This section includes InterviewSolutions, each offering curated multiple-choice questions to sharpen your knowledge and support exam preparation. Choose a topic below to get started.
| 18501. |
क्रान्तिकारी हथियार लेकर अंग्रेजों से लड़ने की बात क्यों करते थे? |
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Answer» क्रान्तिकारी हथियार लेकर अंग्रेजों से लड़ने की बात इसलिए करते थे क्योंकि अंग्रेज भारत की जनता पर अत्याचार कर रहे थे और उन्हें सिर्फ माँगने से आजादी नहीं मिल सकती थी। |
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| 18502. |
बिहार में मुण्डा विद्रोहियों के नेता कौन थे? |
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Answer» बिहार में मुण्डा विद्रोहियों के नेता बिरसा मुंडा थे। |
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| 18503. |
नौसेना के सिपाहियों ने किसका आदेश मानने से इंकार कर दिया? |
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Answer» नौसेना के सिपाहियों ने अंग्रेज कमांडर का आदेश मानने से इनकार कर दिया। |
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| 18504. |
शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किसने किया था ? |
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Answer» स्वामी विवेकानन्द ने। |
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| 18505. |
लाला लाजपत राय का जन्म कब और कहाँ हुआ था? |
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Answer» लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी सन् 1865 ई० में फिरोजपुर जिले के ढोडिके गाँव में हुआ। |
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| 18506. |
लॉर्ड डलहौजी ने यातायात तथा संचार-व्यवस्था में क्या सधार किए? |
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Answer» लॉर्ड डलहौजी ने भारत में रेल, सड़क और तार विभाग को अत्यन्त महत्व दिया। भारत में रेलवे व्यवस्था का प्रारम्भ करने का श्रेय लॉर्ड डलहौजी को ही प्राप्त है। उसने ग्रांड ट्रंक रोड का पुनर्निमाण कराया तथा रेल एवं डाक व तार की व्यवस्था की। 1853 ई० में बम्बई से थाणे तक पहली रेलवे लाइन बनी। लॉर्ड डलहौजी ने सम्पूर्ण भारत के लिए रेलवे लाइन की योजना बनाई जो बाद में सम्पन्न हो सकी। तार लाइन का निर्माण भी सर्वप्रथम लॉर्ड डलहौजी के काल में हुआ। 1853 ई० से 1856 ई० तक विस्तृत क्षेत्र में तार लाइन बिछा दी गई, जिससे कलकत्ता (कोलकाता) और पेशावर तथा बम्बई (मुम्बई) और मद्रास (चेन्नई) के मध्य निकट सम्पर्क हो सका। |
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| 18507. |
लॉर्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति क्या थी? संक्षिप्त वर्णन कीजिए। |
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Answer» जिस प्रकार वेलेजली ने ‘सहायक संधि’ द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार किया था, ठीक उसी प्रकार लॉर्ड डलहौजी ने राज्य हड़प नीति द्वारा भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार किया। लॉर्ड डलहौजी की वास्तविक प्रसिद्धि का कारण उसकी साम्राज्यवादी नीति थी। साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण में उसने तीन उपाय किए। पहला युद्ध, दूसरा कुशासन एवं तीसरा राज्य हड़पनीति या गोद निषेद नीति। उस समय अनेक ऐसे राज्य थे, जिनके शासक सन्तान हीन थे। डलहौजी ने दत्तक पुत्र को गोद लेने के अधिकार को छीनकर ऐसे सन्तान हीन शासकों के राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिए। |
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| 18508. |
लॉर्ड बैंटिक की नीति उदार थी।’ इस कथन के आलोक में उसके सुधारों का वर्णन कीजिए। |
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Answer» लॉर्ड विलियम बैंटिंक की नीति- स्वभाव और मानसिक दृष्टिकोण से वह उदार विचारों वाला शासक था। पी०ई० रॉबर्ट्स के अनुसार- “लार्ड विलियम बैंटिंक अपने समय का सर्वथा उदार विचारों वाला व्यक्ति था। उसका युग सहानुभूतिपूर्ण तथा संसदीय सुधारों का युग था तथा वह उसके सर्वथा अनुरूप था।” वह शान्तिप्रिय था और सुधार कार्य की उसमें प्रबल इच्छा थी। वह उन्मुक्त व्यापार एवं उन्मुक्त प्रतियोगिता की नीति का समर्थक था और उसका विश्वास था कि राज्य को जनता के जीवन में कम-से-कम हस्तक्षेप करना चाहिए। फिर भी लोकहितकारी कार्यों का सम्पादन करने में वह किसी प्रकार के संकोच का अनुभव नहीं करता था। वह सुधारों का प्रबल पक्षपाती था तथा उदार विचार वाला होने के कारण अंग्रेजों की उग्र एवं साम्राज्यवादी नीति का विरोधी था। (i) प्रशासनिक और न्यायिक सुधार- सर्वप्रथम बैंटिंक ने प्रशासनिक सुधारों की तरफ ध्यान दिया। वस्तुत: लॉर्ड कार्नवालिस के पश्चात् किसी भी गवर्नर जनरल ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया। प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में सुधार लाने के लिए बैंटिंक ने अग्रलिखित कार्य किए ⦁ अभी तक कम्पनी के महत्वपूर्ण पदों पर ज्यादातर अंग्रेज अधिकारी नियुक्त थे। बैंटिंक ने अब भारतीयों को भी योग्यता के आधार पर प्रशासनिक सेवा में भर्ती करना आरम्भ कर दिया। (ii) शिक्षा-सम्बन्धी सुधार- लॉर्ड बैंटिंक ने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण सुधार किए। मैकाले ने 2 फरवरी, 1835 ई० के अपने स्मरण-पत्र में प्राच्य शिक्षा की खिल्ली उड़ाई एवं अपनी योग्यता प्रस्तुत की, जिसका उद्देश्य यह था कि भारत में “एक ऐसा वर्ग बनाया जाए, जो रंग तथा रक्त से तो भारतीय हो, परन्तु प्रवृत्ति, विचार, नैतिकता तथा बुद्धि से अंग्रेज हो।” बैंटिंक ने मैकाले की यह नीति (योजना) स्वीकार कर ली। फलस्वरूप भारत में अंग्रेजी को प्रोत्साहन दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार के लिए अनुदान दिए गए तथा कलकत्ता में एक मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गई। इससे भारतीय पाश्चात्य ज्ञान के सम्पर्क में आए। (iii) सती प्रथा का अन्त- भारत में सती प्रथा एक घोर सामाजिक बुराई थी, जिसका काफी समय से चलन था। 4 दिसम्बर, 1829 ई० को बैंटिंक ने एक कानून पारित कर सती प्रथा को नर हत्या का अपराध घोषित कर दिया। सती प्रथा को समाप्त करने में बैंटिंक को महान समाज सुधारक राजा राममोहन राय का भरपूर सहयोग मिला। ठगों का दमन- उन्नीसवीं सदी के पहले चार दशकों तक बनारसी ठगों का देशभर में खासकर उत्तर भारत के कई इलाकों में बड़ा आतंक था। ठगी के इस महाजाल को पूरी तरह से नेस्तनाबूद करने में बैंटिंक व स्लीमैन समेत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कई सिपहसालारों के भी पसीने छूट गए थे। अतः बैंटिंक द्वारा ठगों का दमन करना भी महत्वपूर्ण कार्य था। मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् ठगों के प्रभाव में काफी वृद्धि हो चुकी थी। इन्हें जमींदार तथा उच्च अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त था। ठगों के अत्याचारों से जनता त्रस्त थी। ठगों का अन्त करने के लिए बैंटिंक ने कर्नल स्लीमैन के साथ बड़े ही व्यवस्थित ढंग से कार्यवाही प्रारम्भ की। उसने एक के बाद एक, दूसरे गिरोह को पकड़ा और उन्हें कठोर सजाएँ दीं। उसने लगभग 2,000 ठगों को बन्दी बनाया। इनमें से उसने 1,300 को मृत्युदण्ड दिया। 500 ठगों को जबलपुर स्थित सुधार-गृह में भेज दिया गया तथा शेष को देश से निष्कासित कर दिया। बैंटिंक के इस कठोर कदम से 1837 ई० तक संगठित तौर पर काम करने वाले ठगों के गिरोहों का सफाया हो गया। (v) नर-बलि की प्रथा का अन्त- भारत के कुछ हिस्सों में नर-बलि की प्रथा भी प्रचलित थी। यह प्रथा असभ्य एवं जंगली जातियों के बीच व्याप्त थी। वे अपने देवता को प्रसन्न करने के लिए निरपराध व्यक्तियों को भी पकड़कर उनकी बलि चढ़ा दिया करते थे। एक कानून बनाकर बैंटिंक ने इस कुप्रथा को बन्द करवा दिया। (vi) दास प्रथा का अन्त- भारत में दास प्रभा भी प्राचीनकाल से ही प्रचलित थी। दासों की खरीद-बिक्री होती थी। उनसे जानवरों की तरह व्यवहार किया जाता था। बैंटिंक ने 1832 ई० में कानून बनाकर दास प्रथा को भी समाप्त कर दिया। (vii) हिन्दू उत्तराधिकार कानून में सुधार- हिन्दू उत्तराधिकार नियम में यह दोष व्याप्त था कि अगर कोई व्यक्ति अपना धर्म बदल लेता है तो उसे पैतृक सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। बैंटिंक ने घोषणा की कि “धर्म-परिवर्तन करने की स्थिति में उसे पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। उसे नियमानुसार पैतृक सम्पत्ति का भाग मिलेगा। (viii) बाल-वध निषेध- सती प्रथा के समान बाल-वध की भी कुप्रथा प्रचलित थी। अनेक स्त्रियाँ अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने बच्चों की बलि चढ़ाने की मनौतियाँ मानती थीं और उनकी बलि चढ़ा देती थीं। राजपूतों में तो कन्या का जन्म ही अपमान का द्योतक था। अत: कन्या के जन्म लेते ही उसकी हत्या कर दी जाती थी। इसलिए बैंटिंक ने बंगाल रेग्यूलेशन ऐक्ट के द्वारा इस कुप्रथा को बन्द करवा दिया। (ix) जनहितोपयोगी कार्य- बैंटिंक ने जनहित की सुविधा के लिए भी अनेक कार्य करवाए। नहरों, सड़कों, कुओं आदि का निर्माण भी करवाया। (x) आर्थिक सुधार- बैंटिंक जिस समय भारत आया, कम्पनी की स्थिति ठीक नहीं थी। बर्मा (म्यांमार) युद्ध ने कम्पनी का कोष करीब-करीब रिक्त कर दिया था। उसने आर्थिक सुधार करते हुए असैनिक अधिकारियों के वेतन और भत्ते बन्द कर दिए। अनावश्यक पदों की समाप्ति कर दी। कलकत्ता (कोलकाता) से 400 मील की सीमा में निवास करने वाले सैनिक अधिकारियों को केवल आधा भत्ता दिया जाना निश्चित कर दिया, इससे कम्पनी को लगभग 1,20,000 पौण्ड की वार्षिक बचत हुई। धन की बचत के लिए उसने उच्च पदों पर कम वेतन देकर भारतीयों को नियुक्त कर दिया, जिससे भारतीयों का अंग्रेजों के प्रति असन्तोष भी कम हो गया। बैंटिंक ने लगान मुक्त भूमि का सर्वेक्षण कर उसे जब्त कर लिया तथा उस पर लगान लगा दिया। बैंटिंक के इस कार्य से कम्पनी को करीब 3 लाख रुपए की अतिरिक्त राशि प्राप्त होने लगी |
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| 18509. |
लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों का विस्तृत वर्णन कीजिए। |
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Answer» लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं (i) भूमि का स्थायी बन्दोबस्त (i) भूमि का स्थायी बन्दोबस्त- अब तक कम्पनी वार्षिक ठेके के आधार पर लगान वसूल करती थी। सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को ही जमीन दी जाती थी। इससे कम्पनी और किसान दोनों को ही परेशानी हो रही थी। अतः कार्नवालिस ने 1790 ई० में यह योजना पेश की कि जमींदारों को भू-स्वामी स्वीकर कर निश्चित लगान के बदले निश्चित अविध के लिए उन्हें जमीन दे दी जाए। संचालकों की अनुमति से 1790 ई० में बंगाल के जमीदारों के साथ ‘दससाला’ प्रबन्ध स्थापित किया गया। बाद में 1793 ई० में बंगाल और बिहार में इस व्यवस्था को चिर-स्थायी व्यवस्था या स्थायी बन्दोबस्त के नाम से घोषित किया गया। इस व्यवस्था के अनुसार, जमींदार भू-स्वामी बन गए। किसानों की स्थिति रैयतमात्र ही रह गई। जमींदारों को निश्चित अवधि के भीतर वसूल किए गए लगान का 10/11 हिस्सा कम्पनी को देना था और 1/11 भाग अपने खर्च के लिए रखना था। लगान की राशि निश्चित कर दी गई। इस व्यवस्था के अन्तर्गत हानि और लाभ दोनों ही विद्यमान थे। लाभ- इस बन्दोबस्त से अंग्रेजों ने जमींदारों को भूमि का स्वामी बना दिया। इससे दो लाभ हुए-प्रथम, राजनीतिक दृष्टि से अंग्रेजों को भारत में एक ऐसा वर्ग प्राप्त हो गया, जो प्रत्येक स्थिति में अंग्रेजों का साथ देने को तैयार था। द्वितीय, इससे आर्थिक दृष्टि से लाभ हुआ। जमींदारों ने कृषि में स्थायी रुचि लेना आरम्भ किया क्योंकि कृषि के उत्पादन में वृद्धि होने से अधिकांश लाभ उन्हीं का था। सरकार को उन्हें निश्चित लगान देना था, जबकि उत्पादन में वृद्धि होने से वे स्वयं किसानों से अधिक लगान ले सकते थे। इस कारण कृषि की उन्नति से धीरे-धीरे बंगाल और बिहार पुन: धनवान सूबे बन गए। इस व्यवस्था से कम्पनी की आय भी निश्चित हो गई और उसे योजनाएँ लागू करने में आसानी हुई। इस प्रकार अब कम्पनी के कर्मचारियों को लगान की व्यवस्था करने से मुक्ति मिल गई और वे अधिक स्वतन्त्रता से न्याय, शासन और कम्पनी के व्यापार की ओर ध्यान दे सकते थे। हानि- इस बन्दोबस्त में किसानों के हित का कोई ध्यान नहीं रखा गया था। उनका भूमि पर कोई अधिकार न रहा और लगान के विषय में वे पूर्णत: जमींदारों की दया पर छोड़ दिए गए। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बिचौलियों की संख्या में वृद्धि हुई और किसानों का शोषण बढ़ा। इसी कारण इस व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च-स्तर पर सामन्तवादी शोषण और निम्न स्तर पर दासता की भावना को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। (ii) न्याय-सम्बन्धी सुधार- न्याय के क्षेत्र में कार्नवालिस ने अनेक महत्वपूर्ण सुधार किए (क) कलेक्टरों को मजिस्ट्रेटों के अधिकार- कार्नवालिस ने 1787 ई० में उन जिलों को छोड़कर, जहाँ पर उच्च न्यायालय स्थापित थे, न्याय के अधिकार पुनः कलेक्टरों को प्रदान कर दिए तथा कुछ फौजदारी मुकदमों का निर्णय करने का अधिकार भी कलेक्टरों को दिया गया। फौजदारी के क्षेत्र में भी कार्नवालिस ने सुधार किए। फौजदारी की मुख्य अदालत मुर्शिदाबाद के स्थान पर पुनः कलकत्ता में स्थापित की गई, जिसके अध्यक्ष गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के सदस्य होते थे। (ख) जिला अदालतों का अन्त- कार्नवालिस ने जिले की अदालतों को समाप्त करके कलकत्ता, ढाका, पटना तथा मुर्शिदाबाद में प्रान्तीय अदालतों की स्थापना करवाई। 5,000 रुपए से अधिक मूल्य के मामलों की अपील सपरिषद् सम्राट के यहाँ ही हो सकती थी। (ग) कार्नवालिस कोडा- 1793 ई० में कार्नवालिस कोड के अनुसार जजों की नियुक्ति की गई तथा उन्हें न्याय सम्बन्धी अधिकार प्रदान किए गए। फौजदारी मुकदमों में मुस्लिम कानून प्रयोग में लाया गया। अंग-भंग के स्थान पर कठोर कैद की सजा देने का प्रावधान किया गया। निचली(लोअर)अदालतों की स्थापना-चार जिलों की अदालतों के अतिरिक्त निचली अदालतों की भी स्थापना की गई, जिनके अधिकारी मुंसिफ होते थे। मुंसिफ अदालत को 50 रुपए तक के मुकदमे सुनने का अधिकार था। (ङ) दौरा अदालतों का पुनर्गठन- दौरा करने वाली अदालतों का पुनर्गठन कराया गया तथा उनमें तीन न्यायाधीश नियुक्त किए गए, जो जिलाधीश के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनते थे। (च) दरोगाओं की नियुक्ति- देश की शान्ति एवं सुरक्षा के लिए प्रत्येक जिले में कई दरोगाओं की नियुक्ति की गई, जो मजिस्ट्रेट के अधीन होते थे। (iii) व्यापारिक सुधार- कार्नवालिस ने व्यापार के क्षेत्र में निम्नलिखित सुधार किए (क) कार्नवालिस ने कम्पनी की आय बढ़ाने के लिए व्यापार बोर्ड का पुनर्गठन किया। बोर्ड के सदस्यों की संख्या 12 से घटाकर 5 कर दी। (ख) प्रत्येक व्यापारी केन्द्र पर एक-एक रेजीडेण्ट की नियुक्ति की गई, जिसका मुख्य कार्य यह देखना था कि कम्पनी का व्यापार उचित ढंग से हो रहा है या नहीं। ठेकेदारों से माल खरीदने की व्यवस्था समाप्त कर दी गई तथा रेजीडेण्ट उत्पादकों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर माल खरीदने लगे। (ग) जुलाहों से माल खरीदने के सम्बन्ध में यह नियम बना दिया गया कि कम्पनी जितना माल खरीदना चाहेगी, उसका पूरा मूल्य पेशगी के तौर पर दिया जाएगा तथा जुलाहे उतना ही माल देने हेतु बाध्य होंगे, जितना रुपया उन्होंने पेशगी लिया है। (घ) भारतीय कारीगरों और उत्पादकों की सुरक्षा के लिए भी 1778 ई० में विभिन्न कानून बनाए गए। (iv) शासन-सम्बन्धी सुधार- कम्पनी में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए कार्नवालिस ने शासन-सम्बन्धी अनेक सुधार किए— (क) योग्यता के आधार पर नियुक्ति- कम्पनी के कर्मचारी धन कमाने में लगे रहते थे तथा कर्तव्य की उपेक्षा करते थे। इस समय बनारस के रेजीडेण्ट का प्रतिमास वेतन तत्कालीन सिक्के की दर के आधार पर 1,000 रुपए अथवा 1,350 रुपए वार्षिक होता था, जो कि इस पद के अनुरूप काफी अच्छा वेतन था, परन्तु फिर भी लॉर्ड कार्नवालिस के साक्ष्य के आधार पर वह परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से व्यक्तिगत व्यापार तथा भ्रष्टाचार द्वारा एक मोटी धनराशि 40,000 रुपए वार्षिक अपने वेतन के अतिरिक्त कमाता था। कार्नवालिस ने कलेक्टरों तथा जजों के भ्रष्ट होने पर खेद प्रकट किया और इन दोषों को दूर करने के लिए कम्पनी में सिफारिशों के स्थान पर योग्यता के आधार पर कर्मचारियों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। (ख) उच्च सरकारी पदों से भारतीय वंचित- कार्नवालिस को भारतीयों पर विश्वास नहीं था तथा उसने 500 पौण्ड वार्षिक से अधिक वेतन वाले पदों पर यूरोपियन्स को रखना आरम्भ किया। इस प्रकार उच्च पदों के द्वार भारतीयों के लिए बन्द कर दिए गए। (ग) वेतन में वृद्धि- रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए उसने कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी, जिससे वे लोग ईमानदारी से कार्य कर सकें। |
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| 18510. |
लॉर्ड डलहौजी के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। |
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Answer» लॉर्ड डलहौजी के चरित्र का मूल्यांकन निम्न बिन्दुओं के आधार पर किया जा सकता है (i) अंग्रेजी शासन का वफादार- लॉर्ड डलहौजी अपने मूल राष्ट्र ब्रिटेन के प्रति समर्पित था। उसके राष्ट्र-प्रेम ने लॉर्ड डलहौजी की अन्तर्राष्ट्रीयता अथवा मानवता की भावनाओं को संकुचित कर दिया। भारतीयों के प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त कटु, बर्बर एवं अमानुषिक था। उनकी भावनाओं अथवा भलाई पर उसने कभी भी कोई ध्यान नहीं किया। उसने जो भी सुधार किए, उनका उद्देश्य अंग्रेजों और उनकी सरकार का हित था। (ii) इच्छा-शक्ति का धनी- लॉर्ड डलहौजी में अद्भुत इच्छा-शक्ति थी। जिस बात को वह एक बार निश्चित कर लेता था, उससे कभी डिगता नहीं था तथा उसकी पूर्ति के प्रयास में वह निरन्तर संलग्न रहता था। उसे अपने देश एवं उसकी प्रतिष्ठा से अगाध प्रेम था तथा उसकी वृद्धि करने में उसने उचित-अनुचित का भी ध्यान नहीं रखा। उसके कार्यों से उसके देश की ख्याति बढ़ी। उसको आर्थिक एवं राजनीतिक लाभ प्राप्त हुए तथा उसका साम्राज्य विस्तार हुआ। (iii) परिश्रमी- लॉर्ड डलहौजी घोर परिश्रमी था तथा दिन-रात के अथक परिश्रम से उसने न केवल भारत में अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की वरन् अनेक राज्यों को अपनी कूटनीति से ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। उसमें क्रियात्मक प्रतिभा थी। गोद-निषेध नीति के समान उच्चकोटि की नीति को जन्म देने का श्रेय लॉर्ड डलहौजी को ही है। (iv) प्रतिभाशाली व्यक्ति- लॉर्ड डलहौजी अत्यन्त प्रतिभशाली, कर्तव्यपरायण एवं क्रियाशील व्यक्ति था। भारत में आकर शीघ्र ही वह यहाँ की परिस्थितियों से अवगत हो गया तथा भारत के छोटे-छोटे शक्तिहीन राज्यों को समाप्त करके भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को विशाल एवं संगठित बनाने का कार्य उसने आरम्भ कर दिया। (v) एकपक्षीय तर्क को आधार बनाने वाला शासक- लॉर्ड डलहौजी में तर्कशीलता की भावना अत्यन्त प्रबल थी तथा तर्क का आश्रय लेकर वह प्रत्येक कार्य करता था। देशी नरेशों के राज्यों का अपहरण भी उसने तर्क के आधार पर ही किया, यद्यपि उसका तर्क एकपक्षीय ही था। (vi) स्वेच्छाचारी- लॉर्ड डलहौली की सबसे बड़ी दुर्बलता थी कि वह योग्य व्यक्तियों के परामर्श को भी नहीं मानता था। इसलिए वह किसी का भी कृपापात्र न बन सका। उसके अधीन कर्मचारी उसके दुर्व्यवहार के कारण उससे भयभीत रहते थे और हृदय से उनका प्रेम उसे प्राप्त न था। यदि अपने सहयोगियों के साथ उसका व्यवहार अधिक सभ्यतापूर्ण होता तो उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति में और भी अधिक सफलता मिल सकती थी। (vii) आधुनिक भारत का निर्माता- लॉर्ड डलहौजी ने जो सुधार भारत में किए, उसके आधार पर उसे आधुनिक भारत का निर्माता कहा जा सकता है। उसके सुधार इतने क्रान्तिकारी थे कि भारतवासी उनसे भयभीत हो उठे और वे सोचने लगे कि इन सुधारों के द्वारा उनके धर्म में हस्तक्षेप किया जा रहा है। किन्तु कुछ समय पश्चात् भारतीयों को उन सुधारों की उपयोगिता का अहसास हो सका। (viii) महान् साम्राज्यवादी- लॉर्ड डलहौजी महान् साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल था तथा भारत में उसने सदैव इसी नीति का अनुसरण किया। उसके काल में उसकी यह नीति सर्वथा सफल रही किन्तु भारतीयों में उसकी नीति के कारण अंग्रेजों के प्रति अविश्वास एवं घृणा की भावनाएँ प्रबल हो गईं और उसके लौटते ही भारत में महान् क्रान्ति का विस्फोट हुआ। अंग्रेज विद्वानों ने लॉर्ड डलहौजी का मूल्यांकन करते हुए उसकी बहुत प्रशंसा की है। उसे भारत के उच्चतम कोटि के चार प्रमुख साम्राज्यवादी गवर्नर जनरलों में स्थान प्राप्त है। इसी प्रकार वी०ए० स्मिथ के अनुसार- “लॉर्ड डलहौजी एक महान् विजेता और कुशल निर्माणकर्ता ही नहीं था, बल्कि वह एक उच्चकोटि का सुधारक भी था। एक विजेता और साम्राज्य विस्तारक के रूप में लॉर्ड डलहौजी ने भारतीयों पर कुठाराघात किया, परन्तु एक सुधारक के रूप में उसका नाम आज भी बड़े गौरव के साथ लिया जाता है।” |
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| 18511. |
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए|(क) बेसिन की संधि(ख) गोरखा युद्ध(ग) रणजीत सिंह का शासन-प्रबन्ध(घ) प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध(ङ) द्वितीय ब्रह्मा युद्ध(च) नवीन चार्टर एक्ट |
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Answer» (क) बेसिन की संधि- पेशवा बाजीराव द्वितीय ने दिसम्बर 1802 ई० में बेसीन की सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसके द्वारा पेशवा, जो मराठों का नेता माना गया था, सहायक सन्धि को मानने को प्रस्तुत हो गया। पेशवा ने एक सहायक अंग्रेजी सेना रखने की स्वीकृति दे दी, जिसके व्यय के लिए 26 लाख रुपए वार्षिक आय का एक प्रदेश कम्पनी को दे दिया गया। सूरत पर से भी पेशवा ने अपना दावा त्याग दिया तथा अपनी बाह्य नीति के अनुसरण के लिए उसने अंग्रेजों का नियन्त्रण स्वीकार कर लिया। इसके बदले में अंग्रेजों ने पेशवा की सहायता करने का वचन दिया। सर आर्थर वेलेजली के अनुसार- “यह सन्धि एक शून्य (पेशवा की शक्ति) से की गई थी। बेसीन की सन्धि का समाचार सुनकर मराठा सरदार अत्यन्त क्रुद्ध हुए। उनका मानना था कि पेशवा ने उनके परामर्श के बिना ही मराठों तथा देश की स्वतन्त्रता को अंग्रेजों के हाथ बेच दिया है। अत: उसका प्रतिकार करने के लिए उन्होंने युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दी। परन्तु इस संकटकाल में भी मराठे संगठित नहीं हो सके। होल्कर ने मराठा संघ में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया परन्तु सिन्धिया तथा भोंसले संगठित हो गए। गायकवाड़ इस युद्ध में तटस्थ रहा। (ख) गोरखा युद्ध- हेस्टिग्स को सर्वप्रथम नेपाल के गोरखों के साथ युद्ध करना पड़ा। हिमालय की तराई में फैले हुए नेपाल राज्य के निवासी ‘गोरखा’ कहलाते हैं। पूर्व में सिक्किम से पश्चिम में सतलुज तक इनका राज्य फैला हुआ था। गोरखा जाति अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थी। (i) गोरखा शक्ति का उदय- चौदहवीं शताब्दी में यहाँ राजपूतों का राज्य था, परन्तु धीरे-धीरे यह राज्य छिन्न-भिन्न होकर शक्तिहीन हो गया। 17 वीं शताब्दी में पृथ्वीनारायण नामक गोरखा सरदार के नेतृत्व में नेपाल को पुन: संगठित किया गया, तब से गोरखा शक्ति का निरन्तर विकास होने लगा। अंग्रेज भी नेपाल से अपने व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करना चाहते थे परन्तु इस उद्देश्य में उन्हें सफलता नहीं मिली। 1802 ई० में जब कम्पनी के हाथ में गोरखपुर का जिला आ गया तो कम्पनी के राज्य की सीमाएँ नेपाल राज्य को स्पर्श करने लगीं तथा तभी से दोनों में संघर्ष होने लगे क्योंकि दोनों राज्यों की कोई सीमा निश्चित नहीं थी। (ii) आक्रामक गतिविधियाँ- सर जॉर्ज बालों तथा लॉर्ड मिण्टो की अहस्तक्षेप की नीति से उत्साहित होकर गोरखों ने कम्पनी के सीमान्त प्रदेशों पर आक्रमण करना आरम्भ कर दिया तथा कुछ प्रदेश छीन भी लिए। शिवराज तथा बुटवल के प्रदेशों पर गोरखों का अधिकार होने के कारण युद्ध आवश्यक हो गया तथा 1814 ई० में नेपाल के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी गई। (iii) युद्ध की घटनाएँ- चार सेनाएँ भेजकर लॉर्ड हेस्टिग्स ने नेपाल को चारों ओर से घेर लिया परन्तु गोरखों की वीरता देखकर अंग्रेजों के छक्के छूट गए। बल से जब विजय प्राप्त नहीं हो सकी तब अंग्रेजों ने छलपूर्वक गोरखों को मिलाने का प्रयास किया। गोरखों के सेनापति को बहुत प्रयास करने पर भी अंग्रेज अपना मित्र बनाने में असमर्थ रहे। छापामार रणपद्धति के द्वारा गोरखों ने अंग्रेजों को कई स्थानों पर पराजित किया। पहाड़ी प्रदेशों में मार्गों की कठिनाई के कारण अंग्रेज आगे बढ़ने में असमर्थ रहे तथा उनकी सेनाएँ पीछे हटने लगीं। पी० ई० रॉबर्ट्स के अनुसार- “यद्यपि गोरखों की संख्या केवल 12,000 थी तथा अंग्रेजी सेना 34,000 के लगभग थी। फिर भी यह 1814-15 ई० का अभियान भयानक रूप से असफल होता लग रहा था। जावा की लड़ाई का नायक जनरल गिलेस्पी एक पहाड़ी किले पर मारा गया। जनरल मार्टिण्डेल ज्याटेक में रोक दिया गया। मुख्यतः पल्पा और राजधानी काठमाण्डू पर हुए हमले असफल कर दिए गए और केवल जनरल ऑक्टर लोनी ही सुदूर पश्चिम में अपनी स्थिति बनाए रख सका।” (iv) कूटनीति की सफलता और सिगौली की सन्धि- अन्तत: धन का लोभ देकर अंग्रेजों ने अनेक गोरखों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। फलस्वरूप विवश होकर नेपाल के राजा ने सन्धि करना स्वीकार किया। 1816 ई० में सिगौली की सन्धि हो गई, जिसके द्वारा कुमायूँ तथा गढ़वाल के समस्त प्रदेश अंग्रेजों को प्राप्त हुए तथा नेपाल के राजा ने काठमाण्डू में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया। नेपाल के राज्य को स्वतन्त्र रहने दिया गया परन्तु बाह्य देशों के निवासियों को वह अपने यहाँ नौकरी नहीं दे सकता था। (v) गोरखा युद्ध के लाभ- गोरखों के साथ मित्रता स्थापित करने से कम्पनी को अनेक लाभ हुए। सर्वप्रथम गोरखा जाति के समान शक्तिशाली एवं वीर जाति का सहयोग अंग्रेजों को प्राप्त हुआ था। अंग्रेजों ने गोरखों की पृथक् सेना का निर्माण किया, जिसने आवश्यकता पड़ने पर विशेष रूप से 1857 ई० की क्रान्ति में अंग्रेजों की महान् सेवा की। सिगौली सन्धि के द्वारा जो पर्वतीय प्रदेश अंग्रेजों को प्राप्त हुए, वहाँ अल्मोड़ा, शिमला, नैनीताल, रानीखेत आदि प्रमुख पहाड़ी नगरों का निर्माण कराया गया, जहाँ पर गर्मी से बचने के लिए अंग्रेजों ने निवास स्थान बनाए। (ग) महाराजा रणजीत सिंह का शासन-प्रबन्ध (i) राज्य एवं शासन का संगठन- महाराजा रणजीत सिंह ने अपने विशाल साम्राज्य के लिए एक सुव्यवस्थित शासन पद्धति का निर्माण किया तथा यह सिद्ध कर दिया कि वे केवल एक कूटनीतिक विजेता ही नहीं वरन् कुशल शासक भी हैं। महाराजा रणजीत सिंह से पूर्व सिक्खों के संघ को ‘खालसा’ कहते थे। इसमें अनेक मिस्लें होती थीं, जिनके मुखिया ‘सरदार’ कहलाते थे। सभी सरदार आन्तरिक क्षेत्र में स्वतन्त्र थे तथा खालसा का कार्य सामूहिक उन्नति करना था। खालसा के संचालन के लिए एक गुरुमठ होता था, जिसकी बैठक प्रतिवर्ष अमृतसर में होती थी। किन्तु रणजीत सिंह के राज्य से पूर्व सरदार बहुधा उद्दण्ड और अनियन्त्रित थे तथा खालसा के महत्व की प्रायः अवहेलना करते थे। (ii) निरंकुश राजतन्त्र- महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में सिक्खों का एकछत्र राजतन्त्रात्मक साम्राज्य निर्मित किया तथा स्वेच्छाचारी सरदारों पर जुर्माना करके तथा उनकी सम्पत्ति छीनकर उन्हें निर्बल बना दिया। उन्होंने उत्तराधिकार नियम भंग कर दिया तथा सरदार की मृत्यु के उपरान्त उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति हड़पने की नीति प्रचलित की। महाराजा ने एक विशाल सेना का संगठन करके सामन्तों को भयभीत किया। रणजीत सिंह स्वयं सामन्तों की सेना का निरीक्षण भी करते थे, जिस कारण सामन्त महाराजा से आतंकित रहते थे। महाराजा ने निरंकुश एवं स्वच्छ शासन पद्धति को अपनाया परन्तु प्रजाहित का उन्होंने सदैव ध्यान रखा। उनकी स्वेच्छाचारी नीति पर नियन्त्रण रखने के लिए भी अनेक संस्थाएँ थी। प्रथम अकालियों का संगठन तथा कुलीन वर्ग जिस पर उनकी सेना की वास्तविक शक्ति आधारित थी। उन्होंने हिन्दू एवं मुसलमानों को समान रूप से उच्च पद दिए तथा योग्यता का सदा सम्मान किया। (iii) शासन व्यवस्था- उनके उच्चकोटि के सुव्यवस्थित शासन की अंग्रेजों ने भी प्रशंसा की है। सुविधा के लिए उन्होंने अपने राज्य को चार प्रान्तों में विभाजित किया था। ये प्रान्त कश्मीर, लाहौर, मुल्तान तथा पेशावर थे। इनका शासन नाजिम के हाथ में होता था, जिसकी नियुक्ति स्वयं महाराजा करते थे। नाजिम के नीचे कदीर होते थे। मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो उनकी सहायता के लिए होते थे। इन सभी पदाधिकारियों को मासिक वेतन दिया जाता था। प्रान्तों पर केन्द्र का पूर्ण संरक्षण एवं नियन्त्रण था।। (iv) राजस्व प्रबन्ध- रणजीत सिंह के साम्राज्य में भूमि कर या राजस्व व्यवस्था अविकसित तथा अवैज्ञानिक थी। जागीरदार ही सरकार और जनता के बीच की कड़ी होते थे। राज्य द्वारा लगान की कोई निश्चित दर निश्चित नहीं की गई थी। सामान्यतया लगान उत्पादन का 33% से 40% तक होता था, यह भूमि की उर्वरता के अनुसार लिया जाता था। लगान वसूल करने के लिए सरकार की ओर से मुकद्दम तथा पटवारी होते थे। चुंगी के द्वारा भी राज्य को काफी आय होती थी। विलासिता एवं आवश्यकता की वस्तुओं पर चुंगी समान रूप से लगाई जाती थी, जिससे कर का भार सम्पूर्ण जनता समान रूप से वहन करे।। (v) सैन्य प्रबन्ध- महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिक शक्ति पर आधारित राज्य होने के कारण एक विशाल सेना का संगठन किया। रैपल ग्रिफिन के अनुसार, “महाराजा एक बहादुर सिपाही थे-दृढ़, अल्पव्ययी, चुस्त, साहसी तथा धैर्यशील।” उनसे पहले अश्वारोही सेना का विशेष महत्व था परन्तु महाराजा ने तोपखाना तथा पैदल सेना में अत्यधिक वृद्धि की। सैन्य शिक्षण के लिए उन्होंने शिक्षित यूरोपियनों की नियुक्ति की। परिणामस्वरूप रणजीत सिंह की सेना इतनी शक्तिशाली हो गई कि अंग्रेज भी उनसे भयभीत रहते थे। उनकी सेना में लगभग 40000 अश्वारोही तथा 40,000 पैदल तथा तोपखाना था। सैनिकों को नकद वेतन मिलता था। उनकी एक विशेष सेना फौज-ए-खास कहलाती थी। इसके संगठन का भार फ्रांसीसी सेनापति वेण्टुरा तथा एलॉर्ड के ऊपर था। उन्होंने ही इस सेना का संगठन फ्रांसीसी प्रणाली के आधार पर किया। महाराजा रणजीत सिंह ने मराठों की छापामार रण-पद्धति का परित्याग कर दिया तथा सामन्ती संगठन के आधार पर राज्य की सेना की व्यवस्था की। इस प्रकार उनकी रण-कुशल सेना अत्यन्त शक्तिशाली बन गई तथा उसी के बल पर इतना विस्तृत साम्राज्य निर्मित करने में वे सफल रहे। इसी आधार पर महाराजा रणजीतसिंह को एक कुशल प्रशासक, साहसी, योग्य तथा कार्यकुशल प्रबन्धक माना गया है। (vi) न्याय-व्यवस्था- रणजीत सिंह ने प्राचीन न्याय-पद्धति को ही अपनाया था। उनके राज्य में लिखित कानून तथा दण्ड-व्यवस्था का सर्वथा अभाव था। अधिकांशतः ग्रामीण जनता स्वयं ही अपने झगड़ों का निर्णय कर लेती थी। कस्बों में कारदार न्याय विभाग के कर्मचारी होते थे तथा नगरों में नाजिम न्याय का कार्य करते थे। केन्द्र में सर्वोच्च न्यायालय ‘अदालत-उल आला’ होती थी। जिसका प्रधान पद महाराजा स्वयं ग्रहण करते थे। अपराधियों को अधिकतर जुर्माने का दण्ड मिलता था। प्राणदण्ड बहुत कम दिया जाता था। कारागार के दण्ड की कोई व्यवस्था नहीं थी। (घ) प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध- प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध होने के निम्नलिखित कारण थे ⦁ रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सेना और शासन में जो अनुशासनहीनता और अव्यवस्था फैल गई थी, उसका लाभ उठाकर अंग्रेज कम्पनी ने राजनीतिक व सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पंजाब को अपने साम्राज्य में मिलाने का निश्चय किया। लाहौर की सन्धि-1 मार्च, 1846 ई० में दोनों पक्षों के बीच सन्धि हुई, जिसकी शर्ते निम्नलिखित थीं ⦁ दिलीप सिंह को पंजाब का राजा और उसकी माता झिन्दन को उसकी संरक्षिका बना रहने दिया गया। अंग्रेजों ने यह आश्वासन दिया कि वे सिक्ख राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन दिलीप सिंह की रक्षा के लिए लाहौर में एक ब्रिटिश सेना रखने की शर्त स्वीकार कर ली गई। लाहौर की सन्धि अस्थायी सिद्ध हुई। हेनरी लारेंस ने राजमाता झिन्दन और लाल सिंह पर कश्मीर में विद्रोह कराने का आरोप लगाकर पदच्युत कर दिया और सिक्खों से 16 दिसम्बर, 1846 ई० को भैरोवाल की सन्धि की। इस सन्धि के अनुसार पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए अंग्रेजों के समर्थक आठ सिक्ख सरदारों की एक संरक्षण समिति बनाई गई और हेनरी लारेंस को इसका अध्यक्ष बनाया गया। एक अंग्रेजी सेना लाहौर में रखी गई, जिसके व्यय के लिए 22 लाख रुपए वार्षिक दरबार द्वारा देना निश्चित कर दिया गया। लाल सिंह को बन्दी बनाकर देहरादून भेज दिया गया तथा झिन्दन को डेढ़ लाख रुपया वार्षिक पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया। इस प्रकार अंग्रेजों ने पंजाब में अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लिया। (ङ) द्वितीय ब्रह्मा युद्ध- सामरिक दृष्टि से बर्मा की स्थिति महत्वपूर्ण होने के कारण डलहौजी इसे जीतने के लिए लालायित था। 1852 ई० में ब्रह्मा के साथ अंग्रेजों का द्वितीय युद्ध आरम्भ हो गया। अंग्रेजी सेना का नेतृत्व जनरल गॉडविन और ऑस्टिन ने किया। इस युद्ध के निम्नलिखित कारण थे (i) अंग्रेजों का दुर्व्यवहार- ब्रह्मा के निवासी प्रथम युद्ध की पराजय से असन्तुष्ट थे तथा अंग्रेज रेजीडेण्ट का व्यवहार उनके लिए असह्य था। याण्डबू की सन्धि के फलस्वरूप रंगून में बहुत-से अंग्रेज व्यापारी बस गए थे तथा व्यापार में अत्यधिक लाभ होने पर भी वे लोग प्राय: चुंगी देने में आनाकानी करते थे। (ii) ब्रह्मा के उत्तराधिकारी का असन्तोष- ब्रह्मा के राजा का उत्तराधिकारी याण्डबू की सन्धि को स्वीकार करने को तत्पर नहीं था तथा रेजीडेण्ट के स्थान पर अंग्रेजों का राजदूत रखने को सहमत था। अंग्रेज व्यापारियों की मनमानी से भी वह अत्यन्त क्रुद्ध था। इसी समय कुछ अंग्रेज व्यापारियों ने ब्रह्मावासियों की हत्या कर डाली। अतः उन पर अभियोग चलाया गया। यद्यपि न्यायालय ने उनके साथ अत्यन्त उदारतापूर्ण व्यवहार किया और उनको साधारण जुर्माने का दण्ड देकर ही मुक्त कर दिया। (iii) लॉर्ड डलहौजी की नीति- अंग्रेज व्यापारियों ने लॉर्ड डलहौजी से ब्रह्मा की सरकार की शिकायत की। इस पर लॉर्ड डलहौजी ने एकदम यह घोषणा कर दी कि ब्रह्मा की सरकार ने याण्डबू की सन्धि भंग की है। अत: अंग्रेज व्यापारियों की क्षतिपूर्ति के लिए वह एक बड़ी धनराशि अदा करे। लॉर्ड डलहौजी का यह व्यवहार एकदम स्वेच्छाचारी था। इस पर भी ब्रह्मा की सरकार ने युद्ध रोकने के लिए 9,000 रुपए कम्पनी को दिए तथा अंग्रेजों की माँग पर रंगून के गवर्नर को भी पदच्युत कर दिया। परन्तु लॉर्ड डलहौजी तो युद्ध के लिए तैयार बैठा था। अतः उसने सेनाएँ भेजकर ब्रह्मा के विरुद्ध युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दीं। युद्ध की घटनाएँ- रंगून में रह रहे अंग्रेजों की सुरक्षा के बहाने लैम्बर्ट ने रंगून को घेर लिया तथा ब्रह्मा के राजा के जहाज को पकड़ लिया। अपनी सुरक्षा के लिए बर्मियों को गोली चलाने के लिए विवश होना पड़ा। इस क्षतिपूर्ति के लिए ब्रह्मा की सरकार से दस लाख रुपया हर्जाना माँगा गया तथा निश्चित अवधि तक यह रकम न पहुंचने पर लॉर्ड डलहौजी ने युद्ध की घोषणा कर दी। युद्ध के परिणाम- दक्षिण ब्रह्मा ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। बंगाल की खाड़ी का पूर्वी तट पूर्णतया अंग्रेजों के प्रभुत्व में आ गया तथा शेष ब्रह्मा का समुद्री मार्गों से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया गया। इस प्रान्त में अंग्रेजों को आर्थिक लाभ भी हुआ तथा उनका व्यापार भी ब्रह्मा के साथ तेजी से बढ़ने लगा। (च) नवीन चार्टर एक्ट- 1853 ई० में 20 वर्ष पूरे हो जाने पर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने पुन: एक नवीन चार्टर कम्पनी के लिए पारित किया। नवीन चार्टर के द्वारा निम्नलिखित संशोधन किए गए। (i) शासनावधि में वृद्धि- इस बार 20 वर्ष की अवधि हटाकर यह नियम बनाया गया कि कम्पनी को भारत का शासन तब तक चलाने का अधिकार है, जब तक पार्लियामेण्ट यह अधिकार अपने हाथ में न ले ले। इससे कम्पनी पर पार्लियामेण्ट का प्रभुत्व बढ़ गया। (ii) प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था- कम्पनी डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई। इनमें से 6 डायरेक्टर्स सम्राट द्वारा मनोनीत होते थे। कम्पनी की उच्च नौकरियों की नियुक्ति का अधिकार डायरेक्टरों से छीन लिया गया। अब उसके लिए प्रतियोगिता परीक्षा उत्तीर्ण करना अनिवार्य कर दिया गया। (iii) अध्यक्ष को मन्त्रिमण्डल की सदस्यता- बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का सदस्य बना दिया गया तथा उसके अधिकारों में वृद्धि की गई। (iv) व्यवस्थापिका सभा- एक व्यवस्थापिका सभा का निर्माण किया गया। गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 12 कर दी गई और अब इसमें गवर्नर जनरल की कौंसिल के 4 सदस्य, प्रत्येक प्रान्त के प्रतिनिधि, सेनापति तथा सर्वोच्च न्यायालय के 2 न्यायाधीश होते थे। (v) बंगाल का पृथक्करण- बंगाल का शासन गवर्नर जनरल से लेकर एक पृथक् लेफ्टिनेण्ट गवर्नर को सौंपा गया। इस प्रकार डलहौजी आधुनिकीकरण में विश्वास रखा था। कूटनीति और सैनिक प्रतिभा के सहारे उसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अधिकतम विस्तार किया। सर रिचर्ड टेम्पल के अनुसार, “भारत के प्रशासन के लिए इंग्लैण्ड द्वारा भेजे गए प्रतिभा सम्पन्न लोगों में उसके आगे कोई निकल ही नहीं पाया, उसके समकक्ष भी शायद ही कोई ठहरता हो।’ |
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| 18512. |
लोग जलियाँवाला बाग में सभा क्यों कर रहे थे? |
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Answer» अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून का विरोध करने के लिए लोग जलियाँवाला बाग में सभा कर रहे थे। |
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| 18513. |
लॉर्ड डलहौजी द्वारा किए गए सुधारों का वर्णन कीजिए।यालॉर्ड डलहौजी के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। |
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Answer» लॉर्ड डलहौजी ने निम्नलिखित सुधार किए थे (i) प्रशासनिक सुधार- डलहौजी ने आठ वर्ष के अपने कार्यकाल में बहुत तेजी के साथ शासन सुधार के कार्य किए। 1854 ई० में बंगाल प्रान्त के शासन का भार लेफ्टिनेण्ट गवर्नर को सौंप दिया गया। अत: डलहौजी के केन्द्रीय शासन को अलगअलग विभागों के आधार पर सुसंगठित किया तथा वह प्रत्येक विभाग का स्वयं निरीक्षण किया करता था। उसने अपनी अद्भुत कार्यक्षमता द्वारा कम्पनी के प्रशासन को स्फूर्ति प्रदान की और इसे पहले की अपेक्षा अधिक कुशल बनाया। प्रत्येक प्रान्त में कमिश्नरी तथा चीफ कमिश्नरों की नियुक्ति की गई और इन्हें गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौंसिल के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। प्रान्तीय सरकारों का काम मुख्यतः शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित करना, कर वसूलना तथा फौजदारी के मकदमों का निर्णय करना था। इस शासन पद्धति का उद्देश्य जनसाधारण की स्थिति में सधार करना नहीं था। लॉर्ड डलहौजी के समय जो लोकहितकारी कार्य किए गए थे, वे प्रान्तीय सरकारों द्वारा नहीं बल्कि वे केन्द्रीय सरकार द्वारा सम्पन्न हुए। प्रान्तीय सरकारों का संगठन इस तरीके से किया गया था कि इसमें कम-से-कम अफसरों से ही काम चल जाता था। जिले के प्रमुख अधिकारी को प्रशासक, राजस्व, न्याय तथा पुलिस इन सभी विभागों से सम्बन्धित कर्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता था। कमिश्नरों और जिलाधीशों के सामने कोई निश्चित कानून नहीं थे। वह साधारणतया गवर्नर जनरल के आदेश के अनुसार कार्य करता था। लॉर्ड डलहौजी के सुधारों का मुख्य उद्देश्य केन्द्र की सत्ता को सुदृढ़ बनाना था। (ii) रेल, डाक और तार विभाग की स्थापना- लॉर्ड डलहौजी ने रेल, डाक और तार विभाग को अत्यन्त महत्व दिया। रेलवे व्यवस्था का प्रारम्भ करने का श्रेय लॉर्ड डलहौजी को ही प्राप्त है। उसने सर्वप्रथम यातायात के साधनों की सुविधा की ओर ध्यान दिया। उसने ग्राण्ड ट्रंक रोड़ का पुनर्निर्माण कराया तथा रेल एवं डाक तथा तार की व्यवस्था की। 1853 ई० में बम्बई से थाणे तक पहली रेलवे लाइन बनी और फिर 1856 ई० में मद्रास असाकुलम तक अन्य रेलवे लाइनें बिछाई गईं। लॉर्ड डलहौजी ने सम्पूर्ण भारत के लिए रेलवे लाइन की योजना बनाई थी, जो कि बाद में सम्पन्न हो सकी। यह ध्यान रखना चाहिए कि रेलवे लाइनों के निर्माण में लॉर्ड डलहौजी का उद्देश्य ब्रिटिश उद्योग-धन्धों की उन्नति करना था, भारत की आर्थिक प्रगति की उसे चिन्ता नहीं थी। तार लाइन का निर्माण भी सर्वप्रथम लॉर्ड डलहौजी के काल में हुआ। 1853 ई० से 1856 ई० के समय में विस्तृत क्षेत्र में तार की लाइनें बिछा दी गईं, जिससे कलकत्ता और पेशावर तथा बम्बई और मद्रास के मध्य निकट सम्पर्क हो सका। डलहौजी ने डाक-व्यवस्था की जाँच के लिए 1850 ई० में एक कमीशन नियुक्त किया और उसकी रिपोर्ट के आधार पर इसको पूर्णरूप से पुनर्गठित किया। इस विभाग के सुचारु रूप से संचालन हेतु डायरेक्टर जनरल नियुक्त किया गया। डाक-व्यवस्था को सुधारने का श्रेय भी डलहौजी को ही दिया जाता है। उसने ‘पेनी पोस्टेज प्रथा’ भारत में लागू की, जिसके अनुसार दो पैसे के टिकट के द्वारा भारत के किसी भी भाग में एक लिफाफे द्वारा समाचार भेजा जा सकता था, जिसका वजन 1/2 तोला तक हो सकता था। एक पैसे में एक पोस्टकार्ड देश के किसी भी कोने में भेजा जा सकता था। (iii) शिक्षा सम्बन्धी सुधार- लॉर्ड डलहौजी के समय में शिक्षा में सुधार करने के लिए सर चार्ल्स वुड के नेतृत्व में एक कमीशन नियुक्त किया गया, जिसकी रिपोर्ट 1854 ई० में प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक सुधार किए गए। सर्वप्रथम तीनों प्रेसीडेंसियों में एक-एक विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, जिसका कार्य परीक्षा लेना था। इण्टरमीडिएट तथा डिग्री कक्षाओं के लिए कॉलेजों की व्यवस्था की गई तथा प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के लिए अनेक स्कूल खोले गए। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम प्रान्तीय भाषा रखा गया। शिक्षा के निरीक्षण के लिए प्रत्येक प्रान्त में एक डायरेक्टर जनरल की नियुक्ति की गई। लॉर्ड डलहौजी के काल में स्त्री शिक्षा के लिए भी कुछ संस्थाएँ गठित की गईं। (iv) सेना में सुधार- लॉर्ड डलहौजी ने सैनिक क्षेत्र में भी अनेक सुधार किए। लॉर्ड डलहौजी से पूर्व सेना का प्रमुख केन्द्र बंगाल था किन्तु पंजाब के ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित हो जाने के कारण उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की रक्षा करना भी अंग्रेजों के लिए अनिवार्य हो गया। फलत: पश्चिम में भी सेना का केन्द्र बनाया गया तथा मेरठ में अंग्रेजों के तोपखाने की स्थापना की गई। शिमला में सेना की छावनियाँ बनाई गईं, जहाँ पर गवर्नर जनरल अपनी कौंसिल के साथ रहता था, जिससे सेना से उसका निकट सम्पर्क रह सके। लॉर्ड डलहौजी को भारतीयों पर बिलकुल विश्वास नहीं था। अतः उसने गोरखों की एक पृथक् बटालियन बनाई तथा भारतीय सैनिकों को विभिन्न भागों में नियुक्त कर दिया। लॉर्ड डलहौजी ने तो ब्रिटिश सरकार से यह अनुरोध भी किया था कि भारत में अंग्रेज सैनिकों की संख्या बढ़ा दी जाए, जिससे भारतीय सेना द्वारा विद्रोह की कोई आशंका न रहे। (v) सार्वजनिक कार्य- लार्ड डलहौजी से पूर्व सार्वजनिक कार्य सेना के एक बोर्ड के द्वारा होता था, जिससे नागरिक विभाग के कार्यों की उपेक्षा होती थी किन्तु इस व्यवस्था को समाप्त करके डलहौजी ने सार्वजनिक निर्माण कार्य के लिए एक स्वतन्त्र विभाग निर्मित किया जिसका प्रधान अधिकारी चीफ इंजीनियर होता था। उसकी सहायता के लिए अनेक पदाधिकारी होते थे। लॉर्ड डलहौजी से पहले सरकारी राजस्व का 10% भी सार्वजनिक निर्माण के कार्य में व्यय नहीं किया जाता था किन्तु उसने 2 करोड़ से लेकर 3 करोड़ रुपए तक इस कार्य के लिए व्यय किए, जबकि उसके समय में सरकारी आमदनी 20 करोड़ रुपए थी। सार्वजनिक निर्माण विभाग ने पुनः सड़कें, नहरें तथा पुल बनवाने का उत्तरदायित्व ग्रहण किया। देश की भौतिक समृद्धि तथा राज्य की आय में वृद्धि हेतु नहरों और सड़कों की कितनी अधिक उपयोगिता है, इसे डलहौजी भली-भाँति समझता था। अत: सिंचाई की सबसे महत्वपूर्ण योजना, जिसका प्रारम्भ 1851 ई० में किया गया था और जो 1859 ई० में पूरी हुई, ऊपरी दोआब की नहर थी। जो रावी, सतलज और व्यास नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश में खुदवाई गई। अपर गंगा नहर 1854 ई० में बनकर तैयार हुई। इसके अतिरिक्त मद्रास क्षेत्र में भी सिंचाई के लिए नहरों की योजना कार्यान्वित हुई। लॉर्ड डलहौजी ने ढाका से अराकान तथा कलकत्ता से लेकर शिमला तक सड़कें बनवाई थीं। भारत की ऐतिहासिक सड़क ग्राण्ड ट्रंक रोड के पुनर्निर्माण का कार्य डलहौजी के कार्यकाल में ही सम्पन्न हुआ। यह स्मरण रखना चाहिए कि लॉर्ड डलहौजी ने सड़कों और पुलों का निर्माण केरल और पंजाब प्रान्त तक ही सीमित न रखा बल्कि सम्पूर्ण देश में नहरों, सड़कों एवं पुलों का निर्माण किया गया। (vi) व्यावसायिक सुधार- लॉर्ड डलहौजी ने स्वतन्त्र व्यापार नीति को अपनाया तथा भारत का व्यापार सबके लिए खोल दिया गया। व्यापार के क्षेत्र में अंग्रेजों का लाभ ही कम्पनी का उद्देश्य था। उसने प्रकाश स्तम्भों की मरम्मत कराई तथा बन्दरगाहों को विस्तृत एवं विशाल करवाया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के समुद्रतट का सम्पूर्ण व्यापार अंग्रेज पूँजीपतियों के हाथ में चला गया। भारत के व्यवसाय नष्ट हो गए तथा अत्यन्त तीव्र गति से भारत में विदेशों का माल आने लगा, जिससे भारत का आर्थिक शोषण हुआ और भारतीयों की आर्थिक दशा निरन्तर दयनीय होती गई। या लॉर्ड डलहौजी के चरित्र का मूल्यांकन के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-6 के उत्तर का अवलोकन कीजिए। |
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| 18514. |
“वेदान्त कॉलेज” की स्थापना किसने की ? इसमें किन-किन विषयों की शिक्षा दी जाती थी? |
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Answer» ‘वेदान्त कालेज’ की स्थापना सन् 1825 ई० में हुई। इसमें भारतीय विद्या के अलावा सामाजिक और भौतिक विज्ञान की शिक्षा भी दी जाती थी। |
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| 18515. |
“आत्मीय सभा” में किस विचार धारा के लोग थे ? इसका प्रमुख उद्देश्य क्या था? |
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Answer» ‘आत्मीय सभा’ में उदारवादी दृष्टिकोण के लोग थे। इसका मुख्य उद्देश्य ‘एक ईश्वर’ का प्रचार करना था। |
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| 18516. |
थियोसोफिकल सोसायटी के विषय से आप क्या समझते हैं? |
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Answer» थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1857 ई० में अमेरिकी कर्नल हेनरी स्टील अल्काट तथा एक रूसी महिला मैडम हेलेन पेट्रोवना ब्लेवस्ट्स्की द्वारा, न्यूयार्क में की गई। भारत में इस संस्था का मुख्यालय 1893 ई० में मद्रास के समीप अड्यार नामक स्थान पर खोला गया। भारत में इस संस्था की अध्यक्ष एक आयरिश महिला श्रीमति एनी बेसेण्ट बनी। थियोसोफिकल सोसायटी का गठन सभी प्राचीन धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन इस संस्था ने प्राचीन हिन्दू धर्म को अत्यधिक गूढ़ व आध्यात्मिक माना। थियोसोफिकल सोसायटी के प्रचारकों ने हिन्दू धर्म की बहुत प्रशंसा की तथा इस धर्म के विचारों का प्रचार किया। इस संस्था ने हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का भी प्रयत्न किया। इस संस्था का विश्वास सभी धर्मों के मूल सिद्धान्तों में था। |
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| 18517. |
पिट्स इण्डिया ऐक्ट,1784 ई० की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। |
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Answer» पिट्स इण्डिया ऐक्ट, 1784 ई० की दो विशेषताएँ निम्नवत् हैं ⦁ इस ऐक्ट द्वारा कमिश्नरों की एक समिति बनाई गई, जिसका भारत के शासन सेना तथा लगान सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण होता था। इस समिति के सदस्यों को इंग्लैण्ड का सम्राट मनोनित करता था। ⦁ संचालक मंडल को नियन्त्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया। भारत में गोपनीय आज्ञा भेजने के लिए तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति का गठन हुआ। |
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| 18518. |
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दो दोष लिखिए। |
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Answer» रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दो दोष निम्नवत् हैं ⦁ यद्यपि कम्पनी पर इंग्लैण्ड की सरकार ने अपना अधिकार कर लिया, तदापि व्यावहारिक रूप से उससे कोई लाभ नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल को अपने ही कार्यों से फुरसत नहीं थी। ⦁ रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा कम्पनी के कर्मचारियो के व्यक्तिगत व्यापार करने, उपहार अथवा भेंट लेने पर तो प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु उनकी आय में वृद्धि के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अत: प्रशासन में रिश्वत व भ्रष्टचार का समावेश हो गया था। |
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| 18519. |
1833 ई० के चार्टर ऐक्ट की दो विशेषताएँ लिखिए। |
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Answer» 1833 ई० के चार्टर ऐक्ट की दो विशेषताएँ निम्न्वत् हैं ⦁ इस ऐक्ट द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रशासन का केन्द्रीकरण किया गया। प्रादेशिक सरकारों की बहुत-सी शक्तियाँ छीनकर गवर्नर की कौंसिल को प्रदान की गई। ⦁ इस ऐक्ट द्वारा कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया और उसे सुविधापूर्वक अपना हिसाब किताब चुकाने तथा माल आदि समेटने का आदेश दिया गया। |
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| 18520. |
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की दो प्रमुख धाराओं का उल्लेख कीजिए। |
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Answer» रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की दो प्रमुख धाराएँ निम्नवत् हैं ⦁ कम्पनी के डायरेक्टरों का कार्यकाल एक वर्ष की जगह 4 वर्ष कर दिया गया तथा उनकी संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से एक-चौथाई सदस्यों की प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करने की व्यवस्था की गई। ⦁ इस ऐक्ट द्वारा यह निश्चित किया गया कि कम्पनी का कोई भी कर्मचारी भविष्य में लाइसेंस लिए बिना व्यापार नहीं करेगा और वह किसी से भेंट अथवा उपहार भी नहीं लेगा। |
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| 18521. |
स्वामी दयानन्द की प्रमुख शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए। |
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Answer» स्वामी दयानन्द की प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं ⦁ सब सत्य, विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका मूल परमेश्वर है। |
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| 18522. |
1833 ई० के चार्टर ऐक्ट का वैधानिक महत्व बताइए। |
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Answer» सन् 1833 ई० का चार्टर ऐक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के प्रशासन में बड़े एवं महत्वपूर्ण परिवर्तन किए और भारतीयों के प्रति उदार नीति अपनाने की भी घोषणा की। इसके अतिरिक्त, इस ऐक्ट ने कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णता समाप्त कर दिया। |
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| 18523. |
रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए तथा उसके गुण-दोष की विवेचना कीजिए। |
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Answer» रेग्यूलटिंग ऐक्ट की विशेषताएँ- इस ऐक्ट की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं ⦁ कम्पनी के डायरेक्टरों का कार्यकाल एक वर्ष की जगह 4 वर्ष कर दिया गया तथा उनकी संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से एक-चौथाई सदस्य प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करेंगे। ⦁ कम्पनी के संचालकों के चुनाव में वही व्यक्ति मत देने का अधिकारी होगा, जिसके पास कम्पनी के 1,000 पौण्ड के शेयर होंगे। ⦁ बंगाल के गवर्नर को अब गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा उसका कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित कर दिया। बम्बई (मुम्बई) तथा मद्रास (चेन्नई) के गवर्नर उसके अधीन कर दिए गए। ⦁ शासन कार्य में गवर्नर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कौंसिल बनाई गई। कौंसिल के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया तथा यह भी कहा गया कि कौंसिल के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे। ⦁ गवर्नर जनरल का वेतन 25,000 पौण्ड प्रतिवर्ष निश्चित किया गया। ⦁ ऐक्ट में यह भी निश्चित किया गया कि कम्पनी का कोई भी कर्मचारी भविष्य में लाइसेंस लिए बिना निजी व्यापार नहीं करेगा और वह किसी से भेंट अथवा उपहार भी नहीं लेगा। ⦁ कलकत्ता (कोलकाता) में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश व तीन अन्य न्यायाधीश होंगे। इनके फैसलों के विरुद्ध केवल इंग्लैण्ड स्थित प्रिवी कौंसिल में ही अपील की जा सकती थी। ⦁ कम्पनी के संचालकों व भारत में स्थित कम्पनी के बीच में जो भी पत्र-व्यवहार होगा, उसकी एक प्रति इंग्लैण्ड की सरकार के पास भेजी जाएगी। (i) यद्यपि कम्पनी पर इंग्लैण्ड की सरकार ने अपना अधिकार कर लिया, तथापि व्यावहारिक रूप से उससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल को अपने ही कार्यों से फुरसत नहीं मिलती थी। (ii) यद्यपि इस अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल ब्रिटिश सरकार का सर्वोच्च अधिकारी था, परन्तु वह कौंसिल के बहुमत की कृपा पर निर्भर था। इस कानून के अनुसार गवर्नर जनरल कार्यकारिणी के निर्णयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य था। उसको यह अधिकार नहीं दिया गया था कि वह अपनी कार्यकारिणी’ (कौंसिल) के बहुमत को अस्वीकार कर सके। ऐसी स्थिति में वह अनेक बार उपयुक्त कार्यों को करना चाहकर भी नहीं कर पाता था। चार सदस्यों में से तीन सदस्य समकालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के प्रत्येक कार्य में बाधा डालते थे। इन सदस्यों ने उस पर अनेक झूठे आरोप भी लगाए थे, जिसके कारण वारेन हेस्टिंग्स को कई बार त्याग-पत्र तक देने के विषय में सोचना पड़ा। अतः इस कानून का मुख्य दोष यही था कि इसमें गवर्नर जनरल के अधिकार सीमित रखे गए थे, जबकि वह शासन-प्रबन्ध में सर्वोच्च अधिकारी था। (iii) मद्रास और बम्बई प्रान्तों के केवल विदेशी मामले ही गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी के अधीन रखे गए थे, आन्तरिक मामलों में वहाँ की स्थानीय सरकारें अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतन्त्र थीं। यह एक व्यावहारिक दोष था। (iv) सर्वोच्च न्यायालय से सम्बन्धित अनेक तथ्य अस्पष्ट थे। कानून में यह विस्तृत रूप से वर्णित नहीं किया गया था कि न्यायालय किस प्रकार के मुकदमों का निर्णय करेगा। न्याय करने में न्यायालय ब्रिटिश कानूनों का पालन करेगा या भारतीय कानूनों का, यह भी स्पष्ट नहीं किया गया था। इसके अतिरिक्त न्यायालय और गवर्नर जनरल तथा कार्यकारिणी में समन्वय स्थापित नहीं किया गया था। अधिकार क्षेत्र के मामले में इनमें प्राय: संघर्ष हो जाता था। (v) रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों के व्यक्तिगत व्यापार करने, उपहार एवं भेंट लेने पर तो प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु उनकी आय में वृद्धि के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अतएव प्रशासन में रिश्वत व भ्रष्टचार का समावेश हो गया था। (vi) इस अधिनियम में कम्पनी के संचालकों के चुनाव में मतदाता बनने की योग्यता का मापदण्ड 500 पौण्ड से 1,000 पौण्ड कर दिए जाने से कम्पनी पर कुछ धनी व्यक्तियों का ही आधिपत्य हो गया। रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ की त्रुटियों को भारतीय संवैधानिक सुधारों पर प्रतिवेदन में निम्न प्रकार वर्णित किया गया हैइसने (1773 ई० के ऐक्ट ने) ऐसा गवर्नर जनरल बनाया, जो अपनी कौंसिल के समक्ष अशक्त था। इसने ऐसी ‘कार्यकारिणी’ बनाई जो सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अशक्त थी और ऐसा न्यायालय बनाया, जिस पर देश की शान्ति तथा हित का कोई स्पष्ट उत्तरदायित्व नहीं था।” एडमण्ड बर्क ने ‘रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ को एक अधूरा कदम बताया है, जिसने कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को अस्पष्ट ही छोड़ दिया। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि यह कानून अनेक दोषों से परिपूर्ण था, तथापि इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में ‘रेग्युलेटिंग ऐक्ट’ का महत्वपूर्ण स्थान है। ऐक्ट के गुण- यद्यपि रेग्यूलेटिंग ऐक्ट में अनेक दोष विद्यमान थे, तथापि यह सर्वथा गुणरहित भी नहीं था। यह पहला अवसर था जब कम्पनी पर संसद के नियन्त्रण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इस ऐक्ट के आधार पर ही धीरे-धीरे कम्पनी पर कठोर नियन्त्रण किया गया और इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप 1858 ई० तक तो कम्पनी की सत्ता ही समाप्त कर दी गई। अतः इस अधिनियम के परिणाम बड़े ही दूरगामी व स्थायी सिद्ध हुए। कम्पनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, निजी व्यापार तथा उपहार लेने पर लगाया गया प्रतिबन्ध भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। यद्यपि इस ऐक्ट में गुण व दोष दोनों ही विद्यमान थे। इस ऐक्ट के बारे में सप्रे ने ठीक ही लिखा है, “यह अधिनियम संसद द्वारा कम्पनी के कार्यों में प्रथम हस्तक्षेप था, अतः उसकी नम्रतापूर्वक आलोचना की जानी चाहिए।’ |
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| 18524. |
स्वामी दयानन्द की प्रमुख कृतियों के नाम लिखिए। |
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Answer» स्वामी दयानन्द की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं| ⦁ सत्यार्थ प्रकाश |
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| 18525. |
राजा राममोहन राय ने तिब्बत में किसका अधययन किया? |
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Answer» राजा राममोहन राय ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। |
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| 18526. |
भारत में मुस्लिम समाज के लिए कौन-कौन से सुधारवादी आन्दोलन चलाए गए? |
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Answer» भारत में मुस्लिम समाज के लिए निम्नलिखित सुधारवादी आन्दोलन चलाए गए ⦁ अलीगढ़ आन्दोलन |
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| 18527. |
रामकृष्ण परमहंस कौन थे? |
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Answer» रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक गुरु थे। वे उन्नीसवीं शताब्दी के महान चिन्तक थे। उनका बचपन का नाम गदाधर चटर्जी था। |
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| 18528. |
स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन एवं कार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। |
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Answer» स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में 1824 ई० के हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। 21 वर्ष की अवस्था में मन की अशांति को दूर करने तथा ज्ञान की खोज में ग्रह-त्याग दिया। पाणिनी व्याकरण के विद्वान विरजानन्द से शिक्षा ग्रहण कर संस्कृत व्याकरण, दर्शन, धर्मशास्त्र और वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय लोग अनेक रुढ़ियों और आडम्बरों के कारण पतन की ओर उन्मुख हो रहे थे। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर, उनका उद्धार किया। उन्होंने हिन्दुओं को प्रेम, स्वतन्त्रता, सच्ची ईश्वरभक्ति एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव रखने की प्रेरणा दी। शिक्षा के क्षेत्र में दयानन्द सरस्वती का उल्लेखनीय योगदान रहा। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया। |
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| 18529. |
पिट्स इण्डिया ऐक्ट ने रेगयुलेटिंग ऐक्ट के दोषों को किस सीमा तक दूर किया? क्या इसे रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का पूरक कहना उचित है? |
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Answer» रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के दोषों को दूर करने के लिए फाक्स ने 1783 ई० में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के समक्ष एक इण्डिया बिल प्रस्तुत किया परन्तु यह बिल अस्वीकृत हो गया। अन्त में 1784 ई० में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विलियम पिट ने कुछ संशोधन के साथ इण्डिया बिल पारित किया। इसे ही पिट्स इण्डिया ऐक्ट कहा जाता है। इस ऐक्ट के द्वारा रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अनेक दोष दूर कर दिए गए। इस ऐक्ट में निम्नालिखित प्रावधान किए गए ⦁ सर्वप्रथम गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या घटाकर तीन कर दी गई, जिसमें एक सेनापति भी सम्मिलित होना निश्चित हुआ। ⦁ बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों को सन्धि, युद्ध तथा लगान के सम्बन्ध में पूर्णतया गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया। ⦁ गृह-सरकार में भी इस ऐक्ट द्वारा कुछ संशोधन किए गए। ⦁ कमिश्नरों की एक समिति बनाई गई, जिसका भारत के शासन, सेना तथा लगान सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण होता था। इस समिति के सदस्यों को इंग्लैण्ड का सम्राट मनोनीत करता था। ⦁ संचालक मण्डल को नियन्त्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया। भारत में गोपनीय आज्ञाएँ भेजने के लिए एक गुप्त समिति का गठन हुआ, जिसमें तीन सदस्य होते थे। पिट के इण्डिया ऐक्ट में भी कुछ दोष थे। इसके द्वारा द्वैध शासन प्रणाली का जन्म हुआ। संचालक मण्डल तथा नियन्त्रण बोर्ड दोनों के नियन्त्रण तथा अनुशासन में गवर्नर जनरल को कार्य करना पड़ता था। यह व्यवस्था 1886 ई० तक चलती रही। परन्तु इस ऐक्ट को रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का पूरक माना जा सकता है क्योंकि रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अनेक दोषों को इस ऐक्ट ने दूर कर दिया था। |
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| 18530. |
राजा राममोहन राय ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए कौन-सी संस्था का गठन किया? |
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Answer» राजा राममोहन राय ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए ‘ब्रह्म समाज’ नामक संस्था का गठन किया। |
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| 18531. |
19वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए। |
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Answer» 19 वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण की दो प्रमुख विशेषताएँ ⦁ 19 वीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण आन्दोलनों ने भारत में समाज, धर्म, साहित्य और राजनीतिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया। |
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| 18532. |
स्वामी विवेकानन्द व उनके योगदान पर टिप्पणी कीजिए। |
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Answer» स्वामी विवेकानन्द- स्वामी विवेकानन्द का वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उनका जन्म 12 जनवरी, 1863 ई० को कलकत्ता में एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही नरेन्द्रनाथ दत्त प्रत्येक बात को तर्क के आधार पर समझकर ही स्वीकार करते थे। छात्र जीवन में वे पश्चिमी विचार धारा के कट्टर थे। लेकिन भारतीय संस्कृति के अग्रदूत रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आने पर उनकी विचारधारा बदल गई। वे इस निर्णय पर पहुँचे कि सत्य या ईश्वर को जानने का सच्चा मार्ग, अनुरागपूर्ण साधना का मार्ग ही है। अपनी इस विचारधारा के कारण, वे रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य बन गए। स्वामी विवेकानन्द के योगदान- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए। |
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| 18533. |
स्वामी विवेकानन्द की प्रसिद्धि के क्या कारण थे? |
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Answer» शिकागों में सर्व – धर्म विश्व सम्मेलन में प्राप्त प्रतिष्ठा, रामकृष्ण मिशन की स्थापना और समाज सेवा स्वामी विवेकानन्द की प्रसिद्धि के कारण थे। |
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| 18534. |
भारत शासन अधिनियम, 1858 ई० पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। |
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Answer» भारत शासन अधिनियम, 1858 ई०- इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे (i) गृह सरकार (क) नियन्त्रण परिषद् तथा निदेशक मण्डल समाप्त कर दिए गए और उनका स्थान भारत सचिव ने ले लिया। (ii) भारत सरकार (क) भारत के शासन का उत्तरदायित्व ब्रिटिश क्राउन ने अपने ऊपर ले लिया है और इसकी घोषणा रानी के द्वारा भारतीय राजा-महाराजाओं के समक्ष कर दी जाएगी। अधिनियम का मूल्यांकन- इसमें सन्देह नहीं कि 1858 ई० का अधिनियम आधुनिक भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। वास्तव में 1858 के भारत-शासन अधिनियम ने भारतीय इतिहास में एक युग को समाप्त कर दिया और भारत में एक नए युग का आरम्भ हुआ। रेम्जे म्योर के अनुसार, “भारतीय साम्राज्य का क्राउन को जो हस्तान्तरण किया गया, उसमें ऊपरी दृष्टि से जितना परिवर्तन दिखाई देता था, उतना वास्तव में नहीं था, बल्कि उससे बहुत कम था। वस्तुतः क्राउन कम्पनी के हाथों में प्रादेशिक प्रभुत्व आने के समय से ही उसके मामलों पर अपने नियन्त्रण को निरन्तर कड़ा करता आया था। |
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| 18535. |
रानी ने रामचन्द्र देशमुख को क्या आदेश दिया? |
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Answer» रानी ने रामचन्द्र देशमुख को दामोदरराव को सुरक्षित दक्षिण पहुँचाने का आदेश दिया। |
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| 18536. |
निम्नलिखित पंक्तियों के भाव स्पष्ट कीजिए-रात-सा दिन हो गया, फिर रात आयी और काली। |
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Answer» धूल युक्त बादलों ने धरती पर इस प्रकार घेरा डाल दिया मानो दिन रात में बदल गया हो। और रात का अंधकार और बढ़ गया। |
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| 18537. |
निम्नलिखित शब्दों के विपरीतार्थक लिखिए-अन्तिम , सुरक्षित , सूर्यास्त , विलम्ब |
Answer»
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| 18538. |
अन्तिम समय में रानी की पराजय क्यों हुई? |
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Answer» रानी का घोड़ा अड़ा रहा और रानी नाला पार नहीं कर पाई। |
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| 18539. |
निम्नलिखित पंक्तियों के भाव स्पष्ट कीजिए-बोल, आशा के विहंगम किस जगह पर तू छिपा था। |
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Answer» आशारूपी पक्षी, तू अब तक कहाँ छिपा था जो आकाश पर चढ़कर गर्व से बार-बार सीना तानता है। |
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| 18540. |
अँग्रेज जनरल ने रानी से युद्ध के लिए क्या योजना बनाई थी? |
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Answer» अँग्रेज जनरल ने पैदल पल्टनें पूर्व और दक्षिण की बीहड़ में छिपा ली और हुजर सवारों से कई दिशाओं में आक्रमण की योजना बनाई। |
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| 18541. |
‘यह अस्तबल को प्यार करने वाला जानवर है।’ रानी ने घोड़े के लिए यह वाक्य क्यों कहा? |
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Answer» रानी ने घोड़े को एड़ लगाई तो वह झिझका। इससे रानी को उसकी क्षमता पर सन्देह हुआ। अतः रानी ने घोड़े के लिए यह वाक्य कहा। |
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| 18542. |
सतत संघर्ष और निर्माण की क्रियाओं की उपमा कवि ने किससे की है? |
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Answer» सतत संघर्ष और निर्माण की क्रिया की उपमा कवि ने नीड़’ का निर्माण फिर-फिर और नेह का आह्वान ‘फिर-फिर’ से की है। |
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| 18543. |
निराशा में आशा का संचार किस रूप में होता है? |
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Answer» कवि के अनुसार निराशा में आशा का संचार प्रेम और स्नेह के रूप में होता है। |
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| 18544. |
निम्नलिखित शब्दों का अर्थ लिखकर अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए-भासमान , कुमुक , अवशिष्ट , प्रोत्साहन |
Answer»
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| 18545. |
ब्रह्म समाज और आर्य समाज के प्रमुख सिद्धान्तों की तुलनात्मक विवेचना कीजिए। |
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Answer» मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म, ये ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धान्त थे। आर्य समाज ने निराकार परमेश्वर की सत्ता को महत्व दिया और मूर्तिपूजा, अवतारवाद, तथा बाहरी दिखाने का डटकर विरोध किया। ब्रह्म समाज एवं आर्य समाज दोनों ही छुआछूत, बाल विवाह, कन्या वध सती प्रथा अंधविश्वास आदि कुरीतियों का खण्डन कर भारत को धर्म, समाज, शिक्षा एवं राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। |
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| 18546. |
धार्मिक सुधार के क्षेत्र में आर्य समाज की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। |
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Answer» आर्य समाज ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का दावा करके हिन्दू सम्मान के गौरव की रक्षा की तथा हिन्दू जाति में आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को जन्म दिया। इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहयोग मिला। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने हिन्दुओं को उपदेश देकर उन्हें अत्यन्त सरलता से प्राचीन धर्म की विशेषताओं, भारतीय संस्कृति की अच्छाईयों और शुद्ध जीवन के लाभों से परिचित कराया तथा उनकी सुप्त चेतना को जाग्रत किया। |
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| 18547. |
ब्रह्म समाज और आर्य समाज के सिद्धान्तों की किन्हीं दो विभिन्नताओं का वर्णन कीजिए। |
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Answer» ब्रह्म समाज और आर्य समाज के सिद्धान्तों की दो विभिन्नताएँ निम्न प्रकार हैं ⦁ ब्रह्म समाज के अनुसार सभी धर्मों के उपदेश सत्य हैं, उनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जबकि आर्य समाज के अनुसार वेद सब सत्य विधाओं की पुस्तक हैं। वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना आर्यों का परम धर्म है। |
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| 18548. |
समाज सुधारक एवं धर्म सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय का मूल्यांकन कीजिए। |
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Answer» राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई० को बंगाल के राधानगर गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का अग्रदूत और जनक कहा जा सकता है। वे एक ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते थे। उन्होंने लोगों में अपने धर्म एवं राष्ट्र की स्वतन्त्रता के प्रति चेतना उत्पन्न की और अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधार भी किए। धार्मिक सुधार- आधुनिक भारत के धार्मिक जागरण का प्रारम्भ राजा राममोहन राय से ही होता है। उन्होंने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को अन्धविश्वास तथा आडम्बरों के जाल से मुक्त किया। उस समय रूढ़ियों, ढोंगों तथा आडम्बरों की भारी तह ने हिन्दुत्व के सच्चे स्वरूप को ढक लिया था। ईसाई पादरी, हिन्दू धर्म के आडम्बरों की तीव्र आलोचना कर रहे थे। अंग्रेजी पढ़ेलिखे भारतीय नवयुवक द्रुतगति से ईसाइयत की ओर दौड़ रहे थे। राजा राममोहन राय इस स्थिति को देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। उन्होंने हिन्दू धर्म के यज्ञ-सम्बन्धी कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा तथा जातिवाद का खण्डन किया। उन्होंने फारसी में तुहफत-उलमुवाहिदीन नामक पुस्तक लिखी, जिसमें मूर्तिपूजा का खण्डन तथा एकेश्वरवाद की प्रशंसा की गई थी। उन्होंने संक्षिप्त वेदान्त नामक पुस्तक में वेदान्त का टीका सहित अनुवाद किया। वे वेदान्त को हिन्दुत्व का आधार बनाना चाहते थे। हिन्दू समाज में नए धार्मिक विचारों का प्रचार करने के उद्देश्य से उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) में 1815 ई० में ‘आत्मीय सभा तथा 1816 ई० में वेदान्त कॉलेज की स्थापना की और अन्त में 20 अगस्त, 1828 को शुद्ध एकेश्वरवादियों की उपासना के लिए उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस समाज की बैठकों में वेद तथा उपनिषदों का पाठ हुआ करता था। इसमें मूर्तिपूजा तथा अवतार के सिद्धान्तों को नहीं माना गया था। वस्तुतः राममोहन राय विश्व बन्धुत्व तथा मानस प्रेम के पुजारी थे। उनकी निष्ठा किसी सम्प्रदाय विशेष तक ही सीमित न थी। मूर्तिपूजा का विरोध, एकेश्वरवाद में अटल विश्वास, बुद्धिवादी दृष्टिकोण तथा मानव धर्म ये राममोहन राय के प्रमुख सिद्धान्त थे, जिनके आधार पर वे हिन्दुत्व का संशोधन करना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि भारत, यूरोप से विज्ञान को ग्रहण करे और साथ ही अपने धर्म का बुद्धिसम्मत रूप संसार के सामने रखे। प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा आधुनिक प्रगतिवाद के बीच राजा राममोहन राय एक महान् पुल थे। इनकी मृत्यु इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल में 1833 ई० में हुई। मिस काटेल ने उनकी जीवनी में लिखा है- “इतिहास में राममोहन राय का स्थान उस महासेतु के समान है, जिस पर चढ़कर भारतवर्ष अपने अथाह अतीत से अज्ञात भविष्य में प्रवेश करता है। समाज सुधार- राजा राममोहन राय हिन्दू समाज की दशा सुधारने को बहुत उत्सुक थे। उन्होंने समाज में प्रचलित बहुविवाह तथा बालविवाह जैसी बुराइयों का खण्डन किया। स्त्री शिक्षा तथा स्त्रियों के समानाधिकार के वे प्रबल समर्थक थे। उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध शास्त्रार्थ नामक ग्रन्थ में कई निबन्ध लिखे। 1829 ई० में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर इसके विरुद्ध बड़ा कानून बना दिया। यह कानून राममोहन राय के आन्दोलन का ही फल था। राजा राममोहन राय द्वारा प्रकाशित ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’ ने भारतीय विचारों को बदलने तथा विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक सुधार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। |
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| 18549. |
उन्नीसवीं शताब्दी में सामाजिक चेतना में स्वामी विवेकानन्द के योगदान का उल्लेख कीजिए। |
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Answer» स्वामी विवेकानन्द ने आध्यात्मवाद को पुनर्जन्म देकर हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करके उसे ईसाई तथा इस्लाम के आक्रमणों एवं प्रभाव से बचाया। स्वामी जी राष्ट्रीयता के पोषक थे। उन्होंने देश के नवयुवकों में सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना का विकास किया और उन्हें “उठो जागो और तब तक न रूको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो” का सन्देश दिया। 1893 ई० में, वे शिकागो में सर्व-धर्म विश्व सम्मेलन में भाग लेने गए। वहाँ उन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी में अपने विचारों और सिद्धान्तों को व्यक्त किया, जिसका वहाँ उपस्थित सभी धर्मों के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने व्याख्यान में कहा हिन्दू धर्म अति महान् है, क्योंकि यह सभी धर्मों की अच्छाइयों को समान रूप से स्वीकार करता है।” उन्होंने अमेरिकी लोगों की नीति की आलोचना करते हुए लिखा है- “आप लोग अपने ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए तो भारत में असीम धन व्यय कर सकते हैं, लेकिन भारतवासियों की गरीबी और भुखमरी को दूर करने के लिए कुछ नहीं कर सकते। भारत में धर्म का अभाव नहीं, धन का अभाव है।” उन्होंने गर्वपूर्वक घोषणा की थी कि यदि विश्वमण्डल के किसी भू-क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जा सकता है, तो निश्चित रूप से वह भारतवर्ष ही है। विदेशों से लौटने के बाद विवेकानन्द ने समाजसेवा को व्यवस्थित रूप देने के उद्देश्य से ‘रामकृष्ण मिशन’ नाम से एक नया संगठन 5 मई 1897 में स्थापित किया। इस संगठन की ओर से दुर्भिक्ष, महामारी, बाढ़ आदि आपदाओं के समय सहायता कार्य किये गये। विवेकानन्द ने बताया कि मोक्ष संन्यास से नहीं बल्कि मानव मात्र की सेवा से प्राप्त होता है। उनका तर्क था कि शिक्षा सामाजिक बुराईयों को दूर करने का सबसे सशक्त माध्यम है। सत्य के बारे में उनका मानना था कि किसी बात पर यह सोचकर विश्वास न करो कि तुमने उसको किसी पुस्तक में पढ़ा है अथवा किसी ने ऐसा कहा है, अपितु स्वयं सत्य की खोज करो।” विवेकानन्द ने कभी भी सीधे तौर पर ब्रिटिश नीतियों के विरोध में अथवा राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में प्रचार नहीं किया लेकिन सुधार, एकता, जागरण और स्वतन्त्रता के प्रति उनके सभी प्रवचनों के परिणामस्वरूप ही राष्ट्रवाद की सशक्त भावना प्रवाहित हुई। उन्होंने शिक्षित भारतीयों को सम्बोधित करते हुए कहा, “जब तक भारत में करोड़ों लोग भूख और अज्ञान से ग्रसित होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तब तक मैं प्रत्येक उस व्यक्ति को देशद्रोही समझेंगा, जो उनके खर्च से शिक्षित होने के बाद उनके प्रति तनिक भी ध्यान नहीं देता।” रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विवेकानन्द को ‘सृजन की प्रतिभा’ कहा है। वे अमेरिका में तूफानी हिन्दू’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। सुभाषचन्द्र बोस ने लिखा है कि “उनमें बुद्ध का हृदय और शंकराचार्य की बुद्धि थी तथा वह आधुनिक भारत के निर्माता थे। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म, संस्कृति, सभ्यता, गौरव, समाज और राष्ट्रीयता के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस कारण रामकृष्णन मिशन, भारतीय पुनरुद्धार आन्दोलन का एक महत्त्वपूर्ण भाग बन गया और आधुनिक समय में वह विभिन्न क्षेत्रों में भारत की सेवा कर रहा है। |
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| 18550. |
“उन्नीसवीं शताब्दी सामाजिक एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का युग था।” इस कथन की पुष्टि कीजिए। |
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Answer» लगभग दो सौ वर्षों (1757-1947 ई०) तक भारत में ब्रिटिश शासन रहा। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में अंग्रेज भारतीयों से बहुत आगे थे। यूरोप में पुनर्जागरण तथा औद्योगिक क्रान्ति ने कला, विज्ञान तथा साहित्य के क्षेत्र में दूरगामी और क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया था। इसलिए जब भारतवासी अंग्रेजों के सम्पर्क में आए तो वे भी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। पहले तो पश्चिम सभ्यता के सम्पर्क से भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई, फिर धर्म-सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ और फिर विदेशी शासन से मुक्ति पाने हेतु भारत के लोग अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए प्रेरित हुए। भारत पर अंग्रेजों की विजय से भारत का काफी भाग प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत आ गया। इससे यह सम्पर्क और दृढ़ हो गया। इसके अतिरिक्त भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश ने भी पश्चिमी विज्ञान, दर्शन, साहित्य और चिन्तन से भारतीयों का परिचय कराया। इसने उन बन्धनों को तोड़ दिया, जिन्होंने पश्चिमी दुनिया के दरवाजे भारत के लिए बन्द किए हुए थे। प्रारम्भ से ही भारतीय समाज एवं संस्कृति, परिवर्तन और निरन्तरता की प्रक्रिया से गुजरती रही है। 19 वीं शताब्दी के दौरान भारत सामाजिक-धार्मिक सुधारों और सांस्कृतिक पुनरुद्धार के एक और चरण से गुजरा। इस समय तक भारतीय यूरोपियनों और उनके माध्यम से उनकी संस्कृति के सम्पर्क में आ चुके थे। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीयों में राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना उत्पन्न हुई, जिसके फलस्वरूप देश में पहले धर्म व सुधार आन्दोलनों का प्रादुर्भाव हुआ। ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों, विशेष रूप से शिक्षा और धर्म प्रचार ने भी ईसाई धर्म के आन्तरिक सिद्धान्तों की ओर बहुतसे भारतीयों को आकर्षित किया। इससे भारतीय लोगों का जीवन और चिन्तन धीरे-धीरे पश्चिमी संस्कृति और विचारों से प्रभावित हुआ। इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव प्रचलित भारतीय परम्पराओं, विश्वासों और रिवाजों में देखा जा सकता है। अनेक प्रबुद्ध हिन्दुओं ने यह जान लिया कि हिन्दू और ईसाई धर्म बाहरी रूपों में एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी आन्तरिक मूल्यों में एक जैसे हैं। इंग्लैण्ड में इस समय तक पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना हो चुकी थी। इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। 1857 ई० की क्रान्ति के बाद हमारे देश में भी व्यवस्थापिका की स्थापना होने लगी और स्वायत्त शासन विकसित होने लगा। यह संवैधानिक विकास निरन्तर होता रहा और धीरे-धीरे देश लोकतन्त्र की ओर बढ़ता गया। अन्त में, हमारे देश में पूर्ण रूप से लोकतन्त्रीय शासनव्यवस्था स्थापित हो गई। इस प्रकार, अपने धर्म और सदियों पुरानी संस्कृति की महान् परम्पराओं को छोड़े बिना प्रबुद्ध भारतीयों ने अपने समाज को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने के विषय में गम्भीरता से विचार किया। अत: भारतीय इतिहास में 19 वीं शताब्दी महान् मानसिक चिन्तन का युग माना जाता है। इसने अनेक सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों को जन्म दिया, जिन्होंने नए भारत के उदय को सम्भव बनाया। इन आन्दोलनों ने भारत के समाज, धर्म, साहित्य और राजनीतिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया। इसी भावना और इससे प्रभावित विभिन्न प्रयत्नों को हम भारतीय पुनरुद्धार आन्दोलन के नाम से पुकारते हैं। भारतीय पुनर्जागरण ने यूरोप की भाँति धर्म, समाज, कला, साहित्य आदि को प्रभावित किया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता, प्रगति तथा पश्चिमी सभ्यता के सामने टिकने का साहस ही भारतीय पुनर्जागरण का आधार था। भारतीय जीवन का चहुंमुखी विकास उसका स्वरूप था तथा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं कलात्मक क्षेत्र में नवीन चेतना की उत्पत्ति उसका परिणाम था। आरम्भ में पुनरुद्धार आन्दोलन एक बौद्धिक परिवर्तन था, बाद में वह अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का आधार बना और अन्तत: भारतीय जीवन का प्रत्येक अंग इससे अछूता न रहा। |
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