-सीखने में अभ्यास का विशेष महत्त्व है।” अभ्यास-विधि बालक को कोई क्रिया सिखाने के लिए उसे बार-बार करने का अवसर देना चाहिए। इस भाँति निरन्तर अभ्यास द्वारा बालक के मानसिक विचार दृढ़ एवं स्थायी हो जाते हैं। अभ्यास-विधि केइन्द्रिय-प्रशिक्षण-विधि अन्तर्गत एक ही क्रिया को दोहराने में बालक को आनन्द आता है और वह उस कार्य को अच्छी प्रकार से सीख लेता है। गणित एवं संगीत की शिक्षा में अभ्यास-विधि अतीव उपयोगी सिद्ध हुई है। इसके अलावा मन्द बुद्धि बालकों के लिए इसे सर्वोत्तम विधि माना गया है।
4. साहचर्य-विधि-साहचर्य-विधि के अन्तर्गत बालक की “ शिक्षा-सम्बन्धी क्रियाओं को उसके ‘आनन्दमयपूर्व अनुभवों से सम्बन्धित किया जाता है। किसी कार्य को सीखने के लिए उसके प्रति बालक की रुचि जाग्रत होना आवश्यक है और आनन्ददायक कार्य या अनुभव में बालक की रुचि होना स्वाभाविक है। अत: साहचर्य विधि द्वारा बालक कार्य में रुचि प्रदर्शित कर उसे आसानी से सीख लेते हैं। बालक में सहयोग, भाईचारा, अनुशासन तथा सामाजिक गुणों का विकास करने हेतु यह विधि अत्यन्त उपयोगी है। वस्तुत: घर-परिवार में बालक साहचर्य द्वारा बहुत-से अच्छे कार्य सीख लेता है।
5. उत्तरदायित्व-विधि-जैसे- जैसे बच्चा बड़ा और समझदार होता जाता है, कहे गए कार्य को पूरा करने में आनन्द अनुभव करने लगता है। जिम्मेदारी या उत्तरदायित्व की भावना बालक में उत्साह, आत्मविश्वास तथा कार्यकुशलता का विचार जाग्रत करती है। माता-पिता को चाहिए कि वे उपयुक्त अवसर जानकर बालक को छोटे-मोटे कार्य की जिम्मेदारी अवश्य सौंपे। जिम्मेदारी के काम को बालक अविलम्ब और प्रभावशाली ढंग से सफलतापूर्वक करने का प्रयास करता है। कार्य की सफलता उसे अभिप्रेरित करती है। गृह-शिक्षा के दौरान बच्चे को पहले छोटे और शनैः-शनै: बड़े कार्यों का उत्तरदायित्व सौंपना अत्यन्त हितकर ,
6. इन्द्रिय-प्रशिक्षण-विधि- बालक की ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का उसकी शिक्षा में विशेष योगदान रहता है। बालक को बाह्य जगत् की जानकारी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही मिलती है। ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान का प्रवेश द्वार कहलाती हैं और इनकी कार्यकुशलता से वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है। यही कारण है कि मनोवैज्ञानिक तथा शिक्षाशास्त्री बालक को शुरू से ही दृष्टि, स्पर्श, श्रवण, स्वाद तथा घ्राण सम्बन्धी ज्ञानेन्द्रियों का विशिष्ट प्रशिक्षण देने का परामर्श देते हैं। बालक की कर्मेन्द्रियों का विकास भी बालपन की आरम्भिक स्थिति से होना चाहिए। भाँति-भाँति की शैक्षिक प्रविधियों को प्रयोग कर बालक को शारीरिक अंगों को मस्तिष्क से सन्तुलन सिखाया जाए। इसके अलावा परिवार में विविध रंग तथा ध्वनि वाले खिलौने और शैक्षिक उपकरण होने आवश्यक हैं, जिनकी सहायता से बालक की ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के बीच मधुर सामंजस्य स्थापित किया जा सके।
7. निर्देश-विधि- बालक को कुछ जीवनोपयोगी बातों; जैसे-सदैव सत्य बोलना, बड़ों की आज्ञा मानना, सभी का आदर करना, चोरी न करना आदि का सीधे-सीधे निर्देश देना पड़ता है। माता-पिता यदि अच्छी बातों व आदर्श कार्यों को करने का बच्चों को निर्देश देंगे तो बच्चे अवश्य ही अनुकूल व्यवहार करेंगे। अत: गृह-शिक्षा में निर्देश विधि भी अत्यन्त उपयोगी है।
8.करके सीखने की विधि- जब बच्चे अपनी रुचि के अनुकूल कार्य को स्वयं करते हैं तो वे न केवल अधिक अच्छा महसूस करते हैं, बल्कि उत्साहित भी होते हैं। स्वयं या परिवार से सम्बन्धित सामान्य समस्याओं को अपने निजी प्रयास से हल करने से बालकों में आत्मविश्वास तथा अभिप्रेरणा का विकास होता है। उनमें प्रतिदिन अच्छे कार्य करने की आदत पड़ती है और वे अधिकांश कार्य सीख जाते हैं। अत: परिवार में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जानी चाहिए, जिससे बालक स्वयं कार्य करके सीखने के लिए प्रेरित हो सके।
9. भाषा द्वारा शिक्षा- भाषा गृह-शिक्षा की एक महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी विधि है। भाषा द्वारा भावनाओं को अभिव्यक्ति मिलती है। बच्चे विभिन्न ध्वनियों द्वारा अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं। यही नहीं, वे ध्वनि सुनकर उत्तेजित भी होते हैं और लगातार शब्दों की ध्वनि सुनकर पुन: उसके अनुकरण का प्रयत्न करते हैं। वास्तव में बच्चों को भाषा का ज्ञान अनुकरण द्वारा ही होता है। माता-पिता बच्चे के सम्मुख बहुत-से शब्द उच्चारित करते हैं, जिनका अनुकरण करके वह शुद्ध बोलना सीखता है। कुछ समय तक अभ्यास करके बालक का भाषा के बोलने व लिखने पर अधिकार हो जाता है। स्पष्टतः भाषा द्वारा शिक्षा परिवार के सदस्य ही प्रदान करते हैं।
10. संगीत द्वारा शिक्षा- बच्चे विशेषतः संगीत की ओर आकर्षित होते हैं और इसके परिणामस्वरूप उनके भाषा-ज्ञान में पर्याप्त वृद्धि होती है। प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि भाव-गीतों के साथ-साथ अभिनय से बालक का शारीरिक, मानसिक व सांवेगिक विकास होता है। किसी विषय-वस्तु को गीत रूप में याद करने में वह जल्दी ही याद हो जाती है। यही कारण है कि प्राइमरी स्तर पर शिशुओं को वर्णमाला, गिनती या पहाड़ों का ज्ञान गीतों के माध्यम से कराया जाता है। फ्रॉबेल ने अपनी किण्डरगार्टन प्रणाली में गीतों को उल्लेखनीय स्थान प्रदान किया है।

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गृह-शिक्षा के मुख्य सिद्धान्तों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।

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गृह-शिक्षा के सिद्धान्त (Principles of Home Education)

परिवार को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के लिए निम्नलिखित सामान्य सिद्धान्तों पर विचार किया जा सकता है

1. शारीरिक विकास का सिद्धान्त- बालक के शारीरिक विकास का सीखने की क्रियाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अभिभावकों को शरीर विज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए ताकि बालक के शारीरिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार शिक्षा की समुचित व्यवस्था की जा सके। शरीर वैज्ञानिक मानते हैं कि बाल-जीवन के पहले 6 वर्षों में बच्चे के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। उसके सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, गृह-शिक्षा के सिद्धान्त स्वच्छ व हवादार आवास, चलने-फिरने, बोलने तथा व्यवहार के शारीरिक विकास का सिद्धान्त तौर-तरीकों पर भी ध्यान देना चाहिए। घर में बालक को शिक्षा देते समय शारीरिक विकास का सिद्धान्त अभिभावकों के लिए परमे। उपयोगी सिद्ध होता है।
2. बाल-मनोविज्ञान का सिद्धान्त- रूसो का कथन है, खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त बालक ऐसी पुस्तक है जिसे शिक्षक को आदि से अन्त तक पढ़ना पड़ता है। क्योंकि गृह-शिक्षा के सन्दर्भ में घर-परिवार के सदस्य ही शिक्षक की भूमिका निभाते हैं। अत: परिवार में माता-पिता और परिवार के अन्य वयस्क सदस्यों को बालमनोविज्ञान का ज्ञान अवश्य ही होना चाहिए। बाल-मनोविज्ञान के सिद्धान्त बालक की रुचियों, अभिरुचियों, आदतों, योग्यताओं, क्षमताओं, स्वभाव, भावनाओं तथा निर्माण आवश्यकताओं को समझने में अभिभावकों की भरपूर मदद करते हैं। इसके साथ ही, बाल-मनोविज्ञान का सिद्धान्त व्यावहारिक ज्ञान के सहज एवं स्वाभाविक विकास में योगदान देता है। वस्तुतः बालक की बुद्धि, मानसिक शक्तियों, प्रवृत्तियों तथा व्यक्तित्व की विशेषताओं के आधार पर ही उसकी शिक्षा की उचित व्यवस्था की जा सकती है।
3. बाल-केन्द्रित शिक्षा का सिद्धान्त-आधुनिक शिक्षा प्रणाली बाल-केन्द्रित शिक्षा के विचार पर आधारित है। इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा में अन्य तत्त्वों की अपेक्षा बालक को प्रमुखता दी जानी चाहिए। प्रायः अनुभव किया जाता है कि शिक्षा के सन्दर्भ में माता-पिता बालक की रुचि तथा अभिरुचि की अवहेलना कर अपनी ही इच्छा व आकांक्षा को थोपने का प्रयास करते हैं। इससे धन, शक्ति और समय का दुरुपयोग होता है। बाल-केन्द्रित शिक्षा का सिद्धान्त बालक की रुचि, योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार ही उसकी शिक्षा के प्रबन्ध पर बल देता है। अतः अभिभावकों का कर्तव्य है कि वे अपने बच्चे को बाल-केन्द्रित शिक्षा के सिद्धान्त पर आधारित शिक्षा ही दिलाएँ।
4. क्रियाशीलता का सिद्धान्त- बच्चों में जन्म से और स्वभावतः क्रियाशीलता की प्रवृत्ति पायी जाती ” है। वे कभी भी शान्त होकर नहीं बैठते, हमेशा ही कुछ-न-कुछ करते रहते हैं। वस्तुत: बालक किसी काम को स्वयं करके शीघ्र और प्रभावशाली ढंग से सीख लेते हैं। अत: माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों की क्रियाशील प्रवृत्तियों का महत्त्व समझे और उनकी रचनात्मक क्रियाओं को अधिकाधिक प्रोत्साहित करें। क्रियाशीलता के परिणामस्वरूप बालक की अन्त:शक्तियों का प्रकाशन होता है। स्पष्टत: क्रियाशीलता का सिद्धान्त ‘स्वयं करके सीखने के विचार पर आधारित एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।
5. खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त- “खेल” बालक द्वारा आनन्दपूर्वक की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं का नाम है। यह बालक की एक सामान्य प्रवृत्ति है जो उसकी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सन्तुलन बनाती हुई उसके शारीरिक व मानसिक विकास में सहायता देती है। कर्मेन्द्रियों पर आधारित बालक की समस्त क्रियाशीलता का स्वतन्त्र अभिप्रकाशन खेल के माध्यम से होता है। निश्चय ही वह खेल के द्वारा। काफी कुछ सीखता है और अपनी रचनात्मक शक्तियों का विकास करता है। अभिभावकों को चाहिए कि वे घर-परिवार के अधिकांश कार्य बच्चों से खेल द्वारा कराएँ और इस भाँति उन्हें खेल-खेल में शिक्षित करने का प्रयास करें।
6. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त-बालक के सन्तुलित व्यक्तित्व-निर्माण तथा स्वाभाविक व सर्वांगीण विकास की दृष्टि से उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। इसके लिए परिवार में स्वतन्त्र वातावरण अपेक्षित है। बालक पर अनावश्यक एवं अनुचित बन्धन थोपने या अत्यधिक नियन्त्रण लगाने के फलस्वरूप उसमें हीनता की ग्रन्थियाँ बन जाती हैं और उसका व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाता है। वह धीरे-धीरे उद्दण्ड और विद्रोही प्रकृति का बनकर अपने भावी जीवन को खराब कर लेता है। अत: गृह-शिक्षा के अन्तर्गत माता-पिता को बालकों की स्वतन्त्रता का समुचित ध्यान रखना चाहिए।
7. आत्मानुशासन का सिद्धान्त अनुशासन के सभी प्रकारों में आत्मानुशासन श्रेष्ठ है। आत्मानुशासन के अन्तर्गत बालक अपनी प्रवृत्तियों, इच्छाओं, क्रियाओं तथा निज के व्यवहार पर स्वयं ही नियन्त्रण रखने का प्रयास करते हैं। स्वशासन व स्वव्यवस्था का प्रशिक्षण मिलने पर वे आवश्यकतानुसार अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में सफलता प्राप्त करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार परिवार में माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को छोटी-छोटी गलतियों पर डाँटने या सजा देने के बदले उन्हें प्यार से समझाएँ। परिवार के क्रियाकलापों में बालकों का सहयोग लेने की दृष्टि से उन्हें जिम्मेदारी के कुछ कार्य भी सौंपे जाने चाहिए।
8. सहानुभूति का सिद्धान्त- घर में अभिभावकों को सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार बच्चों को अपने माता-पिता के अधिक निकट लाता है। अतः बालक के प्रति घर के सदस्यों का व्यवहार हमेशा ही सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए। माता-पिता से भयभीत और अलग रहने वाले बच्चे अपने कष्टों और कठिनाइयों को उनके सामने रखने से सकुचाते हैं और परिणामस्वरूप मानसिक उलझनों व ग्रन्थियों के शिकार हो जाते हैं। सहानुभूति का सिद्धान्त बात-बात पर बच्चों को अपमानित या लांछित करने का विरोधी और उन्हें अधिकाधिक लाड़-प्यार एवं स्नेह देने का प्रबल समर्थक है।
9. निष्पक्ष व्यवहार का सिद्धान्त- माता-पिता को घर के सभी बच्चों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए। पक्षपातपूर्ण व्यवहार का बालक के व्यक्तित्व एवं मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा और प्रतिकूल असर पड़ता है। आवश्यक रूप से घर के प्रत्येक बच्चे के अच्छे कार्यों की प्रशंसा की जाए और सभी बच्चों को समान महत्त्व प्रदान किया जाए। घर के किसी बच्चे के साथ असमान व्यवहार करने में वह स्वयं को हीन एवं उपेक्षित समझने लगता है, जिससे उसके व्यक्तित्व का सही विकास रुक जाता है। स्पष्टत: अभिभावकों का परम कर्तव्य है कि वे बच्चों के साथ पक्षपातरहित व्यवहार करें।
10. उत्तम चरित्र एवं आदतों का निर्माण- मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि बालक सदैव अनुकरण से सीखते हैं। परिवार के सदस्यों को देखकर वे अच्छी और बुरी आदतों का अनुकरण करते हैं। बालक के चरित्र व आदतों में ही उसके भविष्य की सफलता का रहस्य छिपा है। अत: माता-पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि बालक में उत्तम चरित्र और श्रेष्ठ आदतों का निर्माण हो। इसके लिए बालकों के समक्ष परिवार में नैतिकता, सदाचार, स्वच्छता तथा सामाजिक जीवन के आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किए जाएँ।

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परिवार के मुख्य शैक्षणिक कार्यों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।याघर अथवा परिवार के शैक्षिक कार्यों का विस्तार से वर्णन कीजिए।

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प्रसिद्ध विद्वान् ऑगबर्न तथा निमकॉफ ने परिवार के सात कार्य निर्धारित किए हैं-धार्मिक, आर्थिक, शैक्षिक, पारिवारिक स्थिति, प्रेम सम्बन्धी, रक्षा सम्बन्धी तथा मनोरंजन सम्बन्धी। उन्होंने इन कार्यों में शैक्षिक कार्यों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है। पारिवारिक शिक्षा के कुछ महत्त्वपूर्ण उद्देश्य एवं कार्य निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किए जा सकते हैं–

परिवार के मुख्य शैक्षणिक कार्य
(Main Educational Functions of Family)

1.शारीरिक विकास- शरीर का स्वास्थ्य और उसका समुचित विकास मनुष्य के जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। कहते हैं स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। अतः बालक के शारीरिक स्वास्थ्य एवं विकास हेतु पौष्टिक, सन्तुलित भोजन तथा नियमित दिनचर्या को प्रबन्ध किया जाना चाहिए। परिवार बालक के शारीरिक विकास हेतु पौष्टिक भोजन, वस्त्र, मनोरंजन, व्यायाम, खेलकूद, उचित वातावरण, चिकित्सा और विश्राम आदि की व्यवस्था करता है। इसीलिए परिवार का पहला शैक्षिक उद्देश्य एवं कार्य बालक का शारीरिक विकास है।
2. मानसिक विकास- परिवार का वातावरण बालक की मानसिक शक्तियों, रुचियों और प्रवृत्तियों के निर्माण एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि बालक की जिज्ञासा और कल्पना-शक्ति उसके मानसिक विकास की आधारशिला होती है। अत: परिवार का शैक्षिक दायित्व है कि वह यथोचित उत्तर के माध्यम से बालक की जिज्ञासा और उत्सुकता को शान्त करे, उनका दमन न करे। बौद्धिक विकास की दृष्टि से परिवार को भी चाहिए कि वह बालक को सर्वोत्तम एवं वांछित साहित्य सुलभ कराए। वस्तुतः बालक की निरीक्षण, परीक्षण, चिन्तन, कल्पना, विचार आदि मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण परिवार से ही शुरू हो जाता है।
3. भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास- गृह शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य एवं कार्य बालक का भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास है। बालक में घर की सफाई तथा सौन्दर्यकरण द्वारा कलात्मक विषयों के प्रति रुचि जाग्रत की जानी चाहिए। साहित्य, संगीत और कला आदि में विशेष रुचि रखने वाले परिवार के बालकों में भावात्मकःप्रवृत्तियाँ आवश्यक रूप से मिलती हैं। इसके अलावा प्रत्येक समाज की संस्कृति के पालन, संरक्षण तथा हस्तान्तरण का पहला और सार्थक कार्य परिवार के माध्यम से ही सम्भव है। परिवार में रहते हुए बालक सहज और अनजाने ही संस्कृति को ग्रहण कर लेता है। अत: बालक के भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास हेतु घर का वातावरण सदाचरण से युक्त होना चाहिए।
4.चारित्रिक एवं नैतिक विकास- बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास की आधारशिला घर-परिवार में ही रखी जाती है। बालक में शुरू से ही अनुकरण करने की आदत होती है। अत: परिवार के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे बालक में उत्तम चरित्र और नैतिक मूल्यों के निर्माण हेतु सत्य, न्याय, प्रेम, दया, उदारता, सहानुभूति, सहिष्णुता, शिष्टाचार तथा श्रद्धा की भावना जगाएँ। सच तो यह है कि बालक के नैतिक-चरित्र की रूपरेखा विद्यालय जाने से पूर्व छोटी अवस्था में घर पर ही बन जाती है। अतः गृह-शिक्षा के माध्यम से बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
5. धार्मिक शिक्षा- धार्मिक शिक्षा के अभाव में बालक का पूर्ण नैतिक-चरित्र विकसित नहीं हो सकता। एक धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्र परिवार के मुख्य शैक्षणिक कार्य होने के कारण हमारे देश में धार्मिक शिक्षा देने के लिए परिवार का शारीरिक विकास उत्तरदायित्व विशेष रूप से बढ़ गया है। घर में धर्म-ग्रन्थों को पढ़ने, मानसिक विकास धार्मिक कथाएँ सुनने, पूजा-अर्चना तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में भावात्मक एवं सांस्कृतिक सम्मिलित होने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं, जिसके फलस्वरूप विकास बालक का धर्म में विश्वास एवं आस्था दृढ़ होती है। पारिवारिक चारित्रिक एवं नैतिक विकास वातावरण से प्राप्त धार्मिक शिक्षा बालक को जीवन-पर्यन्त प्रभावित धार्मिक शिक्षा । करती है। अतः परिवार को एक शैक्षिक उद्देश्य एवं कार्य धार्मिक आदत, रुचि एवं पसन्द का शिक्षा भी है। 
6. आदत, रुचि एवं पसन्द का विकास- बालक में सामाजिक भावना का विकास अच्छी-बुरी आदतों, रुचियों एवं पसन्दों का विकास परिवार में ही व्यावसायिक विकास होता है। घर के सदस्यों की आदतों को देखकर बालक अनजाने ही व्यक्तित्व का विकास उन्हें ग्रहण कर लेता है। घर की सुन्दर व आकर्षक वस्तुओं में उसकी रुचि अधिक होती है। इसी भाँति बालक की अलग-अलग चीजों के प्रति पसन्दगी या नापसन्दगी भी पारिवारिक वातावरण पर निर्भर करती है। अत: यह आवश्यक है कि अच्छी आदतों, रुचियों एवं पसन्दों के विकास हेतु अभिभावकगण अपने बच्चों के सम्मुख श्रेष्ठ उदाहरण ही प्रस्तुत करें।
7. सामाजिक भावना का विकास- परिवार एक छोटा-सा समाज है जो बालक को सामाजिक आदर्श एवं परम्पराओं के नमूने और आदर्श आचरण एवं व्यवहार के तरीके सिखाता है। परिवार के वातावरण में ही बालक को पहली बार सहयोग, सद्भावना, न्याय तथा अन्याय की अनुभूति होती है। स्पष्टतः परिवार ही बालक के सामाजिक जीवन का पहला शैक्षिक केन्द्र है, जहाँ उसमें अभीष्ट सामाजिक भावनाओं का विकास होता है।
8. व्यावसायिक विकास- गृह-शिक्षा का एक उद्देश्य एवं कार्य यह भी है कि वह बालक की व्यावसायिक रुचियों एवं अभिरुचियों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर उसे उचित व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करे। वस्तुतः बालक की व्यावसायिक रुचियों व आकांक्षाओं की जितनी व्यापक जानकारी उसके परिवार के सदस्यों को हो सकती है, उतनी समाज की अन्य व्यावसायिक एवं प्रशिक्षण संस्थाओं को नहीं हो सकती। प्राचीनकाल में आयु बढ़ने के साथ-साथ बालके पैतृक व्यवसाय में हाथ बँटाकर प्रशिक्षण प्राप्त करता था और इस भाँति कुशलता प्राप्त कर लेता था।
9. व्यक्तित्व का विकास- बालक के व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, धार्मिक, नैतिक तथा सामाजिक आदि विभिन्न पक्षों का विकास परिवार के बीच रहकर ही होता है। बचपन में पड़ने वाले अच्छे संस्कारों का प्रभाव स्थायी होता है और यह बालक के व्यक्तित्व को सन्तुलित एवं सुन्दर बनाता है। वस्तुतः गृह शिक्षा बालक के व्यक्तित्व के भावी विकास का स्वरूप एवं दिशा निर्धारित करती है।
इस भाँति घर या परिवार ही वह प्रथम स्थान है, जहाँ बालक जीवन की अनेकानेक शिक्षाएँ ग्रहण करता है। गृह-शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य एवं कार्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है। रेमॉण्ट ने उचित  ही लिखा है, “सामान्य रूप से घर ही वह स्थान है जहाँ बालक अपनी माँ से चलना, बोलना, मैं और तुम में .. अन्तर करना और अपने चारों ओर की वस्तुओं के सरलतम गुणों को सीखता है।”

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परिवार से आप क्या समझते हैं ? एक संस्था के रूप में परिवार के शैक्षिक महत्व को स्पष्ट कीजिए।या“गृह बालक की शिक्षा की प्रथम पाठशाला है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।याबालक/बालिका की शिक्षा में गृह का क्या महत्त्व है ?याशिक्षा के अभिकरण के रूप में घर के महत्व पर प्रकाश डालिए।याशिक्षा के अभिकरण के रूप में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिए।

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गृह या परिवार का अर्थ एवं परिभाषा(Meaning and Definition of Home or Family)

गृह या परिवार समाज का लघु रूप और सामाजिक व्यवस्था का प्रमुख आधार है। व्यक्ति का समाजीकरण परिवार के माध्यम से ही होता है। मनुष्य शिशु के रूप में परिवार में जन्म लेता है, पालित-पोषित एवं विकसित होता है। शैक्षिक प्रक्रिया के अन्तर्गत सीखने की दृष्टि से शिशु अवस्था को आदर्श काल माना गया है। इस अवस्था के विकास में गृह या परिवार का सर्वाधिक योगदान होता है। नि:सन्देह परिवार, शिक्षा का प्रभावशाली अभिकरण या साधन होने के कारण बालक की शिक्षा में प्राथमिक एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री पी० वी० यंग एवं मैक का विचार है, “परिवार सबसे पुराना और मौलिक मानव-समूह है। पारिवारिक ढाँचे का विशिष्ट स्वरूप एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न हो सकता है और होता है, पर सब जगह परिवार के मुख्य कार्य हैं-बच्चे का पालन करना और उसे समाज की संस्कृति से परिचित कराना–सारांश में उसका समाजीकरण करना।”

सामाजिक संगठनों में सर्वाधिक प्राचीन तथा प्रमुख संगठन ‘परिवार’ है। यह समाज की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है और सबसे अधिक मौलिक सामाजिक समूह भी है। एकांकी परिवार में सामान्यत: पति-पत्नी और उनके बच्चे होते हैं, जब कि संयुक्त परिवार में पति या पत्नी के माता-पिता, उनके अन्य भाई-बहन या दो-तीन पीढ़ियों के सदस्य एक साथ मिलकर रहते हैं।

‘परिवार’ शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर ‘Family’ शब्द ‘Famulus’ से बना है, जिसका अर्थ है’Servant’ नौकर। यही कारण है कि कुछ प्राचीन समाजों में नौकरों को भी परिवार का ही सदस्य माना जाता था।
गृह या परिवार की निम्नलिखित परिभाषाएँ इसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं|

⦁    क्लेयर के अनुसार, “परिवार से हम सम्बन्धों की वह व्यवस्था समझते हैं, जो माता-पिता और उनकी सन्तानों के बीच पायी जाती है।”
⦁    मैकाइवर तथा पेज के मतानुसार, “परिवार उस समूह का नाम है जिसमें स्त्री-पुरुष का यौन सम्बन्ध पर्याप्त निश्चित हो और इनका साथ इतनी देर तक रहे जिससे सन्तान उत्पन्न हो जाए और उसका पालन-पोषण भी किया जाए।
⦁    बील्स तथा हाइजर के कथनानुसार, “संक्षेप में, परिवार को सामाजिक समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके सदस्य रक्त सम्बन्धों द्वारा बँधे रहते हैं।”

संस्था के रूप में परिवार का शैक्षिक महत्त्व
(Educational Importance of Family as Institution)

परिवार सदैव ही बालक पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ता है। बालक का जन्म, विकास और समाजीकरण परिवार से ही शुरू होता है। उसकी आधारभूत आवश्यकताएँ भी घर या परिवार से ही पूरी होती हैं। परिवार के वातावरण का प्रभाव बालक के विकास के सभी स्तरों पर पड़ता है। लॉरी का कथन है, “शैक्षिक इतिहास । के सभी स्तरों पर परिवार बालक की शिक्षा का प्रमुख साधन है।” अधिकांशत: बालक वैसा ही बनता है, जैसा उसका परिवार उसे बनाना चाहता है। अपने परिवार के सदस्यों का अनुकरण करके ही बच्चे अच्छे या बुरे गुण सीखते हैं। एक ओर जहाँ शिवाजी मराठा, गोपालकृष्ण गोखले, महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक आदि महापुरुषों का सदाचरण अपने परिवार की आदर्श पृष्ठभूमि पर आधारित था, वहीं दूसरी ओर एच० सी० एण्डरसन यह भी प्रमाण देते हैं, “हमारे अपराधियों में से 80 प्रतिशत अपराधी असहानुभूतिपूर्ण परिवारों से आते हैं।’

बालक की शिक्षा के सन्दर्भ में समाज की मौलिक संस्था परिवार का महत्त्व निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है–
1. शिक्षा की प्राचीनतम संस्था- प्राचीन समय में बालक के संस्था के रूप में परिवार का लालन-पालने, विकास तथा शिक्षा-दीक्षा के लिए परिवार ही शैक्षिक महत्त्व उत्तरदायी था। प्रागैतिहासिक काल से लेकर ईसा की, दसवीं सदी पूर्व शिक्षा की प्राचीनतम संस्था तक भारत में बालकों को व्यवस्थित रूप से शिक्षा देने के लिए परि विद्यालय नहीं थे, तब परिवार और विद्यालय अलग-अलग नहीं थे, अच्छी आदतों की शिक्षा और शिक्षा का कार्य परिवार द्वारा ही सम्पन्न किया जाता था। वस्तुतः उस समय परिवार ही विद्यालय था और माता-पिता गुरुजन। वैदिक व्यक्तित्व एवं संस्कृति का तथा उपनिषद् काल में परिवार का नेता अपने पुत्रों को वेद, साहित्य, विकास धर्म, व्यवसाय, कृषि, व्यापार आदि का ज्ञान देता था। इस प्रकार शिक्षा , व्यावसायिक शिक्षा का केन्द्र की प्राचीनतम संस्था के रूप में परिवार का बड़ा महत्त्व था।
2. परिवार का आश्रय एवं अनुकरण- मानव-शिशु जन्म से असहाय होता है। अपनी विभिन्न क्रियाओं; जैसे–खाना-पीना, चलना-फिरना, बोलना तथा जीवन के बहुत-से कार्यों के लिए बालक माता-पिता पर निर्भर करता है। वह इन सभी क्रियाओं को परिवारजनों के अनुकरण द्वारा ही सीखता है। इस भाँति, आश्रय एवं अनुकरण की दृष्टि से बालक के जीवन में परिवार का सर्वोपरि स्थान है।
3. अच्छी आदतों की शिक्षा- बालक को अच्छी आदतों की शिक्षा अपने घर-परिवार से ही मिलती है। परिवार के बीच में रहकर ही वह सत्य, न्याय, प्रेम, दया, करुणा तथा श्रम का महत्त्व सीखता है। इस बारे में। रेमॉण्ट का यह कथन उल्लेखनीय है, “घर ही वह स्थान है, जहाँ वे महान् गुण उत्पन्न होते हैं, जिनकी सामान्य विशेषता ‘सहानुभूति’ है। घर में ही घनिष्ठ प्रेम की भावनाओं का विकास होता है। यहीं बालक उदारता एवं अनुदारता, नि:स्वार्थ एवं स्वार्थ, न्याय एवं अन्याय, सत्य एवं असत्य, परिश्रम एवं आलस्य में अन्तर सीखता है। यहीं उसमें इनमें से कुछ की आदत सबसे पहले पड़ती है।” अच्छी आदत सिखाने की दृष्टि से परिवार का बहुत महत्त्व है।
4. बालक का समाजीकरण- सामाजिक दृष्टि से परिवार में ही बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया शुरू होती है। परिवार बालक को समाज की आवश्यकताओं के अनुसार ढालता है। समाज में रहने-सहने, व्यवहार करने, सम्बोधन, जीवन-यापन एवं प्रतिक्रियाएँ करने के तरीके परिवार से ही सीखे जाते हैं। परिवार बालक के समाजीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।
5. व्यक्तित्व एवं संस्कृति का विकास- परिवार बालक के व्यक्तित्व एवं संस्कृति का निर्माता एवं ” पोषक है। व्यक्तित्व के प्रारम्भिक तथा मौलिक गुणों का निर्माण परिवार से होता है और मानव के व्यक्तित्व का परिचय परिवार की संस्कृति से प्राप्त होता है। सदरलैण्ड और वुडवर्थ ने लिखा है, “वास्तव में परिवार व्यक्तित्व के सामान्य प्रकार पर छाप लगा देता है। परिवार के अच्छे और बुरे संस्कारों का भी पर्याप्त प्रभाव बालक पर पड़ता है। जैसा कि बर्गेस और लॉक का कथन है, “परिवार बालक पर सांस्कृतिक प्रभाव डालने वाली एक मौलिक समिति है और पारिवारिक परम्परा बालक को उसके प्रति प्रारम्भिक व्यवहार, प्रतिमान एवं आचरण का स्तर प्रदान करती है।”
6. व्यावसायिक शिक्षा का केन्द्र- सामान्यत: परिवार ही समस्त आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र होता है। अत: अपने आरम्भिक जीवन में बालक आर्थिक दृष्टि से परिवार पर ही निर्भर करता है। आजकल उत्पादन का कार्य परिवार से बाहर चला गया है, किन्तु पहले यह परिवार के अन्तर्गत ही था और इसी कारण बालक के लिए व्यावसायिक शिक्षा का केन्द्र होता था। आज भी परिवार के आश्रय, प्रयासों तथा सहयोग द्वारा ही बालक आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी बनने की शिक्षा प्राप्त करता है।

परिवार : बालकों की प्रथम पाठशाला (Family: Child’s First School)

विश्व के सभी शिक्षाशास्त्रियों ने बालक की शिक्षा के सन्दर्भ में परिवार के महत्त्व को एकमत से स्वीकार किया है। आदि काल से आज तक बालक की शिक्षा को श्रीगणेश घर-परिवार के आँगन से होता आया है। और परिवार की शिक्षा ने ही सदैव उसके संस्कारों पर अमिट छाप छोड़ी है। बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य के व्यक्तित्व, चरित्र, आचरण, व्यवहार, आदर्श एवं जीवन-मूल्यों का बीजारोपण उसकी शैशवावस्था में परिवार के माध्यम से होता है। मैजिनी कहते हैं, “बालक नागरिकता का सुन्दरतम् पाठ माता के चुम्बन और पिता के दुलार से सीखता है।” महात्मा गांधी की दृष्टि में, “बालक को प्रथम पाँच वर्षों में जो शिक्षा प्राप्त होती है वह फिर कभी नहीं मिलती।” मॉण्टेसरी विद्यालय को ‘बालघर’ (Children’s Home) मानते हुए शिशु शिक्षा में परिवार के वातावरण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक स्वीकार करते हैं। पेस्टालॉजी का स्पष्ट विचार है, “घर ही शिक्षा का सर्वोत्तम साधन और बालक का प्रथम विद्यालय है।”

इस भाँति, निष्कर्ष रूप में परिवार का वातावरण ही बालक का भविष्य निर्धारित करता है और कुल मिलाकर यह चित्र उभरता है कि परिवार बालकों की प्रथम पाठशाला है। इसी के समर्थन में बोगाईस के शब्द यहाँ उद्धृत करने योग्य हैं, “परिवार-समूह मानव की प्रथम पाठशाला है। प्रत्येक व्यक्ति की अनौपचारिक शिक्षा सामान्य रूप से परिवार में ही प्रारम्भ होती है। बालक की शिक्षा-प्राप्ति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समय परिवार में ही व्यतीत होता है।”

6982.

बच्चों के नैतिक विकास के लिए गृह-शिक्षा के अन्तर्गत किस विधि को अपनाना चाहिए?

Answer»

कहानी विधि को अपनाकर बच्चों का समुचित नैतिक विकास किया जा सकता है।

6983.

बालक की शिक्षा में घर-परिवार के योगदान को स्पष्ट कीजिए।

Answer»

बालक की शिक्षा में घर-परिवार का योगदान
(Contribution of Family in Child’s Education)

बालक की शिक्षा की प्रक्रिया घर-परिवार से ही प्रारम्भ होती है। शिक्षा अपने आप में एक अत्यधिक व्यापक एवं बहुपक्षीय प्रक्रिया है। शिक्षा की प्रक्रिया के प्रत्येक पक्ष में घर-परिवार का सर्वाधिक योगदान है। सर्वप्रथम हम कह सकते हैं कि बालक को भाषा का ज्ञान परिवार द्वारा ही प्रदान किया जाता है। भाषा का ज्ञान औपचारिक शिक्षा अर्जित करने के लिए अनिवार्य शर्त है। शिक्षा के लिए शिष्टाचार एवं अच्छी आदतों की भी आवश्यकता होती है। परिवार इस कार्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार ही बालक की आदतों, रुचियों एवं कुछ अभिवृत्तियों के विकास में आधारभूत योगदान प्रदान करता है। शिक्षा के लिए बालक का शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास भी आवश्यक होता है।

विकास के इन विभिन्न पक्षों में घर-परिवार का उल्लेखनीय योगदान होता है। शिक्षा का एक पक्ष व्यावसायिक शिक्षा भी है। बालक की व्यावसायिक शिक्षा में भी घर-परिवार द्वारा महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया जाता है। पारम्परिक रूप से प्रत्येक परिवार का कोई-न-कोई पारिवारिक व्यवसाय होता था। इस दशा में परिवार के बालक स्वाभाविक रूप से ही अपने पारिवारिक व्यवसाय के प्रति उन्मुख हो जाते थे तथा उन्हें परिवार में अपने व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता था। आज भी परिवार का वातावरण बालक के व्यवसाय-वरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन सबके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि बालक की सम्पूर्ण औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था में भी परिवार का विशेष योगदान होता है।

6984.

“परिवार समूह ही प्रथम मानवीय विद्यालय है, परिवार में प्रत्येक व्यक्ति की अनौपचारिक शिक्षा सामान्यतया आरम्भ होती है। बालक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय परिवार में ही बीतता है।” यह कथन किसका है ?

Answer»

प्रस्तुत कथन बोगास का है।

6985.

गृह-शिक्षा के अन्तर्गत बच्चे विभिन्न कार्यों को सर्वाधिक किस विधि द्वारा सीखते हैं ?

Answer»

गृह-शिक्षा के अन्तर्गत बच्चे विभिन्न कार्यों को करना सर्वाधिक अनुकरण विधि द्वारा सीखते हैं।

6986.

बच्चों को उत्तरदायित्व वहन करने की शिक्षा किस प्रकार से दी जा सकती है?

Answer»

बच्चों को छोटे-छोटे घरेलू कार्य सौंपकर उत्तरदायित्व वहन करने की शिक्षा प्रदान की जा सकती है।

6987.

आपके मतानुसार बच्चों के शिक्षण की प्राचीनतम संस्था कौन-सी है ?

Answer»

बच्चों के शिक्षण की प्राचीनतम संस्था परिवार है।

6988.

“बालक नागरिकता का सुन्दरतम पाठ माता के चुम्बन और पिता के दुलार से सीखता है।” यह कथन किसका है ?

Answer»

प्रस्तुत कथन मैजिनी का है। 

6989.

बच्चों के सामान्य विकास तथा व्यावहारिक शिक्षा में सर्वाधिक योगदान किसका होता है?

Answer»

बच्चों के सामान्य विकास तथा व्यावहारिक शिक्षा में सर्वाधिक योगदान परिवार का ही होता है।

6990.

आपके विचार से गृह-शिक्षा किस प्रकार की होनी चाहिए?

Answer»

हमारे विचार से गृह-शिक्षा बाल-केन्द्रित होनी चाहिए।

6991.

“माताएँ आदर्श अध्यापिकाएँ हैं और घर द्वारा दी जाने वाली अनौपचारिक शिक्षा सबसे अधिक प्रभावशाली और स्वाभाविक है।” यह कथन किसका है ?

Answer»

प्रस्तुत कथन फ्रॉबेल का है।

6992.

परिवार द्वारा बच्चों को दी जाती है(क) आज्ञापालन एवं कर्तव्यपालन की शिक्षा(ख) सहयोग एवं अन्य सद्गुणों की शिक्षा(ग) शारीरिक स्वास्थ्य के नियमों की शिक्षा(घ) उपर्युक्त सभी प्रकार की शिक्षा

Answer»

सही विकल्प है  (घ) उपर्युक्त सभी प्रकार की शिक्षा

6993.

“घर ही शिक्षा का सर्वोत्तम साधन और बालक का प्रथम विद्यालय है।”यह कथन किसका है?(क) पेस्टालॉजी(ख) बोगास(ग) फ्रॉबेल(घ) महात्मा गांधी

Answer»

सही विकल्प है  (क) पेस्टालॉजी

6994.

अजित प्रेरकों को किन-किन वर्गों में बाँटा जाता है?

Answer»

अर्जित प्रेरकों को दो वर्गों में बाँटा जाता है- (i) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा (ii) सामाजिक अर्जित प्रेरक।

6995.

प्रेरकों की प्रबलता के मापन की मुख्य विधियों का उल्लेख कीजिए।

Answer»

प्रेरकों की प्रबलता के मापन के लिए सामान्य रूप से अग्रलिखित तीन विधियों को अपनाया जाता है –

(1) अवरोध विधि – प्रेरकों की प्रबलता-मापन की एक मुख्य विधि अवरोध विधि (Obstruction Method) है। इस विधि की सैद्धान्तिक मान्यता यह है कि यदि प्रेरक प्रबल है तो सम्बन्धित लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में आने वाले अपेक्षाकृत बड़े अवरोधों को भी व्यक्ति या प्राणी पार कर जाता है। इस विधि के अन्तर्गत प्रेरकों की प्रबलता की माप तुलनात्मक आधार पर की जा सकती है। भिन्न-भिन्न प्रबलता वाले प्रेरकों की दशा में एकसमान अवरोध उपस्थित करके प्राप्त परिणामों के आधार पर उनकी प्रबलता की माप की जा सकती है।
(2) शिक्षण विधि – शिक्षण विधि द्वारा भी प्रेरकों की प्रबलता की माप की जाती है। इस विधि की सैद्धान्तिक मान्यता यह है कि किसी विषय को सीखने की गति विद्यमान प्रेरक की प्रबलता के अनुपात में होती है अर्थात् यदि प्रबल प्रेरक विद्यमान हो तो शिक्षण की दर अधिक होती है तथा दुर्बल प्रेरक की दशा में शिक्षण की दर कम होती है। प्रेरक के नितान्त अभाव में शिक्षण की प्रक्रिया चल ही नहीं पाती।
(3) चुनाव विधि-प्रेरकों की प्रबलता के मापन के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि चुनाव विधि’ भी है। इस विधि में प्रेरकों की प्रबलता का मापन तुलनात्मक रूप में ही किया जाता है। चुनाव विधि द्वारा प्रेरकों की प्रबलता को जानने के लिए व्यक्ति के सम्मुख एक ही समय में दो या दो से अधिक प्रेरक उपस्थित किये जाते हैं, तब देखा जाता है कि व्यक्ति पहले किस प्रेरक से प्रेरित होकर सम्बद्ध व्यवहार करता है।

6996.

प्रेरकों की प्रबलता के मापन के लिए अपनायी जाने वाली विधियों का उल्लेख कीजिए।

Answer»

(i) अवरोध विधि, 

(ii) शिक्षण विधि तथा 

(iii) चुनाव विधि।

6997.

चार मुख्य जन्मजात प्रेरकों का उल्लेख कीजिए।

Answer»

(i) भूख, (ii) प्यास, (iii) नींद तथा (iv) काम।

6998.

नवजात शिशु के जीवन में पाये जाने वाले मुख्य प्रेरकों का उल्लेख कीजिए।

Answer»

नवजात शिशु के व्यवहार को परिचालित करने वाले मुख्य प्रेरकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है –

(1) भूख – भूख प्रत्येक प्राणी के जीवन की आधारभूत आवश्यकता है। जन्म के उपरान्त मानव-शिशु भी भूख की आवश्यकता के कारण स्वाभाविक क्रियाएँ व व्यवहार प्रकट करता है। वस्तुतः भूख लगने पर रक्त के रासायनिक अंशों में परिवर्तन के कारण वेदना उत्पन्न होती है तथा शरीर में व्याकुलता बढ़ती है। नवजात शिशु इस ‘भूख-वेदना’ को अभिव्यक्ति देने के लिए हाथ-पैर हिलाता है या रोता-चिल्लाता है। माँ, बच्चे के इस व्यवहार को पहचानने में सक्षम होती है और उसकी आवश्यकता सन्तुष्ट करने की चेष्टा करती है। आवश्यकता-पूर्ति के बाद भूखे का प्रेरक शान्त हो जाता है।
(2) प्यास – भूखं की तरह ही प्यास भी एक शारीरिक आवश्यकता है। प्यास का प्रेरक शरीर में जल की कमी के कारण है। प्यास के कारण प्राणी का शारीरिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। मानव-शिशु को भी प्यास लगती है जिसके कारण वह व्याकुल होकर शरीर को हिलाता-डुलाता है या रोकर अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करता है। पानी की पूर्ति के बाद पानी के शरीर की विभिन्न नलिकाओं में पहुँचने से शिशु की प्यास का प्रेरक सन्तुष्ट हो जाता है।
(3) नींद – नींद का प्रेरक शिशु के जन्म से ही उससे सम्बन्ध रखता है। यह भी शिशु की एक बहुत बड़ी शारीरिक आवश्यकता है। अपने जन्म के काफी समय बाद तक शिशु का अधिकतम समय नींद में ही व्यतीत होता है। नींद में विघ्न आने पर शिशु बेचैनी अभिव्यक्त करता है। अतः आवश्यकतानुसार उसे भरपूर नींद के प्रेरक की पूर्ति करनी अनिवार्य है।
(4) मल-मूत्र विसर्जन – जन्म के उपरान्त शिशु समय-समय पर वज्र्य पदार्थ मल-मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालता है। शरीर की आन्तरिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप शरीर में अनेक हानिकारक एवं वर्त्य पदार्थ निर्मित होते हैं जिनका मल-मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकलना अत्यन्त आवश्यक है। यदि इन पदार्थों को तत्काल विसर्जन न किया जाये तो शिशु के शरीर में एक अजीब-सा तनाव पैदा होगा। वह पीड़ा अनुभव कर रोएगा-चिल्लाएगा। मल-मूत्र विसर्जन के उपरान्त शिशु को तनाव एवं पीड़ा से मुक्ति मिल जाती है।

6999.

किन्हीं दो जन्मजात प्रेरकों के नाम लिखिए तथा संक्षेप में उनका महत्त्व स्पष्ट कीजिए।

Answer»

मुख्य जन्मजात प्रेरक हैं-भूख, प्यास, काम, नींद, मातृत्व व्यवहार तथा मल-मूत्र-त्याग।
(i) भूख नामक जन्मजात प्रेरक का व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्त्व है। इस प्रेरक से प्रेरित होकर व्यक्ति आहार ग्रहण करता है। आहार ग्रहण करने से शरीर का पोषण होता है, ऊर्जा प्राप्त होती है तथा रोगों से मुकाबला करने की शक्ति प्राप्त होती है।
(ii) नींद नामक प्रेरक का भी व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्त्व है। इस प्रेरक से प्रेरित होकर व्यक्ति विश्राम करता है। नींद से व्यक्ति की थकान समाप्त होती है, चुस्ती एवं स्फूर्ति प्राप्त होती है तथा वह तरो-ताजा महसूस करता है। नींद से स्वभाव एवं व्यवहार की झुंझलाहट समाप्त हो जाती है।

7000.

जन्मजात प्रेरक क्या हैं?याजैविक अभिप्रेरकों को स्पष्ट कीजिए तथा उनके नाम लिखिए।

Answer»

प्रेरकों के दो मुख्य प्रकार यावर्ग निर्धारित किये गये हैं, जिन्हें क्रमशः जन्मजात प्रेरक तथा अर्जित प्रेरक कहा गया है। जन्मजात प्रेरकों को आन्तरिक प्रेरक तथा जैविक प्रेरक भी कहा जाता है। जन्मजात या आन्तरिक प्रेरक व्यक्ति में जन्म से ही विद्यमान होते हैं तथा इन्हें सीखना नहीं पड़ता। यही कारण है कि इन्हें प्राथमिक या शारीरिक प्रेरक भी कहा जाता है। ये प्रेरक व्यक्ति के जीवन के आधार हैं। तथा इनके पूर्ण न होने से व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक सन्तुलन भी बिगड़ जाता है। व्यक्ति के जीवन में जन्मजात प्रेरकों का अत्यधिक महत्त्व है। जीवन के सुचारु परिचालन में इन प्रेरकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। हम यह भी कह सकते हैं कि इन प्रेरकों के अभाव में जीवन का चल पाना प्रायः सम्भव नहीं होता। मुख्य जन्मजात प्रेरक हैं-भूख, प्यास, काम, नींद, तापक्रम, मातृत्व व्यवहार तथा मल-मूत्र त्याग।