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This section includes InterviewSolutions, each offering curated multiple-choice questions to sharpen your knowledge and support exam preparation. Choose a topic below to get started.

1.

क्या आप ऐसे किसी विचार अथवा सिद्धांत के बारे में जानते हैं जिसने आधुनिक भारत में किसी सामाजिक आंदोलन को जन्म दिया हो?

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आधुनिक भारत में अनेक सामाजिक आंदोलन हुए हैं। प्रत्येक आंदोलन के पीछे कोई-न-कोई विचारधारा होती हैं। उदाहरणार्थ-निम्न जातियों में हुए समाज सुधार आंदोलनों के पीछे न केवल इन जातियों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान करना था, अपितु एक ऐसे समाज का निर्माण करना भी था जो समता पर आधारित हो। इसी भाँति, पर्यावरणीय चुनौतियों को लेकर हुए आंदोलनों के पीछे यह विचारधारा रही है कि मानव प्रजाति को सतत विकास के प्रयास में पर्यावरण संतुलन को बनाए रखना चाहिए।

ऐसा मानव समाज के अस्तित्व के लिए आवश्यक है क्योंकि पर्यावरणीय असंतुलन विनाश का कारण बन सकता है। चिपको आंदोलन तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन इसी विचारधारा पर आधारित आंदोलन रहे हैं। इसी भाँति, महिलाओं में हुए आंदोलनों के पीछे यह सोच रही है कि आधुनिक युग में उन्हें पुरुषों के समान अधिकार मिलने चाहिए तथा आगे बढ़ने के लिए वे सभी अवसर उपलब्ध होने चाहिए जो पुरुषों को उपलब्ध है। कृषक आंदोलन कृषक समस्याओं के समाधान की असफलता के परिणामस्वरूप विकसित असंतोष के कारण हुए हैं। इन आंदोलनों में कृषक अपनी सामूहिक पहचान के आधार पर संगठित हुए हैं। विश्वव्यापी मानवाधिकार आंदोलनों के पीछे यह विचारधारा रही है कि सभी देशों के नागरिकों, चाहे वे किसी भी जाति, प्रजाति, धर्म, रंग के क्यों न हों, को ससम्मान जीने को अधिकार है।

2.

दुर्खोम की किन्हीं दो पुस्तकों के नाम लिखिए।

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दुखैम का समाजशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने समाजशास्त्र को एक सुदृढ़ आधारशिला प्रदान की तथा समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में प्रतिस्थापित किया। उनके द्वारा लिखित दो पुस्तकें निम्नलिखित हैं –

⦁    1893 ई० में प्रकाशित ‘De la Division du Travail Social (The Division of Labour in Society); तथा
⦁    1897 ई० में प्रकाशित Le Suicide (The Suicide)।

3.

दुर्खोम की आत्महत्या पर लिखी सुप्रसिद्ध पुस्तक कौन-सी है?

Answer»

दुर्खोम की आत्महत्यास पर लिखी उनकी तीसरी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘दि सुसाईड’ (The Suicide) है।

4.

धर्म पर लिखी दुर्खोम की प्रसिद्ध पुस्तक का नाम क्या है?

Answer»

धर्म पर लिखी दुर्खोम की प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘दि एलीमेंट्री फार्ल्स ऑफ रिलिजियस लाइफ’ (The Elementary Forms of Religious Life) है।

5.

दुर्खोम ने समाजशास्त्र को किसके अध्ययन के रूप में परिभाषित किया है?

Answer»

दुर्खोम ने समाजशास्त्र को सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया है।

6.

दुर्खोम ने समाजशास्त्र को किस प्रकार का विज्ञान कहा है?

Answer»

दुर्खोम ने समाजशास्त्र को ‘समाजों का विज्ञान’ (The science of societies) कहा है।

7.

क्या आप कारण बता सकते हैं कि हमें उन चिंतकों के कार्यों का अध्ययन क्यों करना चाहिए जिनकी मृत्यु हो चुकी है। इनके कार्यों का अध्ययन करने के कारण क्या हो सकते हैं?

Answer»

किसी भी विषय को समझने के लिए उन चिंतकों का अध्ययन करना अनिवार्य है जिन्होंने उस विषय को विकसित करने में अथवा उसे आगे बढ़ाने में विशेष योगदान दिया है। ऐसे विद्वान् ‘शास्त्रीय चितंक’ कहलाते हैं जिनके विचारों को समझे बना विषय का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। स्वाभाविक है कि सभी विषय पुराने हैं और उनके प्रतिपादकों की मृत्यु हो गई है। यदि हम समाजशास्त्र का ही उदाहरण लें तो इसके जनक आगस्त कॉम्टे के अतिरिक्त एमाइल दुर्खोम, मैक्स वेबर, कार्ल मार्क्स, विलफ्रेडो पेरेटो आदि विद्वानों के विचारों को समझना जरूरी है। यही वे विद्वान हैं जिन्होंने न केवल इस विषय के निर्माण हेतु अपितु इसे वैज्ञानिक स्वरूप देने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

उन्होंने ही इस विषय में अध्ययन-अनुसंधान हेतु पद्धतिशास्त्र का भी निर्माण किया है। उनके द्वारा जो कार्य किए गए हैं वे उनकी शास्त्रीय रचनाओं में उपलब्ध हैं तथा उनके कार्यों को या रचनाओं को पढ़े बिना समाजशास्त्र को समझना संभव नहीं है। यदि हम उनके कार्यों का अध्ययन नहीं करेंगे तो विषय पर हमारी पकड़ अच्छी नहीं हो पाएगी। हम रटकर प्रश्न का उत्तर तो दे देंगे परंतु सामाजिक यथार्थता को पूर्णतया समझ नहीं पाएँगे।

8.

क्या आप तथा आपके सहपाठियों द्वारा बनाए गए समूह माक्र्सवादी अर्थ में वर्ग कहलाएँगे? इस दृष्टिकोण के पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।

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उन व्यक्तियों के समूह को वर्ग कहा जाता है जिनके जीवन बिताने का ढंग एक जैसा होता है। इसे प्रमुख रूप से आर्थिक आधार पर परिभाषित किया जाता है। यद्यपि वर्ग का आधार आर्थिक है परंतु वह आर्थिक समूह से कुछ अधिक होता है। मार्क्स के अनुसार, सामाजिक वर्ग ऐतिहासिक परिवर्तन की इकाइयाँ तथा आर्थिक व्यवस्था द्वारा समाज में निर्मित श्रेणियाँ दोनों ही हैं। मार्क्स ने एक समान चेतना को वर्ग का प्रमुख आधार माना है। अपनी समान स्थिति की चेतना के बिना वर्ग अधूरा होता है। वर्ग के प्रति सदस्यों की यह चेतना उनकी विभिन्न क्रियाओं में स्पष्ट देखी जा सकती है।

यह एक विवादास्पद विषय है कि विद्यालय में सहपाठियों के समूह को वर्ग कहा जा सकता है या नहीं। यह सही है कि इस समूह की प्रमुख विशेषता सहपाठी होना है; परंतु क्या इसी के आधार पर यह समूह वर्ग कहा जा सकता है? माक्र्स के वर्ग के विचारों के संदर्भ में तो नहीं। न तो सहपाठियों के समूह में उस अर्थ में अपने सामान्य भाग्य के प्रति चेतना पाई जाती है जिसको उल्लेख न ही मार्क्स ने किया है। और न ही उनके हित किसी अन्य समूह के विपरीत हैं जिससे कि वह अपने आपको संगठित कर सकें।

9.

क्या अमीर उद्योगपति अथवा फैक्ट्री के मालिक, जो नगरों में रहते हैं तथा जिनके पास, कोई कृषि भूमि नहीं है, एक ही वर्ग से संबंध रखते हैं जैसे गरीब कृषक मजदूर जो गाँव में रहता है तथा जिसके पास कोई जमीन नहीं है?

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अमीर उद्योगपति अथवा फैक्ट्री के मालिक, जो नगरों में रहते हैं तथा जिनके पास कोई कृषि भूमि नहीं है, एक ही वर्ग से संबंध नहीं रखते हैं। एक ग्रामीण गरीब भूमिहीन कृषक मजदूर तथा एक अमीर उद्योगपति अथवा फैक्ट्री के मालिक में कोई समानता नहीं है। यद्यपि दोनों के पास जमीन नहीं है, तथापि पहला निर्धन होने के कारण श्रमिक वर्ग का सदस्य है, जबकि उद्योगपति या फैक्ट्री के मालिक पूँजीपति वर्ग या उच्च वर्ग के सदस्य हैं। दोनों के हित भी एक जैसे नहीं है। एक निर्धनता का जीवन व्यतीत कर रहा है तथा हो सकता है कि पूरे वर्ष उसे मजदूरी का काम भी न मिले। मजदूरी के काम में भू-स्वामी उसका शोषण करता है।

अमीर उद्योगपति अथवा फैक्ट्री के मालिक दूसरों (श्रमिकों एवं अपने अधीन कार्य करने वाले अन्य कर्मचारियों) का शोषण करते हैं तथा उनका जीवन-स्तर भूमिहीन कृषि मजदूर के जीवन-स्तर से कहीं अधिक ऊँचा होता है। उनका एकमात्र उद्देश्य लाभ कमाना होता है। चाहे इसके लिए कर्मचारियों का कितना भी शोषण क्यों न करना पड़े। इतना ही नहीं, उत्पादन के साधनों की दृष्टि से भी दोनो अलग वर्ग के हैं। अमीर उद्योगपति अथवा फैक्ट्री का मालिक उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण रखते हैं, जबकि मजदूरों का इन साधनों पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होता। उन्हें केवल अपने श्रम के बदले निर्धारित धनराशि दी जाती है।

10.

समाजशास्त्र परिचय पुस्तक के प्रथम अध्याय की चर्चा ‘यूरोप में आधुनिक युग का आगमनं को देखें। वे कौन-से परिवर्तन थे जिनसे यह तीनों प्रक्रियाएँ (ज्ञानोदय, फ्रांसीसी क्रांति तथा औद्योगिक क्रांति) जुड़ी हुई थीं?

Answer»

ज्ञानोदय, फ्रांसीसी क्रांति तथा औद्योगिक क्रांति तीन ऐसी प्रक्रियाएँ मानी जाती हैं जिनके परिणामस्वरूप यूरोपीय समाजों में आमूल-चूल परिवर्तन हुए तथा इन परिवर्तनों को तथा इनके अनुरूप विकसित होने वाली सामाजिक संरचना को समझने के लिए समाजशास्त्र जैसे विषय का विकास हुआ। ज्ञानोदय के परिणामस्वरूप पश्चिमी यूरोप में एक नवीन दर्शन विकसित हुआ जिसने एक ओर मनुष्य को सम्पूर्ण ब्रह्मांड के केंद्र-बिंदु के रूप में स्थापित कर दिया तो दूसरी ओर विवेक को मनुष्य को की प्रमुख विशेषता के रूप में प्रतिपादित किया। विवेकपूर्ण एवं आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता ने मनुष्य को अपनी ही नजर में हमेशा के लिए ही परिवर्तित कर दिया।

इसी के परिणामस्वरूप ‘धर्मनिरपेक्षता’ वैज्ञानिक सोच’ तथा ‘मानवतावादी सोच’ जैसी वैचारिक प्रवृत्तियाँ विकसित हुईं। इसी भाँति फ्रांसीसी क्रांति तथा औद्योगिक क्रांति ने सामाजिक संरचना के सभी पक्षों को बदल दिया। उत्पादन की पूँजीवादी व्यवस्था विकसित हुई जिससे इन समाजों में वर्ग पर आधारित विषमताएँ और गहरी हो गईं। सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए सामाजिक सर्वेक्षण किए जाने लगे ताकि इन समस्याओं का समाधान निकाला जा सके। जीवन में अत्यधिक गतिशीलता एवं प्रतियोगिता आ गई तथा भौतिकवादी प्रवृत्ति विकसित होने लगी।

अतिरिक्त उत्पादन ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया, नगरीकरण में वृद्धि होने लगी तथा नगरों एवं औद्योगिक केंद्रों में जनसंख्या बढ़ने लगी। गंदी बस्तियाँ और सफाई के नितांत अभाव से अनेक नई समस्याएँ विकसित हो गईं जिनके समाधान की आशा राज्यतंत्र से की जाने लगी। राज्य से समाज कल्याण के कार्यों की अधिक आशा होने लगी। बाजारों का तेजी से विकास हुआ तथा अनौपचारिक संबंधों के स्थान पर औपचारिक संबंध प्रमुख होने लगे। यह सब परिवर्तन इतने दूरगामी थे कि इन्हें समझने के लिए समाजशास्त्र जैसे विषय का विकास हुआ।

11.

क्या कारखानों तथा कृषि कार्य करने वाले मजदूर एक ही वर्ग से संबंध रखते हैं? एक ही कारखाने में काम करने वाले मजदूर तथा मैनेजर-क्या ये एक ही वर्ग से संबंधित हैं?

Answer»

कारखानों में काम करने वाले मजदूर तथा कृषि कार्य करने वाले मजदूर एक ही वर्ग से संबंध रखते हैं। उनको अपने श्रम के बदले वेतन मिलता है तथा वे अपनी निम्न एवं दयनीय स्थिति के प्रति सचेत होते हैं। माक्र्स ने वर्ग को जिस अर्थ में प्रयुक्त किया है उसमें इन्हें ही वर्ग का माना जा सकता है। कारखानों में काम करने वाले मजदूर शोषक वर्ग में आते हैं जिनका उनके मालिक शोषण करते हैं। इसी भाँति, कृषि कार्य करने वाले भू-पतियों के शोषण का शिकार होते हैं।

दोनों प्रकार के मजदूरों में अपने सामान्य भाग्य के प्रति चेतना पायी जाती है। एक कारखानों में काम करने वाले मजदूर तथा मैनेजर एक वर्ग से संबंध नहीं होते। दोनों हैं तो कर्मचारी परंतु मजदूरों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति तथा कार्य मैनेजरों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति तथा कार्य से भिन्न होते हैं। मजदूर एक वर्ग का निर्माण करते हैं। तो मैनेजर दूसरे वर्ग का। मैनेजरों के वर्ग को कुछ लोग माध्यम वर्ग कहते हैं क्योंकि यह श्रमिक वर्ग एवं पूँजीपति वर्ग के बीच का वर्ग है। आजकल बैंकों में मैनेजरों के अपने अलग संगठन हैं तथा क्लर्को एवं चपरासियों के अलग।

12.

एक जमींदार जो काफी जमीन का मालिक है और एक छोटा किसान जिसके पास कम भूमि है-क्या ये दोनों एक ही वर्ग से संबंधित होंगे यदि वे एक ही गाँव में रहते हों तथा दोनों जमींदार हों?

Answer»

यह सही है कि एक ही गाँव में रहने वाले दो व्यक्ति-पहला जो काफी जमीन का मालिक है। तथा दूसरा जो एक छोटा किसान है जिसके पास कम भूमि है-भू-स्वामित्व के आधार पर जमींदार हैं। इस दृष्टि से उन्हें एक ही वर्ग का माना जा सकता है। इसे देखने का एक दूसरा दृष्टिकोण भी है, जिसके अनुसार दोनों जरूरी नहीं है कि एक ही वर्ग के हों। जो जमींदार काफी जमीन का मालिक है। उसका रहन-सहन एवं जीवन पद्धति उस जमींदार से कहीं ऊँची होगी जिसके पास कम भूमि है।

यदि दोनों भू-स्वामित्व के कारण अपनी सम्मान स्थिति के प्रति सचेत हैं तथा भूमिहीन कृषि मजदूरों के असंतोष एवं रोष का सामना कर रहे हैं तो दोनों एक वर्ग के भी सदस्य हो सकते हैं। मार्क्स ने जिस ‘बुर्जुआ’ वर्ग का उल्लेख किया है उसमें पूँजीपति सम्मिलित हैं, चाहे वे किसी एक छोटे कारखाने के मालिक हों या अनेक बड़े कारखानों के मालिक। अपने वर्ग के प्रति चेतना उन्हें एक वर्ग का तथा चेतना को अभाव उन्हें भिन्न वर्ग का सदस्य बना सकता है। वस्तुत: इस प्रकार के उदाहरणों में प्रमुख बात यह है कि वर्ग ‘अपने में वर्ग’ है अथवा ‘अपने लिए वर्ग है। अपने में वर्ग समान लक्षणों वाला हो सकता है जिसमें चेतना न हो। अपने लिए वर्ग समान विशेषताओं के साथ-साथ चेतनायुक्त भी होता है।

13.

नौकरशाही की बुनियादी विशेषताएँ क्या हैं?

Answer»

नौकरशाही के साथ जर्मनी के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर (1864-1920 ई०) का नाम जुड़ा हुआ है। उनके अनुसार नौकरशाही एक संस्तरणबद्ध संगठन है जिसकी रचना तार्किक ढंग से बहुत-से ऐसे व्यक्तियों के कार्यों के समीकरण के लिए की गई है जो वृहद् स्तर पर प्रशासनिक दायित्वों के संगठनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति में लगे हैं। नौकरशाही की बुनियादी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

⦁    अधिकारियों के प्रकार्य – नौकरशाही के अंतर्गत प्रत्येक अधिकारी के प्रकार्य (काम) सुस्पष्ट होते हैं जिनका संचालन नियमों, कानूनों तथा प्रशासनिक विधानों द्वारा होता है। उच्च अधिकारियों द्वारा अधीनस्थ वर्गों के कार्यों पर नियंत्रण रखा जाता है। नौकरशाही में नौकरी के अनुकूल योग्यता वाले व्यक्तियों की ही भरती की जाती है। नौकरशाही में सरकारी पद पदधारी से स्वतंत्र होते हैं क्योंकि वे उनके कार्यकाल के पश्चात् भी बने रहते हैं।
⦁    पदों का सोपानिक क्रम – नौकरशाही में सभी पद श्रेणीगत सोमान पर आधारित होते हैं। इसीलिए जहाँ एक ओर उच्च अधिकारी निम्न अधिकारी को निर्देश देते हैं वहीं दूसरी ओर निम्न अधिकारी अपनी शिकायत उच्च अधिकारी को कर सकते हैं।
⦁    लिखित दस्तावेजों की विश्वसनीयता – नौकरशाही का कार्य लिखित दस्तावेजों के आधार पर | होता है तथा फाइलों को रिकॉर्ड के रूप में सँभालकर रखा जाता है।
⦁    कार्यालय का प्रबंधन – कार्यालय का प्रबंधन विशिष्ट तथा आधुनिक क्रिया है। इसीलिए इसमें कार्य के लिए प्रशिक्षित और कुशल कर्मचारियों की आवश्यकता होती है।
⦁    कार्यालयी आचरण – प्रत्येक कार्यालय में कर्मचारियों का आचरण नियमों तथा कानूनों द्वारा | नियंत्रित होता है। इन्हीं के कारण उनका सार्वजनिक आचरण उनके निजी व्यवहार से अलग होता है। अपने आचरण हेतु प्रत्येक कर्मचारी जिम्मेदार होता है।

14.

उदाहरण सहित बताएँ कि नैतिक संहिताएँ सामाजिक एकता को कैसे दर्शाती हैं?

Answer»

नैतिक संहिताओं का सामाजिक एकता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। वस्तुतः नैतिक संहिताओं के आधार पर ही सामाजिक एकता के स्वरूप को पहचाना जा सकता है। सरल समाजों में अपराध सामूहिक चेतना के विरुद्ध कार्य माने जाते हैं तथा समाज इसका उल्लंघन करने वालों को कठोर दंड देता है। इन समाजों में नैतिक संहिताएँ लागू करने में दनमकारी कानून की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आधुनिक समाजों में नैतिक संहिताओं का अनुपालन क्षतिपूरक कानून द्वारा होता है जिसका उद्देश्य क्षति-प्राप्त व्यक्ति की क्षति को पूरा करना है अर्थात् उसे वह सब कुछ लौटा देना है जिसे गलत ढंग से उससे छीना गया है। इस प्रकार की नैतिक संहिताएँ एवं क्षतिपूरक कानून सावयवी एकता वाले समाज का लक्षण है।

15.

‘यांत्रिक’ और ‘सावयवी एकता में क्या अंतर है?

Answer»

दुर्खोम ने सामाजिक एकता (जिसे सामाजिक संश्लिष्टता अथवा सामाजिक मतैक्य भी कहा जाता है) के सिद्धांत का प्रतिपादन अपनी सर्वप्रथम पुस्तक ‘दि डिविजन ऑफ लेबर इन सोसायटी में किया है। यह पुस्तक 1893 ई० में फ्रेंच भाषा में प्रकाशित हुई तथा बाद में 1933 ई० में उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। वास्तव में, दुर्खोम की यह पुस्तक सामान्य जीवन के तथ्यों का वैज्ञानिक विधि द्वारा विश्लेषण का प्रथम प्रयास था। इस पुस्तक को लिखने की प्रेरणा उन्हें अर्थशास्त्री ऐडम स्मिथ के विचारों से मिली।
सामाजिक एकता का अर्थ समाज की विभिन्न इकाइयों में सामंजस्य से है अर्थात् यह ऐसी परिस्थिति है। जिसमें समाज की विभिन्न इकाइयाँ अपनी भूमिका निभाती हुई संपूर्ण समाज में संतुलन बनाए रखती हैं। उनके अनुसार सामाजिक एकता पूर्णतः एक नैतिक घटना है क्योंकि इसी के द्वारा पारस्परिक सहयोग तथा सद्भावना को बढ़ावा मिलता है। दुर्खोम ने सामाजिक एकता को दो श्रेणियों में बाँटा है –

1. यांत्रिक एकता – यांत्रिक एकता आदिम समाजों में अथवा सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से पिछड़े हुए समाजों में पायी जाती है। इन समाजों में विभेदीकरण अर्थात् कार्यों का वितरण न के बराबर होता है तथा केवल लिंग और आयु के आधार पर ही कार्यों में थोड़ा-बहुत विभेदीकरण पाया जाता है। सामूहिक चेतना (Collective conscience) द्वारा,सभी व्यक्ति एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं तथा इस सामूहिक चेतना को बनाए रखना सभी व्यक्ति अपना परम कर्तव्य मानते. हैं। यांत्रिक एकता वह एकता है जो कि व्यक्तियों द्वारा एक जैसे कार्यों के कारण आती है। अर्थात् जो समरूपता (Likeness) का परिणाम है यह एक सरल प्रकार की एकता है जो दमनकारी कानून द्वारा बनाए रखी जाती है।

2. सावयवी एकता – सावयवी एकता असमानताओं से विकसित होती है। इसका प्रमुख आधार श्रम-विभाजन है। यह एकता आधुनिक समाज की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। दुर्खोम का कहना है कि जैसे-जैसे समाज की जनसंख्या का घनत्व तथा आयतन बढ़ता जाता है वैसे-वैसे व्यक्तियों की आवश्यकताएँ भी बढ़ती जाती हैं। इन बढ़ती हुई आवश्यकताओं के कारण व्यक्तियों के कार्यों में भिन्नता आती है तथा इसके साथ ही इनमें विशेषीकरण बढ़ता है अर्थात् श्रम-विभाजन की वृद्धि होती है। उस एकता को, जो कि कार्यों की भिन्नता द्वारा विशेषीकरण (अर्थात् श्रम-विभाजन) और इसके परिणामस्वरूप व्यक्तियों की अन्योन्याश्रितता के कारण आती हैं, दुर्वीम सावयवी एकता कहते हैं। सावयवी एकता की पुष्टि क्षतिपूरक कानून द्वारा होती है।

‘यांत्रिक’ और ‘सावयवी’ एकता में निम्नलिखित अंतर पाए जाते हैं-
⦁    यांत्रिक एकता समानताओं पर आधारित होती है, जबकि सावयवी असमानताओं अर्थात् श्रम-विभाज़न पर आधारित होती है।
⦁    यांत्रिक एकता सरल समाजों में पायी जाती है, जबकि सावयवी एकता आधुनिक समाजों को प्रमुख लक्षण है।
⦁    यांत्रिक एकता बनाए रखने में दमनकारी कानून की प्रमुख भूमिका होती है, जबकि सावयवी एकता बनाए रखने में क्षतिपूरक कानून की।
⦁    यांत्रिक एकता का प्रारूप खंडात्मक होता है, जबकि सावयवी एकता का संगठित।
⦁    यांत्रिक एकता जनसंख्या के सापेक्षिक रूप से कम घनत्व वाले समाजों में पायी जाती है, जबकि सावयवी एकता जनसंख्या में घनत्व की ऊँची मात्रा वाले समाजों में।

16.

सामाजिक तथ्य क्या हैं? हम उन्हें कैसे पहचानते हैं?

Answer»

समाजशास्त्र के जनक कॉम्टे के उत्तराधिकारी माने जाने वाले फ्रांसीसी विद्वान् दुर्खोम (1858 – 1917 ई०) ने समाजशास्त्र को वैज्ञानिक धरातल पर दृढ़ करने में विशेष भूमिका निभाई है। उनका विचार था कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु सामाजिक तथ्य हैं जिनका अध्ययन आनुभविक रूप में किया जा सकता है। प्रत्येक समाज में घटनाओं का एक विशिष्ट समूह होता है जो कि उन तथ्यों से भिन्न होता है जिनका अध्ययन प्राकृतिक विज्ञान करते हैं। सामाजिक तथ्यों की श्रेणी में कार्य करने, सोचने तथा अनुभव करने के वे तरीके आते हैं जिनमें व्यक्तिगत चेतना से बाहर भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने की उल्लेखनीय विशेषता होता है।
दुर्खोम के अनुसार, “एक सामाजिक तथ्य काम करने का वह प्रत्येक ढंग है जो निर्धारित अथवा अनिर्धारित है और जो व्यक्ति पर एक बाहरी दबाव डालने के योग्य है अथवा काम करने का वह प्रत्येक तरीका है जो निर्दिष्ट समाज में सर्वत्र सामान्य है, और साथ ही व्यक्तिगत अभिव्यक्तियों से स्वतंत्र वह अपना अस्तित्व बनाए रखता है।” इस परिभाषा से दो बातें स्पष्ट होती हैं- प्रथम, सामाजिक तथ्य कार्य करने (चाहे वे संस्थागत हैं या नहीं), सोचने तथा अनुभव करने के तरीके हैं; तथा दूसरे, इन तरीकों में व्यक्तिगत चेतना से बाह्यता (Exteriority) और दबाव की शक्ति (Constraint) की दो प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं।

बाह्यता का अर्थ है कि सामाजिक तथ्यों का स्रोत व्यक्ति नहीं होता, अपितु समाज होता है, चाहे वह पूर्ण राजनीतिक समाज हो या उसका कोई आंशिक समूह; जैसे-धार्मिक समुदाय तथा राजनीतिक, साहित्यिक एवं व्यावसायिक संघ इत्यादि। दबाव की शक्ति का अर्थ है कि सामाजिक तथ्य व्यक्ति के व्यवहार पर नियंत्रण रखते हैं। जब हम कोई ऐसी बात करना चाहते हैं जिसे दूसरे पसंद नहीं करते तथा न ही उसके करने की प्रशंसा करते हैं। तो हम वह कार्य सामान्य रूप से नहीं करते अर्थात् व्यक्ति तब दबाव महसूस करता है जब वह किसी कार्य को करना चाहता है परंतु कर नहीं पाता क्योंकि दूसरे व्यक्ति ऐसा नहीं चाहते।

17.

मार्क्स के अनुसार विभिन्न वर्गों में संघर्ष क्या होते हैं?

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मार्क्स के लिए व्यक्ति को सामाजिक समूहों में विभाजित करने वाला सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधार उत्पादन प्रक्रिया है। उत्पादन प्रक्रिया में जो व्यक्ति एक जैसे पदों पर आसीन होते हैं, वे स्वतः ही एक वर्ग निर्मित करते हैं। उत्पादन प्रक्रिया में अपनी स्थिति के अनुसार तथा संपत्ति के संबंधों में उनकै एक जैसे हित तथा उद्देश्य होते हैं। यही सामान्य हित वर्ग के सदस्यों में वर्ग के प्रति जागरूकता विकसित करते हैं।

मार्क्स ने पूँजीवादी समाज में दो प्रमुख वर्गों का उल्लेख किया है- एक पूँजीपतियों का वर्ग (बुर्जुआ वर्ग) जिसका उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण होता है तथा दूसरा सम्पत्तिविहीन सर्वहारा वर्ग जिसके सदस्यों को अपनी आजीविका के लिए मजबूरी में श्रमिकों के रूप में काम करना पड़ता है। इन वर्गों के उद्देश्य परस्पर विरोधी होते हैं। वर्ग चेतना विकसित होने के उपरांत राजनीतिक गोलबंदी के तहत इन दोनों में वर्ग संघर्ष विकसित होने लगते हैं।

मार्क्स का मत था-“प्रत्येक विद्यमान समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।” आदिम युग से लेकर आधुनिक युग के समाज तक समाज में दो वर्ग ही प्रमुख रहे हैं-एक शोषक वर्ग तथा दूसरा शोषित वर्ग। इन दोनों वर्गों के नाम विभिन्न युगों में भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। शोषक और शोषित वर्ग, एक-दूसरे का कभी दबे रूप में और कभी खुले रूप में निरंतर विरोध करते रहे हैं। यही विरोध वर्ग संघर्ष के रूप में प्रतिफलित होता रहा है। माक्र्स ने कल्पना की थी कि एक दिन सर्वहारा वर्ग पूँजीपतियों को खदेड़कर उत्पादन के साधनों पर अपना अधिकार जमा लेगा तथा ऐसे समाज का निर्माण होगा जिसे उन्होंने ‘वर्गविहीन समाज’ की संज्ञा दी।

18.

उत्पादन के तरीकों के विभिन्न संघटक कौन-कौन से हैं?

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जर्मनी में जन्मे विद्वान कार्ल मार्क्स (1818-1883 ई०) वैज्ञानिक समाजवाद द्वारा मजदूरों पर होने वाले अत्याचार एवं शोषण को समाप्त करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने पूँजीवादी समाज का आलोचनात्मक विश्लेषण कर उसकी कमियों को उजागर किया ताकि इस व्यवस्था का पतन हो सके। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में मार्क्स की धारणा थी कि यह उत्पादन के तरीकों पर आधारित होती है। यह उत्पादन की विस्तृत प्रणाली है जिसका संबंध ऐतिहासिक काल से होता है। आदिम साम्यवाद, दास प्रथा, सामंतवाद, पूँजीवाद- ये सब उत्पादन की व्यवस्थाएँ हैं।

सामान्य स्तर पर उत्पादन की व्यवस्थाएँ एक समय विशेष में जीवन की विशेषताओं को दर्शाती हैं। अर्थव्यवस्था का आधार प्राथमिक तौर पर आर्थिक होता है और इसमें उत्पादन शक्तियाँ और उत्पादन संबंध सम्मिलित होते हैं। उत्पादन शक्तियों से तात्पर्य उत्पादन के सभी साधनों (जैसे-भूमि, मजदूर, तकनीक, ऊर्जा के विभिन्न स्रोत आदि) से है। उत्पादन संबंधों के अंतर्गत वे सभी आर्थिक संबंध-आते हैं जो मजदूर संगठन के रूप में उत्पादन में भाग लेते हैं। उत्पादन संबंध, संपत्ति संबंध भी होते हैं क्योंकि ये स्वामित्व अथवा उत्पादन के साधनों के नियंत्रण से संबंधित होते हैं।

19.

औद्योगिक क्रांति किस प्रकार समाजशास्त्र के जन्म के लिए उत्तरदायी है?

Answer»

उत्पादन हेतु मशीनों के प्रयोग पर आधारित वह तकनीक, जिसने आधुनिक उद्योगों की नींव रखी, औद्योगिक क्रांति की देन है। इस क्रांति का प्रारंभ ब्रिटेन में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा 19वीं शताब्दी के शुरू में हुआ। भूमि के स्थान पर उद्योग धन का स्रोत बन गए। पुराने कुटीर उद्योग ढह गए तथा फैक्ट्रियों व कारखानों में काम करने के लिए दूर-दराज से मजदूर आकर इकट्ठे होने लगे। हाथ के कारीगर बेरोजगार हो गए; अतः वे कारखानों में काम करने के लिए मजबूर हो गए।

बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए बड़ी मात्रा में कच्चे माल की खपत होने लगी। निर्मित माल के विक्रय-के लिए बाजार का भी विस्तार आवश्यक हो गया। पश्चिमी यूरोप के देशों के लिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार खोजना स्वाभाविक बन गया। उद्योगपतियों की आपसी होड़ और अधिक-से-अधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप कारखानों में मजदूरों की दशा दयनीय हो गई। औद्योगिक नगर समृद्धि के चारों ओर दर्दनाक गरीबी के साक्षी बन गए। पुराने सामाजिक मूल्य और परंपराएँ सामान्य जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक नहीं रह गए थे।

औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। न केवल ऊँच-नीच में वृद्धि हुई, अपितु लोग गाँव छोड़कर नगरों में रोजगार की तलाश में आने लगे। स्त्रियों और बच्चों तक को खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ा। मजदूर वर्ग के गरीब लोग झुग्गी-झोंपडियों वाली गंदी बस्तियों में रहने के लिए विवश हो गए। इन परिस्थितियों ने राज्यतंत्र को सार्वजनिक सामूहिक विषयों की जिम्मेदारी उठाने के लिए बाध्य कर दिया।

इन नई जिम्मेदारियों को निभाने के लिए शासनतंत्र को एक नवीन प्रकार की जानकारी व ज्ञान की आवश्यकता महसूस हुई। नए ज्ञान के लिए उभरती माँग ने समाजशास्त्र जैसे विषय के अभ्युदय एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसीलिए शुरू से ही समाजशास्त्रीय विचार मुख्य रूप से औद्योगिक समाज के विकास के वैज्ञानिक आविष्कार से जुड़े हुए हैं।

20.

बौद्धिक ज्ञानोदय किस प्रकार समाजशास्त्र के विकास के लिए आवश्यक है?

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समाजशास्त्र के विकास में बौद्धिक ज्ञानोदय की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। ज्ञानोदय को ‘विवेक का युग’ कहा जाता है। 17 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं 18 वीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप के देशों में विश्व के बारे में सोचने-विचारने का एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ जिसे ज्ञानोदय कहा जाता है। इस नवीन दर्शन ने एक ओर मनुष्य को संपूर्ण ब्रह्मांड के केंद्र-बिंदु के रूप में स्थापित कर दिया तो दूसरी ओर विवेक को मनुष्य की प्रमुख विशेषता के रूप में प्रतिपादित किया।

विवेकपूर्ण एवं आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता ने मनुष्य को अपनी ही नजर में हमेशा के लिए परिवर्तित कर दिया। यद्यपि व्यक्ति को ज्ञान के उत्पादक एवं उपभोक्ता के रूप में प्रतिस्थापित किया गया, तथापि उन्हीं व्यक्तियों को पूर्ण रूप से मनुष्य माना गया जो विवेकपूर्ण ढंग से सोच-विचार सकते थे। इस क्षमता के न होने वाले व्यक्तियों को आदिमानव’ अथवा ‘बर्बर मानव’ कहा गया। मानव समाज चूंकि मनुष्यों द्वारा बनाया जाता है इसलिए इसका युक्तिसंगत विश्लेषण संभव है। इस प्रकार के विश्लेषण की मदद से एक समाज में रहने वाले लोग दूसरे समाज को भी समझ सकते हैं।

विवेकपूर्ण एवं आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता ने धर्म, संप्रदाय व देवी-देवताओं के महत्त्व को कम कर दिया तथा ‘धर्मनिरपेक्षता’ ‘वैज्ञानिक सोच तथा ‘मानवतावादी सोच’ जैसी वैचारिक प्रवृत्तियाँ विकसित हुईं। प्रोटेस्टेंट विद्रोह तथा वैज्ञानिक क्रांति ने 18वीं शताब्दी में जिस ज्ञानोदय के युग का प्रारंभ किया उसमें सामाजि एवं राजनीतिक समस्याओं के प्रति नवीन दृष्टि से विचार किया जाने लगा। इसी नवीन दृष्टि ने समाजशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

ज्ञानोदय द्वारा व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला तथा यह दृढ़ विश्वास विकसित हुआ कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति द्वारा मानवीय पहलुओं का अध्ययन किया जा सकता है और करना भी चाहिए। उदाहरणार्थ-ग़रीबी, जो अभी तक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में जानी जाती थी, उसे सामाजिक समस्या के रूप में देखना प्रारंभ हुआ जो कि मानवीय उपेक्षा अथवा शोषण का परिणाम है। यह दृष्टिकोण विकसित हुआ कि गरीबी को समझा जा सकता है और इसका निराकरण संभव है। यह धारणा भी विकसित हुई कि ज्ञान में वृद्धि से सभी बुराइयों का समाधान संभव है। इन्हीं विचारों से समाजशास्त्र का विकास हुआ। समाजशास्त्र के जनक आगस्त कॉम्टे का विश्वास था कि जिस विषय का विकास कर रहे हैं वह मानव कल्याण में योगदान देगा।

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माक्र्स की अधिसंरचना तथा ‘अधोसंरचना की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।

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किसी समाज की अधिसंरचना से अभिप्राय उस आर्थिक संरचना से है जिस पर समाज का संपूर्ण ढाँचा निर्भर करता है। इसके निर्धारण में उत्पादन के संबंधों एवं उत्पादन की शक्तियों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। मार्स ने इसे वह आधार माना है जो समाज की अधोसंरचना को निर्धारित करता है। अधोसंरचना से अभिप्राय उन वैचारिक संरचनाओं से है जो अधिसंरचना द्वारा निर्धारित होती है। इनमें कानून, राजनीति, धर्म, कलाएँ, दर्शन आदि सम्मिलित होते हैं। माक्र्स का कहना है कि आर्थिक अधिसंरचना के अनुसार ही कानून, राजनीति, धर्म, कलाएँ, दर्शन आदि अधोसरचंनाएँ निर्मित होती हैं।

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आदर्श प्रारूप की अवधारणा किसने दी?(क) बटेंड रसेल(ख) वेबर ने(ग) वाटसन(घ) हैन्सन

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सही विकल्प है  (ख) वेबर ने

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वेबर की आदर्श-प्रारूप की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।या‘आदर्श-प्रारूप’ से क्या अभिप्राय है?

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आदर्श-प्रारूप की अवधारणा मैक्स वेबर के पद्धतिशास्त्र का एक प्रमुख पहलू है। वेबर के समय जर्मनी में यह विचारधारा अत्यंत प्रचलित थी कि सामाजिक घटनाओं पर प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति के अनुसार विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सामाजिक क्षेत्र में व्याख्या और स्पष्टीकरण मूलतः ऐतिहासिक हैं। आदर्श-प्रारूप की अवधारणा इस विचारधारा का खंडन कर एक ऐसी पद्धति प्रदान करती है जो कि वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने में सहायक है।

वेबर के अनुसार तर्कसंगत ढंग से सामाजिक घटनाओं के कार्य-कारण संबंधों को तब तक स्पष्ट नहीं किया जा सकता जब तक कि उन घटनाओं को पहले समानताओं के आधार पर कुछ सैद्धांतिक श्रेणियों में न बाँट लिया जाए। ऐसा करने पर समाजशास्त्री को आदर्श-प्रारूप घटनाएँ मिल जाएँगी। इस दृष्टिकोण से सामाजिक घटनाओं की तार्किक संरचना में बुनियादी पुनर्निर्माण की आवश्यकता होती है जिसे वेबर ने आदर्श-प्रारूप की अवधारणा को विकसित करके किया है। समाजशास्त्रियों को अपनी उपकल्पना का निर्माण करने के लिए ‘आदर्श’ अवधारणाओं को चुनना चाहिए।

वैबर के अनुसार-‘आदर्श-प्रारूप न तो औसत-प्रारूप है और न ही आदर्शात्मक है, बल्कि वास्तविकता के कुछ तत्त्वों के विचारपूर्वक चुनाव तथा सम्मिलन द्वारा निर्मित आदर्शात्मक मापदंड है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है-“आदर्श-प्रारूप से तात्पर्य कुछ वास्तविक तथ्यों के तर्कसंगत आधार पर यथार्थ अवधारणाओं का निर्माण करने से है।” “आदर्श’ शब्द किसी प्रकार के मूल्यांकन से संबंधित नहीं है।

वेबर के द्वारा प्रतिपादित आदर्श-प्रारूप की अवधारणा की निम्नलिखित तीन प्रमुख विशेषताएँ है-
⦁    आदर्श-प्रारूप का निर्माण, कर्ता की क्रिया के इच्छित अर्थ के अनुसार किया जाता है।
⦁    आदर्श-प्रारूप संपूर्णता अथवा सब-कुछ का विश्लेषण नहीं है अपितु सामाजिक क्रिया या घटना के अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्षों का निरूपण है; विशेषतया उन पक्षों का जिन्हें आदर्श-प्रारूप का निर्माण करने वाला विद्वान महत्त्वपूर्ण मानता है।
⦁    वेबर के अनुसार आदर्श-प्रारूप सामाजिक विज्ञानों का अंतिम सत्य नहीं है अपितु आदर्श-प्रारूप को मात्र ठोस ऐतिहासिक समस्याओं के विश्लेषण हेतु साधन या उपकरण के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए।

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दि डिविसन ऑफ लेबर इन सोसाइटी पुस्तक के लेखक कौन हैं?(क) मैक्स वेबर(ख) लार्ड हेवर्ट(ग) एमाइल दुखम(घ) परकिंस

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सही विकल्प है  (ग) एमाइल दुर्वीम