InterviewSolution
This section includes InterviewSolutions, each offering curated multiple-choice questions to sharpen your knowledge and support exam preparation. Choose a topic below to get started.
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काहू कलपाय है सु कैसे कल पाय है ! पंक्ति का भावार्थ लिखिए। |
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Answer» अपनी विकलता निष्ठुर प्रिय तक पहुँचाने के लिए घनानंद ने अनेक प्रयास किए हैं। कभी रो-कलप कर, कभी गिड़गिड़ाकर, कभी व्यंग्य का सहारा लेकर उन्होंने अपनी विरह-व्यथा सुजान तक पहुँचानी चाही है। प्रस्तुत पंक्ति एक प्रचलित लोकोक्ति है। जिसका भाव है कि जो दूसरों को कलपाएगा, तड़पाएगा वह स्वयं भी चैन से नहीं रह पाएगा। लगता है कवि के घायल हृदय ने इन शब्दों के माध्यम से निर्मोही सुजान को ‘मृदुल शाप’ दिया है। मुझे तुमने बहुत सताया है, कलपाया है, एक दिन तुम भी ऐसी तड़पोगी। कबीर भी कहे गए हैं- दुरबल को न सताइए ताकी मोटी आहे। |
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| 2. |
‘कित प्यासनि मारत मोही’ पंक्ति का भाव है –(क) क्यों प्यासा मारते हो(क) क्यों मुझसे दूर रहते हो(ग) क्यों निर्मोही बने हो(ग) दर्शनों से वंचित क्यों किए हो |
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Answer» (ग) क्यों निर्मोही बने हो |
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घनानंद किस बादशाह के मीर मुंशी थे? |
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Answer» घनानंद मोहम्मद शाह ‘रंगीले’ के मीरमुंशी थे। |
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घनानंद की कोई दो रचनाओं के नाम लिखिए। |
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Answer» घनानंद की दो रचनाएँ हैं- ‘सुजान सागर’ तथा ‘आनंदघन जू की पदावली’। |
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प्रेम-मार्ग पर कौन सुगमता से चल सकता है ? |
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Answer» सच्चा और निरभिमानी व्यक्ति ही प्रेम मार्ग पर सुगमता से चल सकता है। |
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प्रेम-मार्ग किनके लिए कठिन है –(क) कपटियों के लिए(ख) सरल व्यक्तियों के लिए(ग) भक्तों के लिए(घ) संन्यासियों के लिए |
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Answer» (क) कपटियों के लिए |
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प्रेम की पीर के सिद्धहस्त कवि कौन थे? |
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Answer» प्रेम की पीर के सिद्धहस्त कवि घनानंद थे। |
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| 8. |
“सनेह के मारग’ की सबसे बड़ी विशेषता है|(क) अत्यन्त कठिन होना(ख) पग-पग पर परीक्षाएँ होना(ग) निष्कपट होना।(घ) बहुत लम्बा होना |
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Answer» (ग) निष्कपट होना। |
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| 9. |
‘भोर ते साँझ कानन ओर निहारति’ विरही के वन की ओर निहारने का क्या कारण है ? |
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Answer» प्रिय-दर्शन की लालसा में विरहिणी, उनके वन से लौटने की प्रतीक्षा करती हुई प्रात: से सायं तक वन की ओर निहारती रहती है। |
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| 10. |
मनभावन प्रियतम के सम्मुख होने पर भी विरही को उसका दर्शन लाभ नहीं मिलता। कारण बताइए। |
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Answer» कवि घनानंद की विरही अपने प्रियतम के दर्शन पाने को व्याकुल रहता है। उसका दिन सबेरे से शाम तक वन की ओर निहारते बीतता है और रात तारे गिनते हुए बीतती है। इस पर भी जब प्रिय दर्शन का अवसर आता है, तो उसकी आँखों से आँसुओं की गंगा-यमुना प्रवाहित होने लगती है। बेचारा विरही प्रिय के सामने होते हुए भी दर्शन लाभ से वंचित रह जाता है। इसे उसके दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। |
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| 11. |
श्रीकृष्ण के सामने आने पर उनके दर्शन में कौन बाधक बन जाता है? |
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Answer» श्रीकृष्ण के सामने आने पर विरहिणी की आँखों के आँसू दर्शन में बाधक हो जाते हैं। |
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| 12. |
विरहिणी के नेत्रों को सदा किस बात की लालसा बनी रहती है? |
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Answer» विरहिणी की आँखों को श्रीकृष्ण के सुन्दर और मनमोहक रूप को देखने की लालसा बनी रहती है। |
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विरहिणी की रातें कैसे कटती हैं? |
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Answer» विरहिणी की रातें एकटक तारों की ओर ताकते हुए कटती हैं। |
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घनानंद की विरहिणी का दिन कैसे कटता है? |
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Answer» विरहिणी का दिन निरंतर वन की ओर देखते हुए बीतता है। |
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| 15. |
विरहिणी प्रातःकाल से सायंकाल तक निहारती रहती है(क) अपने भवन के द्वार को(ख) श्रीकृष्ण के चित्र को(ग) वन की दिशा को(घ) अपनी सखी-सहेलियों को |
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Answer» (ग) वन की दिशा को |
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घनानंद के व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर एक टिप्पणी लिखिए। |
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Answer» व्यक्तित्व – कवि घनानंद बादशाह मोहम्मद शाह ‘रंगीले’ के दरबार के मीर मुंशी हुआ करते थे। गुणी व्यक्ति थे। बादशाह के कृपापात्र थे। बड़े अधिकारी थे। लेकिन थे तो मनुष्य ही। दरबार की नर्तकी और गायिका को हृदय दे बैठे। इस ‘सुजान के अंध-प्रेम ने उनको इतना कुप्रभावित कर डाला कि उन्होंने फरमाइश किए जाने पर ‘सुजान’ की ओर मुख और बादशाह की ओर पीठ करके अपना गायन पेश किया। दरबारी अदब का यह अपमानजनक उल्लंघन घनानंद को बहुत महँगा पड़ा। पद तो छिन ही गया, देश-निकाला भी मिल गया। यह भी बादशाह का उन पर बड़ा अहसान था। अन्यथा निरंकुश शासक कुछ भी दण्ड दे सकता था। जिस ‘सुजान’ पर घनानंद ने अपना मान, सम्मान, पद सब कुछ दाव पर लगाया था, उसी विलास की पुतली ने उनके साथ जाने से साफ मना कर दिया। टूटा दिल लेकर घनानंद वृन्दावन चले आए और अहमद शाह द्वितीय के आक्रमण के समय मचे कत्लेआम में काट डाले गए। घनानंद का काव्यपरक व्यक्तित्व एक परिपक्व प्रेमी के वियोगी हृदय का मंद-मंद विलाप है। ऐसे गुणी व्यक्ति का ऐसा करुण अंत हृदय को बड़ी पीड़ा पहुँचाता है। कृतित्व – कवि घनानंद ब्रज भाषा के टकसाली कवि हैं। रीतिकालीन कवि होते हुए भी उनकी रचनाओं में संयमित विरह वर्णन हुआ है। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ इस प्रकार हैं सुजान सागर, विरह लीला, कोकसार, कृपाकंद निबन्ध, रसकेलि वल्ली, सुजान हित, सुजान हित प्रबंध, घन आनंद कवित्त, इश्कलता, आनन्द घन जू की पदावली आदि। |
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पठित छंदों के आधार पर घनानंद की काव्य-कला का वर्णन कीजिए। |
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Answer» पाठ्यपुस्तक में संकलित घनानंद के छंदों के आधार पर उनकी काव्य-कला की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं कला पक्ष-भाषा-शैली-कवि ने ब्रजभाषा के मानक स्वरूप का प्रयोग करते हुए, भाषा की सामर्थ्य से ब्रजभाषा प्रेमियों की प्रशंसा अर्जित की है। घनानंद ब्रज भाषा के मर्मज्ञ हैं। भाव प्रकाशन के लिए आवश्यक सटीक शब्द उनकी वाणी में स्वयं खिंचे चले आते हैं। कवि ने ब्रज भाषा के मुहावरों का तथा लोकोक्तियों का कलात्मक रूप से प्रयोग किया है। कुछ उदाहरण दर्शनीय हैं ‘प्राने घट घोटिबौ’, ‘आगे उर ओटिबो’, ‘अँगारन पे लोटिबौ’, “लागी हाय-हाय है’, ‘जिय जारत’, ‘टेक गहै’, ‘प्यासनि मारत’ आदि मुहावरे तथा काहू कलपाय है, से कैसे कल पाय है। ‘अति सूधौ सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। कवि की कथन शैली भाव प्रधान है। मन की कोमल भावनाओं को प्रभावी रूप से प्रकाशित करने में कवि सफल है। रस, छंद तथा अलंकार-घनानंद की रचनाओं का प्रधान रस वियोग श्रृंगार है। वियोग की सभी अवस्थाएँ तथा अनुभाव इन छंदों में उपस्थित हैं। कवि ने कवित्त तथा सवैया छंदों का सफल निर्वाह किया है। छंदों में गेयता और सहज प्रवाह है। कवि अलंकारों के चमत्कार प्रदर्शन से बचा है। अनुप्रास, रूपक, यमक आदि अलंकार सहज भाव से आते रहे हैं। भाव पक्ष-कवि का भावपक्ष ही काव्य रसिकों को मुग्ध करता रहा है। निरंतर विरह की गाथाएँ सुनते हुए भी पाठक या श्रोता ऊबता नहीं है। कवि ने वियोग की अनेक अवस्थाओं को शब्दों में उतारा है। कवि के भाव-प्रकाशन में कातरता है, अश्रु प्रवाह है, दीन उचित है, हाय-हाय है, उपालम्भ है और व्यंग्य तथा शाप भी है। इस प्रकार कवि घनानंद की काव्य कला में प्रौढ़ता और मार्मिकता दोनों का सुखद संतुलन मिलता है। |
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घनानंद के काव्य में विरह की प्रधानता है। स्पष्ट कीजिए। |
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Answer» पाठ्यपुस्तक में संकलित घनानंद के सभी छंद विरहिणी पीर के करुण गीत हैं। पहले छंद में तो कवि ने विरह को मूर्तिमान ही कर दिया है। विरहिणी के रूप में कवि ने विरह की ही दिनचर्या प्रस्तुत कर दी है। विरही के हृदय का संताप पंक्ति-पंक्ति से झलक रहा है। कहीं विरही ‘गुमानी’ प्रिय के व्यवहार से ग्लानि का पान करते हुए घुटघुट कर जी रहा है। व्याकुलता के विषैले बाणों को छाती पर झेल रहा है। अंगारों की सेज पर सोना अपनी नियति मानकर, अपने भाग्य को कोस रहा है। निर्दयी और विश्वासघाती प्रिय जब पहचानने से भी इंकार कर दे तो प्रेमी की अवस्था बड़ी दयनीय हो जाती है। जिसकी मीठी-मीठी बातों में आकर प्रेमी ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। उसी के द्वारा ऐसी असहनीय उपेक्षा पाकर विरही की क्या दशा होती है। यह कवि घनानंद ने अपने छंद में उजागर कर दिया है। विरह व्यथा की चरम अवस्था चौथे छंद में सामने आती है। बेचारा विरही, निष्ठुर प्रिय के व्यवहार से व्याकुल होकर, गिड़गिड़ाता हुआ, दया की याचना कर रहा है। ‘मीत सुजान अनीत करो जनि, हा हा न हूजिए मोहि अमोही। परन्तु निर्मोही ‘सुजान’ को उसके ‘प्राण-बटोही’ को प्यासा मारने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है। अंत में यही कह सकते हैं कि जो प्रिय, ‘मन’ लेकर ‘छटाँक’ भी देना नहीं चाहता, उसके आगे कोई वश नहीं चलता। घनानंद का काव्य विरह प्रधान है, इसमें कोई संशय नहीं रह जाता। |
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कवि को अपमी छाती पर क्या झेलना पड़ता है? |
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Answer» कवि अपनी छाती पर व्याकुलतारूपी विष के बाणों को झेलना पड़ता है। |
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कवि के अनुसार उसके भाग में क्या आया है? |
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Answer» कवि के कथनानुसार उसके हिस्से में अंगारों की शय्या पर सोना अर्थात् विरह की घोर पीड़ा सहते रहना आया है। |
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कवि क्या नहीं भुला पा रहा है ? |
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Answer» कवि निर्मोही सुजान द्वारा किए गए कठोर व्यवहार की काँटों से छेदने जैसी पीड़ा को नहीं भुला पा रहा है। |
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“मीत सुजान अनीत करौ जिन” छंद में कवि ने सुजान को उपालंभ क्यों दिया है? |
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Answer» कवि घनानंद ने इस छंद में सुजाने के भावनात्मक अत्याचारों का कड़ा विरोध किया है। जिस प्रेमी ने प्रिय पर अपना सब कुछ लुटा दिया-पद-सम्मान-निवास स्थान वहीं निर्मोही उसे प्रेम के प्यासे को प्यासा मारे तो भी वह चुप रहे ! यह बड़ा अन्याय होगा। ऐसे विश्वासघाती को उपालम्भ (उलाहना) भी न दिया जाए ? यह कवि घनानंद के अति सहनशील प्रेम की उदारता ही है कि वह निष्ठुर सुजान को केवल उलाहना ही दे रहे हैं। वरना प्रेम में दगा के तो गम्भीर दुष्परिणाम देखे जाते हैं। |
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हा हा न हूजिए मोहि अमोही’ पंक्ति से कवि घनानंद के मन की किस दशी का बोध होता है? |
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Answer» इस पंक्ति में सुजाने के हृदय को लगे आघात के कारण उसके मन की कातरता तथा दयनीय दशा का बोध होता है। |
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कवि ने सुजान के किस व्यवहार को ‘अन्याय’ कहा है ? |
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Answer» कवि ने सुजान द्वारा पहले मीठी-मीठी बातों से ठगने और अब रूखे व्यवहार से उसके जी को जलाने को अन्याय कहा है। |
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कवि घनानंद ने सुजान को ‘अतिनिष्ठुर क्यों कहा है? |
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Answer» सुजान अति निष्ठुर इसलिए हैं कि उसने तो घनानंद को पहचानने से भी इन्कार कर दिया है। |
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सुजान ने घनानंद को ठग लिया था(क) अपने सौन्दर्य से।(ख) अपनी मीठी बातों से(ग) सदा साथ देने के आश्वासन से(घ) प्रेम के नाटक से। |
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Answer» (ख) अपनी मीठी बातों से |
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पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ।मीत सुजान, अनीत करौ जिन, हा हा न हूजियै मोहि अमोही।दीठि कौं और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरै रूप की दोही।।एक विसास की टेक गहें, लगि आस रहे बसि प्रान बटोही।हौ घन आनन्द जीवन मूल दई ! कित प्यासनि मारत मोही।। |
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Answer» कठिन शब्दार्थ – मीत = मित्र, प्रिय ! सुजान = सज्जन, कवि की प्रेमिका का नाम । अनीत = अन्याय । जीन = मत, नहीं। मोहि = मोहित करके। अमोही = निष्ठुर । दीठि = दृष्टि। ठौर = स्थान। दृग = नेत्र। रावरै = आपके। दोही = दुहाई, प्रशंसात्मक घोषणा। विसास = विश्वास। टेक = आधार। आस = आशा । प्रान-बटोही = प्राणरूपी यात्री। घन आँनद = कवि घनांनद, आनंदरूपी बादल। जीवन मूरि = जीवन के आधार पर जल के भण्डार। दई = दैव, भाग्य । कित = कहाँ, क्यों। मोही = मुझको। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत छंद हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कवि घनानंद के छंदों से लिया गया है। कवि अपने निष्ठुर प्रिय के उपेक्षा से पूर्ण व्यवहार से आहत होकर उसकी ‘हा हा खा रहा है कि वह ऐसा अन्याय न करे। व्याख्या – कवि घनानंद अपने प्रिय से कहते हैं- हे मेरे मीत, सुजान ! आप नाम से तो सज्जन हो, फिर मेरे साथ ऐसी अनीति क्यों कर रहे हो। मैं याचना करता हूँ कि पहले मुझे अपने रूप पर मुग्ध करके, अब इतने निष्ठुर मत बनो। मेरी आँखों के लिए आपके अतिरिक्त और कोई दूसरा स्थान या व्यक्ति भी नहीं है। जिसे देखकर ये जीवित रह सकें, मेरे नेत्र तो आपके सौन्दर्य की दुहाई सुनकर ही आप पर मुग्ध बने हुए हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि मुझ पर कृपा करोगे। इसी आशा पर मेरे प्राणरूपी यात्री मेरे शरीर में अब तक टिके हुए हैं, अन्यथा यह कब के निकल गए होते। आप तो आनंद घन हो, जिसमें जीवन का आधार जल भरा है। फिर यह दुष्ट दैव मुझे इस प्रकार प्यासा क्यों मार रहा है ? अपना प्रेम-जल बरसाकर मेरे प्यासे प्राण-बटोही की रक्षा करो। विशेष –
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पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ।भए अति निठुर, मिटाय पहिचानि डारी,याही दुख हमैं जक लागी हाय-हाय है।तुम तौ निपट निरदई, गई भूलि सुधि,हमें सूल-सेलनि सो क्यौं हूँ न भुलाय है।मीठे-मीठे बोल बोलि, ठगी पहिलें तौ तब,अब जिय जारत, कहौ धौं कौन न्याय है।सुनी है कि नाहीं, यह प्रगट कहावति जू,काहू कलपाय है, सु कैसे कल पाय है। |
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Answer» कठिन शब्दार्थ – निठुर = निष्ठुर, निर्दय। जक = रट । निपट = पूर्णतः। सूल-सेलन = शूलों की चुभन, उपेक्षा की पीड़ा। क्यों हुँन = कैसे भी नहीं । जिय = जी, मन । जारत = जलाते हो। प्रगट = प्रचलित, सुपरिचित । का = किसी को। कलपाय = कष्ट देकर। कल पाय = सुख पा सकता है। सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत छंद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि घनानंद के छंदों में से लिया गया है। कवि अपने प्रिय की निष्ठुरता और उपेक्षा से दु:खी होकर उसे ताने दे रहा है। व्याख्या – कवि अपने प्रिय (सुजान) को उलाहना देते हुए कहता है कि वह बहुत निष्ठुर हो गया है। उसने तो उसको पहचानना भी भुला दिया है। पुराने मधुर सम्बन्ध को उसने हृदय से निकाल दिया है। यही कारण है कि बेचारा कवि दिन रात हाय-हाय पुकारता रहता है। कवि कहता है-तुम तो पूरी तरह निर्दयता पर उतर आए, हमें भुला दिया, परन्तु तुमने हमें जो उपेक्षा के काँटों से छेदा है। उस असहनीय चुभन को हम कैसे भूल जाएँ। पहले तो हमें बड़ी मधुर-मुधर बातों से ठग लिया और अब ऐसे निष्ठुर व्यवहार से हमारे जी को जला रहे हो। भला यह कैसा न्याय है ? यह तो सरासर घोर अन्याय है। तुमने यह सुपरिचित कहावत तो सुनी होगी कि जो दूसरों को कलपाता है, पीड़ा पहुँचाता है, वह स्वयं भी सुखी नहीं रह पाता। विशेष –
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