InterviewSolution
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पैसे की शक्ति तथा शक्तिहीनता से सम्बन्धित किन्हीं दो साहित्यिक प्रसंगों का उल्लेख कीजिए। |
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Answer» पैसे में शक्ति होती है। पैसे को पावर कहा जाता है। इस शक्ति को पैसे की ‘पर्चेजिंग पावर’ अथवा क्रय-शक्ति कहा जाता है। पैसे के बल पर मनुष्य मकान कोठी, कोई भी सम्पत्ति, सामान आदि खरीद सकता है। इससे मनुष्य का श्रम तो खरीदा ही जाता है, उसकी ईमानदारी और शुचिता भी खरीदी जाती है। साहित्य में ऐसे प्रसंगों का उल्लेख मिलता है। पैसे की यह शक्ति अटल होती है किन्तु कभी-कभी इसकी अनिर्वायता भंग होती भी देखी जाती है। ऐसी दशा में पैसा शक्तिहीन हो जाता है। पैसे की शक्ति का प्रमाण हमको मुंशी प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दरोगा’ में मिलता है। जमींदार पंडित अलोपीदीन की चोरी से नमक ले जाती गाड़ियाँ दरोगा जी द्वारा पकड़ी जाती हैं। पंडित जी को इस अपराध के लिए पकड़कर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है। वहाँ बड़े-बड़े वकील उनकी पैरवी में खड़े हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति उनकी आवभगत में जुट जाता है। पंडित अलोपीदीन धन के बल पर न्यायालय में निरपराध सिद्ध होते हैं तथा मुक्त हो जाते हैं। दूसरी ओर ईमानदार दरोगा बंशीधर को कर्तव्यपालन में असावधान मानकर चेतावनी दी जाती है। उनकी नौकरी चली जाती है। शक्तिहीनता – पैसे की शक्तिहीनता का प्रमाण भी हमें इसी कहानी में मिलता है। नदी तट पर दरोगा बंशीधर को नमक की गाड़ियाँ छोड़ने के लिए चालीस हजार रुपये तक की रिश्वत पेश की जाती है किन्तु ईमानदार बंशीधर उसे स्वीकार न करके जमींदार अलोपीदीन को बंदी बना लेते हैं। यहाँ धन-बल की पराजय और शक्तिहीनता स्पष्ट दिखाई देती है। पैसे से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता। ये दोनों ही प्रसंग साहित्य से सम्बन्धित हैं किन्तु यथार्थ जीवन में भी कभी-कभी ऐसा होता देखा जाता है। |
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बाजार के बाजारूपन से क्या आशय है? |
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Answer» लोगों को विज्ञापनों से प्रभावित कर अनावश्यक चीजें खरीदने को प्रेरित करना बाजार का बाजारूपन है। |
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भगत जी को क्या प्राप्त है जो बड़े-बड़े समझदार लोगों को प्राप्त नहीं है? |
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Answer» भगत जी को सन्तोष, लोभ से मुक्ति तथा उचित-अनुचित अन्तर का विवेक है। ये गुण बड़े-बड़े समझदार लोगों में भी दुर्लभ होते हैं। |
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जो लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं, उनसे बाजार पर क्या प्रतिकूल असर पड़ता है? |
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Answer» बाजार का उद्देश्य है-लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करना । जो लोग (विक्रेता और क्रेता) बाजार के इस उद्देश्य में बाधा डालते हैं वे बाजार को अनुचित धनोपार्जन तथा शोषण का साधन बना देते हैं। वहाँ वे दोनों एक-दूसरे को ठगने तथा धोखा देने के प्रयास करते हैं। आपसी सद्भाव को नष्ट करते हैं। |
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महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ।बाजार से हठ-पूर्वक विमुखता उनमें नहीं है, लेकिन अगर उन्हें जीरा और काला नमक चाहिए तो सारे चौक-बाजार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। जरूरत भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है। जीरा नमक। बस इस निश्चित प्रतीति के बल पर शेष सब चाँदनी चौक का आमन्त्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखरा रहता है। चौक की चाँदनी दाएँ-बाएँ भूखी-की-भूखी फैली रह जाती है, क्योंकि भगत जी को जीरा चाहिए वह तो कोने वाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहाँ से सहज भाव में ले लिया गया है। इसके आगे आस-पास अगर चाँदनी बिछी रहती है। तो बड़ी खुशी बिछी रहे, भगत जी उस बेचारी का कल्याण ही चाहते हैं। |
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Answer» कठिन शब्दार्थ-प्रतीति = विश्वास। चाँदनी चौक = दिल्ली का एक पुराना बाजार। चाँदनी = आकर्षण। भूखी-की-भूखी = प्रभाव डालने में अक्षम। पंसारी = मसाले बेचने वाला। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ से संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक का पड़ोसी एक सीधा-सरल चूरनवाला भगत है। वह बाजार की बाहरी और दिखावटी चमक-दमक से प्रभावित नहीं होता। बाजार का महत्व उसके लिए इतना ही है कि वहाँ से उसको अपनी आवश्यकता की चीजें मिलती हैं। वहाँ पैसे की जो विचारहीन अमानवीय दौड़ है उससे वह अप्रभावित रहता है। व्याख्या-लेखक कहता है कि चूरन वाले भगत जी में नैतिक बल है। उनको बाजार की उपयोगिता मालूम है। वह बाजार की जानबूझकर उपेक्षा नहीं करते। उनको जीरा और नमक खरीदना है। वह चौक बाजार में मिलता है। चौक बाजार उनके लिए तभी तक महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी है जब तक वहाँ ये चीजें मिलती हैं। अपनी आवश्यकता के अनुरूप नमक-जीरा खरीदने के बाद चौक बाजार उनके लिए बेकार हो जाता है। भगत जी को पता है कि उनकी आवश्यकता जीरा और नमक है। उनको यह भलीभाँति विदित है। अतः चाँदनी चौक नामक बाजार का आकर्षण उनको प्रभावित नहीं करता। भगत जी उस आकर्षक बाजार से गुजरकर पंसारी की कोने की दुकान पर पहुँचते हैं और अपनी जरूरत का जीरा खरीदते हैं। यह एक स्वाभाविक क्रिया है। इसके बाद चाँदनी चौक का आकर्षण, उसमें प्रदर्शित सुन्दर चीजें भगत जी के लिए अस्तित्वहीन हो जाती हैं। वे उन्हें आकर्षित नहीं करतीं। चाँदनी चौक के समस्त वैभव के प्रति तटस्थ रहते हुए वह उसका भला चाहते हैं। विशेष- |
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बाजार की सार्थकता का क्या तात्पर्य है? |
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Answer» लोगों की जरूरत का सामान उनको उपलब्ध कराना ही बाजार की सार्थकता है। |
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चूरन वाले भगत जी का जीवन हमें क्या शिक्षा देता है? |
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Answer» चूरन वाले भगत जी से हमको जरूरत से ज्यादा चीजें न खरीदने तथा आवश्यकता से ज्यादा धनोपार्जन न करने की शिक्षा मिलती है। |
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भगत जी ने कभी चूरन बेचकर छः आने से ज्यादा नहीं कमाए क्योंकि(अ) उनका चूरन और अधिक नहीं बिकता था।(ब) वे आधुनिक मार्केटिंग नहीं जानते थे।(स) इससे अधिक परिश्रम वे नहीं कर सकते थे।(द) वे सन्तोषी थे इसलिए अधिक कमाना ही नहीं चाहते थे। |
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Answer» (द) वे सन्तोषी थे इसलिए अधिक कमाना ही नहीं चाहते थे। |
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“वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है। वह मायावी शास्त्र है। वह अर्थशास्त्र अनीति-शास्त्र है।” -लेखक के इस कथन पर बाजार के सन्दर्भ में टिप्पणी कीजिए। |
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Answer» अर्थशास्त्र को बाजार का शास्त्र कहा जाता है क्योंकि वह बाजार का पोषण करता है। वह बताता है कि ग्राहक को आकर्षित करके उसको अनावश्यक वस्तुओं को खरीदने के लिए किस प्रकार प्रेरित किया जाय तथा किस तरह उसका शोषण किया जाय। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था बाजार को ग्राहक का शत्रु बना देती है। ऐसे बाजार में ग्राहक के साथ छल-कपट और शोषणपूर्ण व्यवहार होता है। जनता के लिए बाजार की सार्थकता समाप्त हो जाती है। ऐसे बाजार में शैतानी शक्ति होती है। उसका लक्ष्य समाज की आवश्यकता को पूरा करना नहीं अधिक से अधिक धन कमाना बन जाता है। अत: लेखक ने उसको उल्टी सोच वाला, मायावी तथा अनीति-शास्त्र कहा है। |
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महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ।इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह हीं नहीं जाते हैं और आपस में कोरे ग्राहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दीखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का सत्य माना जाता है। ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों की आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता, बल्कि शोषण होने लगता है। तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए बिडम्बना हैं और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है, वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है। वह मायावी शास्त्र है। वह अर्थशास्त्र अनीति-शास्त्र है। |
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Answer» कठिन शब्दार्थ-हास = कमी। सुहृद = मित्र। सद्भाव = अच्छी भावना। कोरे = केवल, मात्र। ग्राहक = खरीदने वाला। बेचक = बेचने वाला। घात = चोट पहुँचाना। शोषण = धन छीनना, रुपये ऐंठना। शिकार होना = ठगी का लक्ष्य बनना। पोषण करना = पालन, संरक्षण करना। शास्त्र = विद्या विज्ञान। सरासर = पूरी तरह। औंधा = उल्टा, उद्देश्य के विपरीत काम करने वाला। मायावी = कपटी। अर्थशास्त्र = धन की विद्या। अनीतिशास्त्र = नीति अर्थात् उचित नियमों के विपरीत ज्ञान सिखाने वाली विद्या॥ सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। जैनेन्द्र का मानना है कि जब विक्रेता अनावश्यक चीजें ग्राहकों को बेचकर अनुचित लाभ कमाते हैं तथा ग्राहक अपनी क्रय शक्ति दिखाकर फिजूल की चीजें खरीदते हैं तो बाजार का उद्देश्य प्रभावित होता है और वह आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली संस्था के स्थान पर शोषण का माध्यम बन जाता है। व्याख्या-लेखक कहता है कि विक्रेता तथा क्रेता के अनुचित आचरण के कारण बाजार में सद्भाव नष्ट हो जाता है। विक्रेता ग्राहक से अनुचित मुनाफा कमाना चाहता है और ग्राहक भी विक्रेता पर विश्वास नहीं करता। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति कपट की भावना रहती है। दोनों एक-दूसरे को ठगना चाहते हैं। ऐसी दशा में उनमें एक ही रिश्ता बन जाता है। वह रिश्ता है केवल ग्राहक और विक्रेता का। उनका आपसी व्यवहार इसी पर केन्द्रित हो जाता है। दोनों एक-दूसरे को ठगने का प्रयत्न करते हैं। ग्राहक को हानि पहुँचाकर विक्रेता तथा विक्रेता को धोखा देकर ग्राहक लाभ उठाने की चेष्टा करते हैं। इस व्यवहार को बाजार का सत्य ही नहीं इतिहास का सत्य भी माना जाता है। इस प्रकार का बाजार आवश्यकताओं की माँग पूर्ति का स्थान नहीं रह जाता। वह शोषण का स्थान बन जाता है। वह छलपूर्ण व्यवहार करने वाला ठग बन जाता है। ऐसे बाजार मनुष्यता के दुर्भाग्य को जन्म देते हैं। अर्थशास्त्र लाभ हानि की गणना करके माँग पूर्ति का सिद्धान्त सुझाकर बाजार की शोषक प्रणाली को मजबूत बनाता है। लेखक की दृष्टि में वह अर्थशास्त्र है ही नहीं। वह उल्टी सीख देने वाला और छल-कपट सिखाने वाला शास्त्र है। उसको अर्थशास्त्र नहीं अनर्थ शास्त्र कहना ठीक है। वह नीति की नहीं अनीति की शिक्षा देने वाला शास्त्र है। विशेष- |
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‘बाजार में एक जादू है।’ यहाँ ‘जादू’ शब्द का अर्थ है –(क) सौन्दर्य(ख) आकर्षण(ग) दिखावा(घ) सन्तुष्टि। |
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Answer» बाजार में एक जादू है।’ यहाँ ‘जादू’ शब्द का अर्थ है आकर्षण |
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‘बाजार दर्शन’ के आधार पर बाजार के जादू’ को स्पष्ट करते हुए उससे बचने के उपाय बताइए। |
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Answer» ‘बाजार दर्शन’ निबंध में जैनेन्द्र ने बाजार के जादू के बारे में बताया है। बाजार में जादू होता है। इसका तात्पर्य यह है कि बाजार अपनी प्रदर्शन दक्षता के कारण ग्राहकों को लुभाता है तथा उनको चीजें खरीदने के लिए प्रोत्साहित करता है। बाजार का आकर्षण अत्यन्त प्रबल होता है। उसमें पड़कर मनुष्य उन चीजों को भी खरीद लेता है, जो उसके लिए जरूरी नहीं होती। बाजार का यह जादू उन लोगों पर ही होता है, जिनका मन खाली तथा जेब भरी होती है। आशय यह है कि जिनको बाजार जाने पर अपनी जरूरतों को ठीक से पता नहीं होता वे अपने पैसे के बल पर बाजार में प्रदर्शित आकर्षक किन्तु गैरजरूरी चीजों को खरीद लेते हैं। जो व्यक्ति अपनी जरूरतों के बारे में ठीक तरह जानता है, वह ऐसा नहीं करता । बाजार के जादू से बचने के लिए आवश्यक है। कि बाजार जाने से पहले सोचें कि हमें किस चीज की जरूरत है। इस प्रकार हम जरूरी चीज ही खरीदेंगे तथा बाजार के आकर्षण का प्रभाव हम पर नहीं पड़ेगा। हमें बाजार को आवश्यकता पूर्ति का स्थान मानना चाहिए। उसे अपनी क्रय-शक्ति को प्रदर्शन करने तथा अपने घमंड के प्रदर्शन का स्थान नहीं मानना चाहिए। ऐसा करके हम बाजार के जादू से बच सकेंगे तथा उसका सही उपयोग कर सकेंगे। |
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बाजार का शास्त्र किसको कहा गया है? उसको मायावी, सरासर औंधा तथा अनीतिशास्त्र कहने का क्या कारण है? |
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Answer» बाजार का शास्त्र अर्थशास्त्र को कहा गया है। अर्थशास्त्र बाजार का पोषण करता है। वह बताता है कि माल का प्रदर्शन पूर्ण विज्ञापन करके किस तरह ग्राहक को आकर्षित किया जाय तथा उसको अनावश्यक चीजों को खरीदने के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित किया जाय। इस प्रकार अर्थशास्त्र विक्रेता को अधिक से अधिक धन कमाने का गुर सिखाता है। वह क्रेता के शोषण के उपाय बताता है। लेखक ने अर्थशास्त्र को मायावी, सरासर औंधा तथा अनीतिशास्त्र कहा है। ऐसा कहना अकारण नहीं है। माया का अर्थ है-छल-कपट आजकल उपभोक्तावाद का युग है। अर्थशास्त्र अर्थ की उचित सामाजिक व्यवस्था करके छल-कपट द्वारा अधिकाधिक धनोपार्जन के उपाय बताता है। वह बाजार में अनुचित विज्ञापन से ग्राहकों को आकर्षित करके उनके शोषण का द्वारा खोलता है। अर्थशास्त्र मायावी है तथा सरासर औंधा है। वह समाज के हित में काम न करके उसका अहित करता है। समाज में उसके कारण अमीरी-गरीबी तथा आर्थिक विषमता का जन्म होता है। वह अपने नाम के विपरीत अनर्थ का काम करता है। वह नीति का नहीं अनीति का शास्त्र है। नीति का अर्थ सही और समानतापूर्ण उपार्जन तथा वितरण है। इसके विपरीत जो होता है, वह अनीति है। अर्थशास्त्र द्वारा प्रेरित बाजार-व्यवस्था आर्थिक असमानता की नीति को ही जन्म देती है। इस व्यवस्था से उपार्जित धन दानाय’ न होकर ‘मदाय’ ही होता है। उसके कारण ही राष्ट्रीय धन के नब्बे प्रतिशत पर दस प्रतिशत लोगों का अधिकार हो जाता है। |
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बाजारूपन का क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाजार को बाजारूपन से बचाकर उसे सार्थकता प्रदान करते हैं? |
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Answer» बाजारूपन का तात्पर्य है-बाजार नामक संस्था को लक्ष्य भ्रष्ट करना। बाजार का गठन समाज की आवश्यकताओं को सुचारु ढंग से पूर्ति करने के लिए होता है। इसी में बाजार की सार्थकता है। कुछ लोग जो अपनी आवश्यकताओं का सही ज्ञान नहीं रखते, वे बाजार में अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ का अनुचित प्रदर्शन करते हैं और अनाप-शनाप अनावश्यक चीजें खरीदते हैं। इससे बाजार में जो विकार उत्पन्न होता है उसी को बाजारूपन कहते हैं। अपनी आवश्यकता को ठीक तरह जानकर बाजार से केवल उपयोगी चीजों को खरीदने वाले ग्राहक ही उसको बाजारूपन से बचाते हैं तथा सार्थकता प्रदान करते हैं। |
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यदि सभी उपभोक्ता भगत जी की तरह हो जाये तो बाजार तथा ग्राहकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? समझाकर लिखिए। |
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Answer» भगत जी एक समझदार उपभोक्ता हैं। उनको पता है कि उनकी आवश्यकता क्या है तथा बाजार से उसकी पूर्ति कैसे हो सकती हैं। वह बाजार के आकर्षण से अप्रभावित रहते हैं। वह उतना ही धन कमाते हैं, जितने की उनको जरूरत होती है। यानी कि छः आने रोज । वह संतोषी तथा निर्लोभी हैं। उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है। यदि सभी उपभोक्ता भगत जी की तरह हो जायें तो बाजार तथा ग्राहकों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। बाजार को अनावश्यक रूप से चीजों का विज्ञापन करके लोगों को ललचाने की जरूरत नहीं रह जायंगी। ग्राहक उसमें फँसेंगे ही नहीं तथा बाजार को उनका शोषण करने का अवसर नहीं मिल पायेगा। ग्राहक यह जान लेंगे कि उनको किस चीज की जरूरत है तथा उनको बाजार में वह कहाँ प्राप्त होगी। तब वह बाजार में बेकार भटकेंगे नहीं। वे अनावश्यक चीजें खरीदने में अपना पैसा भी बरबाद नहीं करेंगे। वे अनिश्चय का शिकार भी नहीं होंगे और खाली हाथ बिना कुछ खरीदे बाजार से नहीं लौटेंगे। वे भगत जी की तरह अपनी जरूरत की चीजें ही बाजार की किसी निश्चित दुकान से खरीदेंगे। वे चीजों का संग्रह नहीं करेंगे। अतः तृष्णा से मुक्त और संतुष्ट रहेंगे। वे शोषण से भी अपनी रक्षा कर सकेंगे। |
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बाजार किसी का धर्म, जाति, रंग, लिंग या क्षेत्र नहीं देखता वह सिर्फ उसकी क्रय-शक्ति देखता है। इस तरह वह सामाजिक समता की रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं? |
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Answer» बाजार एक ऐसी संस्था है जहाँ चीजें खरीदी और बेची जाती हैं। बाजार समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला स्थान है। यहाँ सभी आ सकते हैं। बाजार आने वाला का धर्म, जाति, रंग, लिंग या क्षेत्र नहीं देखा जाता। बाजार में हिंदू दुकानदार भी होते हैं और मुस्लिम भी। ग्राहक भी सभी धर्मों के लोग होते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों ही बाजार जा सकते हैं। बाजार जाने वाले की केवल एक ही चीज देखी जाती है, वह है उसकी क्रय-शक्ति । कोई मनुष्य बाजार में कितना धन खर्च कर सकता है और कितनी चीजें खरीद सकता है, यह देखना ही बाजार का विषय है। जिस मनुष्य के पास धन नहीं है, वह चाहे किसी भी जाति-वर्ग का हो, उसको बाजार से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि बाजार की दृष्टि में सभी मनुष्य समान होते हैं। वह कोई भेदभाव नहीं करता। बाजार समतामूलक समाज बनाने में योग दे रहा है। यदि गंभीरतापूर्वक देखा जाय तो ऐसा नहीं है। साम्प्रदायिक दंगे होते हैं तो एक वर्ग के लोग दूसरे की दुकानें जलाने में संकोच नहीं करते। पड़ौसी दुकानदार आमने-सामने आ जाते हैं। आर्थिक श्रेत्र में बाजार समानता को व्यवहार नहीं करता। वहाँ अमीर-गरीब ग्राहकों में भेदभाव होता है। गरीब व्यक्ति की ऊँची दुकानों में घुसने की हिम्मत भी नहीं होती। |
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'बाजार दर्शन’ पाठ के आधार पर चूरन वाले भगत जी की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। |
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Answer» 'बाजार दर्शन’ पाठ में चूरन वाले भगत जी का उल्लेख एक शांत, संतुष्ट और सुखी मनुष्य के रूप में हुआ है। भगत जी के चरित्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं संतोषी – भगत जी संतोषी हैं। वह अपनी कम कमाई से भी संतुष्ट रहते हैं। छ: आने की कमाई होते ही वह चूरन बेचना बन्द कर देते हैं। वह पच्चीसवाँ पैसा भी स्वीकार नहीं करते। शेष चूरन वह बच्चों में मुफ्त बाँट देते हैं। लोभहीन – भगत जी को लोभ नहीं है। वह व्यापार को शोषण का जरिया नहीं मानते। तृष्णा से मुक्त – भगत जी में तृष्णा-भाव नहीं है। उनमें संग्रह की भावना नहीं है। जीवनयापन के लिए जितना पैसा जरूरी है, वह उतना ही कमाना चाहते हैं। भगत जी को जरूरत का ज्ञान है। वह चौक बाजार से जीरा और काला नमक खरीदते हैं। वह एक पंसारी की दुकान से मिल जाता है। शेष बाजार उनको आकर्षित नहीं कर पाता। सम्माननीय – भगत जी धनवान तथा बहुत पढ़े-लिखे नहीं हैं किन्तु अपने संतोषपूर्ण स्वभाव के कारण वह सभी के सम्माननीय हैं। बाजार में लोग उनका अभिवादन करते हैं। |
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महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ।यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाजार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाजार को देते हैं। न तो वे बाजार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं, जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी॥ |
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Answer» कठिन शब्दार्थ-सार्थकता = महत्व, उपयोगिता। पर्चेजिंग पावर = क्रय शक्ति। विनाशक = नष्ट करने वाली। शैतानी = दुष्टतापूर्ण। बाजारूपन = विज्ञापन द्वारा अनुपयोगी चीजों को बेचना। कपट = छल, धोखा। सद्भाव = अच्छी भावना। घटी = कमी। सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ से संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक को मानना है कि बाजार लोगों की जरूरत की चीजें उनको उपलब्ध कराने के लिए है। यदि वह चीजों का अनुचित विज्ञापन करके उन्हें लोगों को भेड़ने का प्रयास करता है तो वह अपने लक्ष्य से विरत हो जाता है। जो लोग पैसे के बल पर अनावश्यक चीजें बाजार से खरीदते हैं। वे भी बाजार की मर्यादा भंग करने के दोषी हैं। व्याख्या-लेखक कहता है कि बाजार जाने वाले को यह ठीक तरह पता होना चाहिए कि उसको किस चीज की जरूरत है, यह जानने वाला ग्राहक ही बाजार को एक महत्वपूर्ण उपयोगी संस्था बनाने में सहायक होता है। जो मनुष्य अपनी आवश्यकता की चीजों का सही ज्ञान नहीं रखता और बाजार जाकर अपनी क्रय शक्ति का घमण्ड दिखाता है तथा अनाप-शनाप गैर जरूरी चीजें खरीद डालता है। वह बाजार की उपयोगिता भंग करके उसको हानि पहुँचाता है। उसके कारण बाजार को एक विनाशकारी शक्ति प्राप्त हो जाती है। यह शक्ति ग्राहक के शोषण की शक्ति होती है। इसको व्यंग्य शक्ति तथा दुष्टतापूर्ण शक्ति भी कह सकते हैं। ऐसे व्यक्ति बाजार से लाभ नहीं उठा पाते। ने इस तरह के ग्राहकों के कारण बाजार एक उद्देश्यपूर्ण संस्था ही बना रह पाता है। ये लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। अर्थात् बाजार को चीजों के अनुचित प्रदर्शन और विज्ञापन द्वारा उन्हें खरीदने के लिए ग्राहकों को बाध्य करने का स्थान बना देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के कारण बजार ग्राहक को सामान उपलब्ध कराने के उपयोगी स्थल के बजाय उनके शोषण का स्थान बन जाता है। उनके कारण बाजार में छल-कपट बढ़ता है। ठगी बढ़ती है। विक्रेता और क्रेता के बीच का सद्भाव नष्ट हो जाता है। दोनों एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं और एक-दूसरे को ठगने का प्रयास करते हैं। विशेष- |
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महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ।पर उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा-सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो मन खाली न हो। मन खाली हो, तब बाजार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो, तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाजार भी फैला-का-फैला ही रह जायगा। तब वह घाव बिलकुल नहीं दे सकेगा, बल्कि कुछ आनन्द ही देगा। तब बाजार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ उसे दोगे। बाजार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम आना। |
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Answer» कठिन शब्दार्थ-जादू = आकर्षण। जकड़ = पकड़ा। जाल। लू = गरम हवा। भीतर = अन्दर, पेट में। लूपन = गर्मी का प्रवाह। लक्ष्य = उद्देश्य। फैला-का-फैला = प्रदर्शित, विज्ञापित। घाव देना = अनुचित प्रभाव डालना। कृतार्थ = कृतकृत्य, आभारी॥ सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक ने बताया है कि बाजार में प्रबल आकर्षण होता है। बाजार का जादू उसको जकड़ लेता है। इससे बचने के लिए लेखक कहता है कि बाजार जाते समय मन खाली न हो॥ व्याख्या-लेखक कहता है कि बाजार का आकर्षण एक तरह की जकड़न होती है। उससे बचने का एक सरल तरीका है कि बाजार जाते समय मन खाली न हो। आशय यह है कि बाजार जाने वाले को यह पता होना चाहिए कि उसको क्या चाहिए यदि बाजार जाने वाले को अपनी जरूरत की चीजों का सही पता न हो तो उसको बाजार जाना ही नहीं चाहिए। गर्मी के मौसम में जब लू चलती है तो घर से बाहर जाने वाले को उसके दुष्प्रभाव से बचाव करना पड़ता है। अन्यथा वह बीमार पड़ सकता है। लू से बचने के लिए खूब पानी पीकर। बाहर जाते हैं। जब शरीर में पानी की पर्याप्त मात्रा होती है तो लू नहीं लगती। खूब पानी पीकर बाहर जाना लू के बुरे प्रभाव से रक्षा करता है। यदि ग्राहक को अपने उद्देश्य अर्थात् जरूरत की चीज का ठीक से पता है तो बाजार का अनुचित आकर्षण उसको प्रभावित नहीं कर पाता। वह तरह-तरह की चीजों को वहाँ देखकर उन्हें नहीं खरीदता और फिजूलखर्ची से बचा रहता है। अपनी जरूरत की चीजें बाजार से खरीदकर उसको प्रसन्नता ही होती है। उस अवस्था में बाजार अपने ग्राहक का आभारी होता है कि उसने बाजार को सही और उपयोगी बनाया। दूसरे, बाजार को कुछ-न-कुछ सच्चा लाभ ही प्राप्त होता है। बाजार का महत्व और उपयोगिता यह है कि वह ग्राहक को उसकी आवश्यकता की वस्तु उपलब्ध कराये, उसकी जरूरतों को पूरा करने में सहायक हो। ग्राहक को अपने आकर्षण में फंसाकर अनावश्यक खरीदारी के लिए प्रेरित करना अनुचित है। विशेष- |
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बाजार लोगों की सुख-शांति कैसे छीन लेता है? वह सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धान्त के किस प्रकार विरुद्ध है? लिखिए। |
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Answer» बाजार लोगों की सुख-शांति छीन लेता है। बाजार उपभोक्तावाद से प्रभावित है। वह इस तरह के तरीके अपनाता है कि ग्राहक बाजार में आकर अधिक से अधिक सामान खरीदें। वह सिखाता है कि अपनी जरूरतों को बढ़ाने तथा उनको बाजार में जाकर पूरा करने से ही सभ्यता का विकास होता है। बाजार में चमक-दमक होती है। बाजार में आकर्षण होता है। उसका जादू प्रबल होता है। उसमें पड़कर मनुष्य फिजूलखर्ची करने को मजबूर हो जाता है। धीरे-धीरे वह कर्ज में डूब जाता है तथा उसको निर्धनता घेर लेती है। महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था-सुखी कौन है। युधिष्ठिर का उत्तर था—जो ऋणी नहीं है, वह सुखी है। इस तरह वर्तमान बाजार व्यवस्था लोगों की सुख-शांति छीन रही है। भारत में ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धान्त मान्य है। बाजार इसके विपरीत प्रदर्शनपूर्ण जीवन-शैली को प्रोत्साहित करता है। वह ज्यादा से ज्यादा चीजें खरीदने तथा उनके उपयोग पर जोर देता है। इससे जीवन में सादगी नहीं रह जाती तथा सादा जीवन बिताने वाला मनुष्य तिरस्कार का पात्र बनता है। बाजार मनुष्य को वैभवपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। |
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‘बाजार दर्शन’ पाठ में बताया गया है कि कभी-कभी आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? |
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Answer» कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती हैं। यह कथन सही है। मैं जानता हूँ कि बाजार में चीजों का मूल्य माँग और पूर्ति के आधार पर निश्चित होता है। माँग कम और पूर्ति अधिक हो तो चीज सस्ती बिकती है तथा माँग अधिक और पूर्ति कम होने पर वस्तुएँ अधिक कीमत पर बिकती हैं। चालाक विक्रेता इसका लाभ उठाते हैं। वे माल को छिपाकर उसकी बनावटी कमी दिखाते हैं तथा इस प्रकार उसकी पूर्ति की तुलना में लोगों की ज्यादा आवश्यकता दिखाकर माल की उपलब्धता कम दिखा देते हैं। इस तरह कभी-कभी आवश्यकता शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्योंकि कीमतें बनावटी होती हैं तथा अधिक लाभ कमाने के लिए ऐसा किया जाता है। |
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नोटबन्दी की पृष्ठभूमि में आप किस तरह का ग्राहक बनना पसंद करेंगे? ‘बाजार दर्शन’ के लेखक के पहले मित्र की तरह या दूसरे मित्र की तरह अथवा चूरन वाले भगत जी की तरह? तर्क सहित उत्तर दीजिए। |
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Answer» 'बाजार दर्शन’ पाठ में लेखक ने अपने दो तरह के मित्रों का उल्लेख किया है। एक मित्र बाजार जाकर ढेर सारा सामान खरीद लाता है। वह फिजूलखर्ची करता है। इससे उसका घमंड संतुष्ट होता है। उसको अपनी जरूरत की चीजों का सही पता नहीं होता। दूसरा मित्र बाजार जाता है, वहाँ बहुत देर रुकता भी है, परन्तु वहाँ बहुत-सी चीजें देखकर बहुत-सी चीजों को खरीदना चाहता है परन्तु तय नहीं कर पाता कि वह क्या खरीदे। अत: खाली हाथ बाजार से वापस लौट आता है। बाजार जाने वाले तीसरे व्यक्ति चूरन वाले भगत जी हैं भगत जी को चौक बाजार की पंसारी की दुकान से केवल काला नमक तथा जीरा खरीदना होता है। शेष बाजार उनके लिए शून्य के बराबर होता है। वर्तमान नोटबंदी के कारण बाजार अस्त-व्यस्त हो रहा है। ग्राहकों के पास भी धन नहीं है। बाजार जाकर सामान खरीदना आसान नहीं है। इस परिस्थिति में मैं पहले मित्र की तरह फिजूलखर्ची करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। वैसे भी ज्यादा चीजों का प्रयोग करना मैं सुख-शांति में बाधक मानता हूँ। मैं दूसरे मित्र की तरह भी बनना नहीं चाहता। बाजार में जाकर अनिश्चय में पड़ना तथा कुछ भी न खरीद कर समय नष्ट करना मैं उचित नहीं समझता। मैं चाहूँगा कि भगत जी की तरह अपनी जरूरतों के बारे में जानें तथा उनको सीमित रखें। इस प्रकार मैं केवल उपयोगी चीजें ही खरीदूंगा। ऐसी दशा में नोटबंदी के कारण पास में पैसा न होने की समस्या भी मुझे नहीं सतायेगी। |
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‘बाजार दर्शन’ नामक निबन्ध में किस प्रकार के ग्राहकों के बारे में बताया गया है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते/मानती हैं? |
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Answer» ‘बाजार दर्शन’ निबन्ध में दो प्रकार के ग्राहकों के बारे में बताया गया है। एक प्रकार के वे ग्राहक होते हैं, जिनको पता नहीं होता है कि उनको किस चीज की जरूरत है। इसके कारण वे अनावश्यक चीजें बाजार से खरीदते रहते हैं। दूसरी श्रेणी के ग्राहक अपनी आवश्यकता के बारे में अच्छी तरह से जानते हैं। वे आवश्यक चीज को ही बाजार से खरीदते हैं और धन की बरबादी से बचते हैं। मैं स्वयं को दूसरी श्रेणी का सजग ग्राहक मानता हूँ। मैं अनाप-शानप चीजें नहीं खरीदता। मैं अपने पैसे का सदुपयोग करता हूँ तथा फिजूलखर्ची से बचता हूँ। |
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‘किश्त क्रय पद्धति’ में आपको बाजार का कौन-सा रूप दिखाई देता है? क्या यह पद्धति ग्राहक के हित में है? |
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Answer» किश्तों में माल बेचने की आधुनिक बाजारू व्यवस्था में बाजार का मायावी रूप ही दिखाई देता है। यह उपभोक्तावादी व्यवस्था का ही एक रूप है। इसमें ग्राहक का हित कदापि नहीं है। हाँ, ग्राहक के हित का शोषण अवश्य है। यह छद्म शोषण है, जिसकी जेब में पैसा नहीं है, उसे भी इस पद्धति द्वारा अनावश्यक वस्तु खरीदने के लिए प्रेरित किया जाता है। इससे ग्राहक को ऋणग्रस्त होकर हानि उठानी पड़ती है। इसका उद्देश्य ग्राहक का हित नहीं है। इसके द्वारा उत्पादक को ही लाभ मिलता है। उत्पादक का माल बिक जाता है तथा फाइनेन्सर को ब्याज का लाभ मिलता है। ग्राहक की तो जेब ही कटती है। |
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दूरदर्शन पर ‘जागो ग्राहक जागो’ जैसे विज्ञापन दिखाकर ग्राहक को शोषण के विरुद्ध सजग किया जाता है। क्या आप इस तरह के विज्ञापनों से संतुष्ट हैं? इनमें आप क्या सुधार करना चाहेंगे? |
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Answer» ‘जागो ग्राहक जागो’ ग्राहकों के हित में अच्छा कार्यक्रम है। इसमें लोगों को कुशल और जागरूक ग्राहक बनने के उपाय बताए जाते हैं। लेकिन ‘बाजार दर्शन’ जैसे निबंध तथा ‘जागो ग्राहक जागो’ जैसे कार्यक्रम एक पक्षीय हैं। इसमें सारा जोर ग्राहक पर ही है। बाजार में ग्राहक तथा विक्रेता दोनों होते हैं। केवल ग्राहक को ही सावधान करके बाजार को जन हितैषी नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए दूसरे पक्ष अर्थात विक्रेता को भी सुधारना होगा। भ्रामक विज्ञापन, घटतौली, अपमिश्रण आदि अनेक समस्याएँ हैं। इनका उत्तर दायित्व विक्रेता का ही है। शासन को विक्रेता की भी नकेल कसनी होगी। |
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